शनिवार, 17 जुलाई 2010

अंधेरा

बचपन में अंधेरा अज़नबी-सा लगता था !
लेकिन उजाले में वह ज्यादा नहीं डराता था !
बचपन में जीवन के अंधेरे के साथ, रात का अंधेरा...
अपरिचय के कारण उतना ही डराता !
सच तब अकेलेपन से डर लगता था !
पर आज उससे परिचय हो गया...!
मैं ख़ुद को उसमें डुबोती चली गई !
कितना अपना-सा लगता है- 'वह' !
छिपाना उसकी सबसे बड़ी ताकत है !
वह सबको समान बना देता हैं !
ज्ञान का प्रकाश भी इसमें चस्प है !
कितना बड़ा द्वन्द्व-कल का अंधेरा आज का उजाला !
कल का अकेलापन, आज की ताकत !
वह अन्दर का उजाला है !
जिसने बहुतों को उबारा हैं !
और मुझे यह बहुत ताकत देता है....
पर क्या आपको भी.....?

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