बुधवार, 28 जुलाई 2010

रवि श्रीवास्तव के दो व्यंग्य संग्रह



पुस्तक समीक्षा
       
                                                                               - डॉ. बलविंदर कौर


        साहित्य की आधुनिक विधाओं में हास्य-व्यंग्य का अपना महत्व है, जो आधुनिक संदर्भ में और 
 भी बढ़ता जा रहा है। आज कई 'लाफ्टर क्लब व चैनल' इस विधा को पर्याप्त लोकप्रियता प्रदान कर रहे हैं। इसी विधा को अपने लेखन का केन्द्र बिन्दु बनाते हुए रवि श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक 'हमारा लीदर बल्ली संत' और 'सारे जहाँ का दर्द' में विविध समस्याओं, मुद्दों, प्रश्नों को व्यंग्यात्मक रूप से अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। पुस्तक की भूमिका के कुछ अंश विचारणीय हैं- " साहित्य की लगभग सभी विधाएँ दम तोड़ती जा रही हैं। उनके पाठक नेपथ्य में नदारद होते जा रहे हैं, ऐसे में पढ़ा जा रहा है तो सर्वाधिक व्यंग्य और सुना जा रहा है तो सर्वाधिक व्यंग्य ही सुना जा रहा है।"
      
        हालाँकि व्यंग्य लेखन की परम्परा का अपना एक अलग इतिहास है, लेकिन इसके बावजूद व्यंग्य का आलोचकों ने काफी नोटिस नहीं लिया है। इसी परम्परा को एक नये शिल्प व गद्य रूप में हैदराबाद के प्रसिद्ध रचनाकार रवि श्रीवास्तव ने भी आगे बढ़ाने का कार्य किया है। रवि श्रीवास्तव व्यंग्य के हालात की पर्त-दर-पर्त उधेड़ने की कला में माहिर हैं। उन्होंने कभी भी सायास व्यंग्य नहीं लिखे बल्कि व्यंग्य उनके विश्लेषण की स्वाभाविक शैली है।

        इस संदर्भ में उनके दो व्यंग्य संकलन 'हमारा लीडर बल्ली संत' तथा 'सारे जहाँ का दर्द' विशेष उल्लेखनीय हैं। 'एकलव्य के ठेंगे से' के क्रम में प्रकाशित 'हमारा लीदर-बल्ली संत' (2006) पुस्तक मिलाप समेत कई पत्र-पत्रिकाओं में छप-छपा चुकी उनकी नई-पुरानी रचनाओं का पुलिंदा है। ये रचनाएँ व्यंग्य के विविध पुटों को लिए हुए हैं। जैसा कि हम समझते है-व्यंग्य एक ऐसी ही चटनी है जो हर पत्तल, हर थाली में जगह पाती है, इसी तथ्य को सार्थक करता है-श्रीवास्तव का प्रस्तुत संग्रह।


        'हमारा लीदर बल्ली संत' में कुल '51' निबंध हैं। अपने इस संग्रह में उन्होंने ऐसी सरकारी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया है जो प्याज, गन्ना, कपास पैदा करने वाले किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही हैं। अपने पर हँसना या अपनों को हँसाना कोई सहज कार्य नहीं है। अपने तंत्र पर हँसने का कठिन कार्य उन्होंने 'हमारा लीदर-बल्ली संत' में बखूबी किया है। जनतंत्रिय व्यवस्था में सिरे से आई विद्रूपता, विसंगतियों को भिन्न प्रसंगों, पात्रों व घटनाओं द्वारा सफलतापूर्वक उन्होंने प्रस्तुत किया है। उनके व्यंग्य की एक और बड़ी विशिष्टता रही है कि उन्होंने वास्तविक जीवन की विड़ंबनापूर्ण स्थितियों का रोचक और वस्तुनिष्ठ चित्रण किया है। साथ वे विरोधाभासों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति, पौराणिक-ऐतिहासिक प्रसंगों, लोकोक्ति-मुहावरों आदि के प्रयोग द्वारा अपने व्यंग्य प्रहार को तेज धार भी प्रदान करते हैं। उनके व्यंग्य की मार्मिकता का कारण उनमें छिपी करूण भावना का ही प्रकटीकरण है। पुस्तक का आवरण चित्र और शीर्षक सच में उनकी भाषा व विचार के लोकवादी होने की पृष्ठभूमि की ओर इंगित करता है।

        'हमारा लीदर-बल्ली संत' शीर्षक की उपयोगित का खुलाता करते हुए उनका कहना है कि "शिक्षा-दीक्षा के साथ हुआ अन्याय सारी विसंगतियों का जनक है। कसूर, दुर्योधनी राजसत्ता और द्रोणाचारी दीक्षा का है। दाहिने हाथ का अँगूठा जिस दिन गुरू दक्षिणा में माँगा और कटवा लिया गया था, उसी दिन से वह अब तक सबको ठेंगा दिखाता आ रहा है।" अतः आधुनिक व्यवस्था में भी सतही स्तर पर थोड़ा बहुत परिवर्तन दिखाई दे सकता है, लेकिन गहरे में वहीं गंदी-सड़ांध तल तक समाई हुई है।

        राजनेताओं की भ्रष्ट धार्मिक, राजनैतिक, समाज-सांस्कृतिक दलिलों के पीछे की स्वार्थपरता व चापलूसियों का सटीक और बेजोड़ चित्र प्रस्तुत करने में रवि श्रीवास्तव का जवाब नहीं है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने सामान्य भाषा और उदाहरणों का सहज में इस्तेमाल किया है। इस संदर्भ में संग्रह में प्रस्तुत कुछ निबंधों के कथ्य व शिल्प को देखा जा सकता है।

        संग्रह का पहला निबंध 'पर्दा उतारती परियोजना ललियाँ' में प्रतीकात्मक रूप से सरकारी परियोजनाओं की तुलना प्रेमिकाओं के स्वभाव से करते हुए उसे काफी लचीली व अस्थाई बताने का शिल्प काफी जबरदस्त है। 'मन के कैनवास पर खुरची तस्वीर' निबंध में आस्था,विशवास और श्रद्धा की उपयोगिता नापने के लिए हानि और लाभ के सतही पैमाने को नकारा है- "इसीलिए हमें अपनी श्रद्धा, अपना विशवास अपनी आस्था और मान्यता की वैज्ञानिक या क्लीनिकल शल्य क्रिया कराना मजूर नहीं है। फायदे और नुकसान के बटखरे में हमें अपनी बोधगम्य तस्वीर का वजन करना अच्छा नहीं लगता और ना ही लगना चाहिए।" 'फिरौती के लिए कम जोख़मी नुस्खा' लेख में अंडरवल्र्ड में फिरौती 'रैनसम' की परम्परा को भारतीय धार्मिक मिथक से जोड़ा है। जिसमें रावण का सीता को छल से उठा ले जाना एक तरह से आधुनिक अपहरण का ही रूप बताया गया है। आगे समाज की बुराई को फिरौती के रूप में अपहरण कर लिए जाने की बात कहीं गई है। 'वह लैंड ऑफ लॉ' चाहता है... निबंध में तमाम खाकी और सफेद वर्दियों से बड़ी और ऊँची-कागज़ी वर्दी को माना गया है, इसके बावजूद भी कागज़ की वर्दी पर लिखी शिकायत कुछ भी नहीं कर पाती, क्योंकि "यार यह क्यों भूल जाते हो कि तुम 'लैंड ऑफ लॉ' के बाशिंदे नहीं हो बल्कि 'लॉ ऑफ लैंड' के बाशिंदे हो।" 'बीच में जो है, एक मिथ है, मिथ्या है' निबंध में दर्शन का सहारा लेते हुए पाप-पुण्य, जड़-चेतन अवस्था की बात कहीं गई है। 'कोई आईना सच बोलेंगा नहीं' में आईने के सामने नंगा खड़ा होकर भी आईना सच नहीं बोलता। इस तथ्य को बड़े ही कलात्मक ढंग से दर्शाया गया है। साथ ही 'रिटायरमेंट' की प्रचलित धारणा को नकारकर उसे एक सकारात्मक रूप देने का प्रयत्न भी बड़े ही व्यंग्यात्मक रूप में हुआ है। महिला हेल्थ क्लबों की वास्तविकता का पर्दा फाश भी यहाँ किया गया है। इसके अतिरिक्त डॉक्टर और दवाओं में चक्कर खाते इन्सान की हालत पर एक भावात्मक दृश्य भी प्रस्तुत हुआ है। कबीरदास के हवाले से धार्मिक उन्माद और वैमनस्य के तथ्य को उजागर किया गया है। 'ही इज़ आल इन वन टू हर' लेख में संस्कृत के श्लोकों के हवाले से पागलख़ाने को सम्पूर्णता में व्यक्ति को अपनाने वाला तथा उसकी तुलना में संसार को स्वार्थी करार दिया गया है। कहीं-कहीं भारतीय संस्कृति की परम्परागत मान्यताओं को मानते हुए उसके संरक्षण की हिमायत की गई है। 'थाने का कुत्ता और थानेदार की बछिया फरार' में कुत्ते और बछिया के प्रेम विवाह से सरकारी लाभ की बात कहीं गई है। "आदर्श विवाह और संकर उत्पत्ति के लिए कुत्ता और बछिया सोशल वेलफेयर का अवार्ड पाएँगे और उनकी भावी संतानें यही अफेयर जारी रखने के लिए आइन्दा बछेड़ी और गधे के बीच प्रेमपींग बढ़ाकर खच्चर का उत्पादन बढ़ाएँगें।"

   

    'साम्प्रदायिकत जी पर चढ़ी जवानी' में एक चंचल लौंडिया से साम्प्रदायिकता की तुलना कर सरकारी तंत्र पर कटाक्ष किए गए है। इसके अतिरिक्त विश्व में भारत की उपलब्धियों को गिनाते हुए, उसी की व्यवस्था के द्वारा उसके पतन की बात कहीं गई है। और प्रैक्टिकल राजनीति शास्त्र में रटन की प्रवृत्ति का निषेधकर व्यावहारिकता को भारतीय लोकतंत्र में ज्यादा सफल दिखाया गया है। 'वरदान पाया भस्मासुर' में सरकार को भोलेनाथ और समस्याओं को भस्मासुर के प्रतीक से रूपायित करते हुए राजनीतिक सत्य की पर्तों को खोला गया है। भारत में जातिवाद की गहरी जड़ों को बार्किंग डॉग्स आर नाट अलॉउड के रूप में चित्रित किया है। "हमें इस घटना में जाति-गौरव से तिलमिलाते उन रहनुमाओं का अक्स दिखा था जो जात-पाँत का भेद भाव मिटाने का ठेका लिये हुए हैं, लेकिन खुद उस जाति मद से मुक्त नहीं हो पाए।" उत्तर आधुनिक युग में अनिद्रा व तनाव से ग्रस्त व्यक्ति की दशा का भी वर्णन बड़े कलात्मक रूप में मिलता है। 'काश गुर्दे की तरह हर अंग डबल होता' में पौराणिक संदर्भों में गणेश जी के शीश परिवर्तन की कथा के माध्यम से किडनी प्रत्यारोपण व अन्य अंगों के ट्रांसपलेन्टेशन की तरह ही यदि शरीर का हर अंग दो होता, जिससे मनुष्य की बहुत सी समस्याएँ हल हो जाती के प्रति भी आशा का भाव रखा गया है। 'पांव पखारने वाली चाहिए' लेख में ऐसी महिलाओं का आधुनिक युग में बोलबाला दर्शाया गया है जो दुनिया के कारखाने में अब पांव पसारने वालियाँ हो, न की पांव पखारने वाली भर।

        कुल मिलाकर उन्होंने अपने इतराफ के परिवेश को बड़े ही संवेदनात्मक रूप से हास्य-व्यंग्य की चाँसनी में डूबो कर पाठकों के सामने परोसने का कार्य किया है। निश्चय ही उनका यह संग्रह इस युग की परिस्थितियों पर एक करारा व्यंग्य साबित होता है।

       

        'सारे जहाँ का दर्द' (2009), उनके व्यंग्य-आलेखों की तीसरी किताब है। इस संग्रह के लगभग सभी निबंधों में वे अपनी ओर से कोई फैसला नहीं देते। सच-झूठ के बीच के विकल्प को वे अपने पाठक तक छोड़ना ही बेहतर समझते है।


        रवि श्रीवास्तव लंबे समय तक डेली हिंदी मिलाप से जुड़े रहे जिससे कि अख़बारनवीसी के सरोकारों ने उन्हें जिन्दगी के मसाइल से जोड़कर हकीकत बयानी का आदर्श-ईमान बना दिया। उन्होंने अपनी सीधी-सादी उक्तियों व पौराणिक, ऐतिहासिक पात्रों की सन्दर्भानुसार निर्मिति को जो व्यंग्य का लेहजा दिया है, वह सपाटबयानी को उस ऊँचाई पर ले जाता है, जिसे छूपाना असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य है।

        व्यंग्य की सार्थकता उसके चुटीलेपन में होती है जो दूर तक पाठक को चोट पहुँचाने का काम करती है। रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य लेख भी इसी काम को बखूबी अंजाम देते हैं। व्यंग्य उनके लिए कला भी है, तमीज भी है और तहजीब भी। इस ज़माने में जहाँ व्यक्ति संवेदनहीन होकर पथरा सा रहा है, ऐसे में उस तक अपनी बात पहुँचाने के लिए व्यंग्य से ज़्यादा कारगर कोई विधा हो भी नहीं सकती, इसका एक उदाहरण रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य माने जा सकते है।

        व्यंग्य की असाधारण अभिव्यक्ति को पाठक तक पहुँचाने का सर्वाधिक जरूरी माध्यम भाषा है। भाषा की गहरी पकड़ के बिना व्यंग्य अपनी सार्थकता को नहीं छू पाता है। इसी भाषागत गहराई को रवि श्रीवास्तव ने अपनाकर अपने व्यंग्यों को चुटीला, सपाट व कटाक्षी बनाया है। पाठक पर उनकी भाषा के प्रभाव को देखते हुए ही तो उनके संदर्भ में यह बात कही जाती है- 'वाह ! साला क्या लिखता है !'

        इनके व्यंग्य लेखों में हमें कहीं भी किसी बात की पुनरावृत्ति नजर नहीं आती है। उन्होंने कथ्यों को कई प्रामाणिक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए शेरो-शायरी, दोहे-चौपाई, उक्तियों आदि को माध्यम रूप में भी इस्तेमाल किया हैं।

        'सारे जहाँ का दर्द' संग्रह में '33' निबंध हैं। इन व्यंग्य निबंधों का अपना एक विशिष्ट तेवर है जो आए दिन समाज, व्यवस्था, सरकार, अर्थ आदि के क्षेत्र में आने वाली समस्याओं के कारणों की तहों को एक-एक कर खोलकर पाठकों के सामने एक प्रश्न के रूप में खड़ा करता है। इन व्यंग्य लेखों में कई तरह के विषय है जिसमें एक ओर सरकारी कर्मचारियों द्वारा सरकार के पैसों का मनमाने
ढ़ंग से प्रयोग पर औरंगजेब व चाणक्य जैसे ऐतिहासिक पात्रों के जीवन का आदर्श लेकर आज की वास्तविकता पर चुटकी कसी है। 'तरक्की के टीले में दबी, झाँकती सवालिया आँखे' निबंध में तकनीकी के विकास की बात करते हुए व्यक्ति के स्वास्थ्य को लेकर हो रही लापरवाही को रेखांकित किया गया है। भारत में धर्म का क्षेत्र सदैव विवादों के घेरे में रहा है, इसी धारणा को ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी मान्यता के आधार पर हर किसी को समान अभिव्यक्ति के अधिकार की बात कहीं है। 'यह किसी का विश्वास है न कि अंध-विश्वास जैसे निबंध में विश्वास और अंध विश्वास के मूल तत्वों पर विचार करते हुए निष्कर्ष रूप में कहा है कि- "अंध विश्वास कुछ भी नहीं है। यह सिर्फ दूसरे की नज़र का धोखा है चश्मा है रंग है। पूरी दुनिया विश्वास पर ही टिकी हुई है।" 'जिन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखों' में स्कूली पाठ¬क्रमों की रटान्त पढ़ाई से हटकर जिन्दगी के अनुभवों से ज्ञान अर्जित करने की बात कही गई है-

"धूप में निकलों घटाओं में नहा कर देखो ।
जिन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो ।।"

        'प्यार को प्यार रहने दो कोई नाम न दो' निबंध में वैलेन्टाइन-डे को भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक रूप में कामदेव की संज्ञा दी गई है तथा ऐसी पाश्चात्य धारणा का विरोध किया है। चिकित्सा के क्षेत्र में नयी-नयी पद्धति के होते हुए भी कुल शहर बीमार ही पड़ा हुआ है लेख में समाज के यथार्थ को दर्शाते हुए कहा है कि -

"डॉक्टर है सब कोई और हर कोई बीमार है।
और तो सब ठीक है, पर कुल शहर बीमार है ।।"

        साथ ही परीक्षा-पद्धति और शिक्षा भवन निर्माण की स्थितियों पर भी काफी कुठाराघात एक सहज ढंग से लेखक ने किया है'जीवन विधि के ही नहीं विधान के भी हाथ में है ' लेख में अमेरिका जैसे विकसित देशों में व्यक्ति के जीवन की बागडोर विधायकों के हाथ में है- "कोई रोगी कब और कैसे मरे या जिए, इसका फैसला अमेरिका की अदालत और वहाँ की कांग्रेस के हाथ में है। विधि की जगह, वहाँ 'विधेयक' तय करेंगे कि अदालत जिस रोगी को मौत की नींद सुलाना चाहती है, उसे जिंदा रखा जाए या नहीं।" शब्दकोश कहते है कि 'सेवा' का मतलब कुछ और है' के माध्यम से शब्द के परिवर्तित होते नये अर्थों की ओर इशारा किया गया है। भारत की बढ़ती आबादी पर भी कुछ लेखों में कटाक्ष है। निजी क्षेत्रों में नौकरी करने वाले व्यक्ति की स्थिति को उजागर करते हुए 'गधों को साप्ताहिक छुट्टी देने का फैसला' लेख में व्यक्ति की तुलना गधों से की गई है। 'क्रिकेट रिक्वायर्स मोरोटोरियम इन इंडिया ? के माध्यम से इस क्षेत्र में आई अनियमितताओं व विसंगतियों की ओर ध्यान दिलाया गया है-"बकौल कम्यनिस्ट्स अगर धर्म अफ़ीम है तो क्रिकेट जैसा खेल भी अफ़ीम है जो जुनूनी बनाता है। खिलाड़ियों का पुतला फूँकने की जगह पागलों को अपना घर फूँक लेना चाहिए था।" पौराणिक घटनाओं को आधार बनाकर आस्था और विश्वास की बात 'अट्टाहास करि गरजा कपि बढ़ि लाग अकास' में की गई है। कुछ संस्मरणात्मक लेखों में अपने मित्र, डॉक्टर की सलाहों और व्यक्तित्व को प्रेरणा रूप में ग्रहण किया है। 'निजता में हस्तक्षेप के लिए संविधान का बहाना' लेख में एश्वर्या   के पेड़ से  विवाह पर उठे विवाद की परत को उधेड़ते हुए व्यक्ति के अधिकार व अंधविश्वास , संस्कार आदि विषयों पर विचार प्रस्तुत किए हैं।

        आज की शैक्षणिक संस्थाओं में हो रहे शोध पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने निबंध लिखा 'अब तो उनकी कमर पर शोध भी होने लगी' जिसमें हमारे कवि लेखक किस तरह स्त्री देह को लेकर लालायित है, इसका परोक्ष रूप से उल्लेख किया है। उस्मानिया विश्व विद्यालय के प्रोफेसरों और रीडरों पर कहीं कटाक्ष तो कहीं तहेदिल से श्रद्धांजली भी प्रस्तुत की गई है। ईश्वर की सृष्टि पर भी काफी प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कुछ समाधान प्रस्तुत किए हैं। 'अनछुई कोमल गीली मिट्टी सलीके से छुई जानी चाहिए' लेख में बच्चों के जीवन को कैसा बोझिल बना दिया जा रहा है इसे दर्शाया गया है। संग्रह के अंतिम लेख 'कंधों पे जरा इन्हें भी अपने उठाइए' में उन्होंने हैदराबाद में पहले किस तरह से हिन्दु-मुस्लिम गंगा-जमुनाई संस्कृति के परिचायक थे। लेकिन अब उनके बीच आए व्यवधान को उन्होंने अपने चुटीले अंदाज़ में बयान किया हैं।           

        कुल मिलाकर लेखक ने अपने युग की सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक विसंगतियों व अघटनीय घटनाओं को बड़े ही सहज तरीके से कई शीर्षकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। आशा है कि  उनके ये संग्रह हिन्दी व्यंग्य साहित्य जगत में अपना विशेष स्थान बना पाएँगें।



                विवेचित पुस्तकें :-
                हमारा लीदर बल्ली संत, 2006
                सारे जहाँ का दर्द...(2009) 
                लेखक : रवि श्रीवास्तव
                प्रकाशक : मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद
          

3 टिप्‍पणियां:

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

रवि श्रीवास्तव जी के व्यंग्य संग्रहों पर आपकी समीक्षा पढ़ी . समीक्षा अच्छी हैं .' भाषा की गहरी पकड़ के बिना व्यंग्य अपनी सार्थकता को नहीं छू पाता है.'
भाषा की गहरी पकड़ के बिना अच्छी समीक्षा भी नहीं बन पाती. सफल समीक्षा के लिए आपको बधाई.
- डॉ. बी.बालाजी

Gurramkonda Neeraja ने कहा…

समीक्षा अच्छी लगी | बधाई हो | आगे भी लिखते रहें |

राधा कृष्ण मिरियाला ने कहा…

श्रीवास्तव जी के व्यंग्य संग्रहों पर आपकी समीक्षा पढ़ी . समीक्षा अच्छी हैं .' भाषा की गहरी पकड़ के बिना अच्छी समीक्षा भी नहीं बन पाती. सफल समीक्षा के लिए आपको बधाई.