बुधवार, 18 अगस्त 2010

महिलाओं पर बढ़ती हिंसा कैसे रोकें ?


महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों व हिंसा का इतिहास काफी पुराना है। जब पित्तृसत्तात्मक व्यवस्था ने किन्हीं कारणों के परिणामस्वरूप स्त्री को अपने से कमजोर, निर्बल पाया, तभी से शायद स्त्री पर हिंसा की कहानी आरम्भ हुई। इस हिंसा का मूल कारण था- स्त्री को मानवी न समझना तथा उस पर किसी भी तरह के अधिकार लादने की स्वतंत्रता पाना। स्त्री का पुरूष की निजी संपत्ति बनना ही उसकी परतंत्रता, गुलामी की शुरूआत थी। प्राचीन काल से लेकर आज तक कई रूपों में स्त्री पर हिंसा का तांडव बदस्तूर जारी हैं। यदि हम इस बात पर विचार करें कि आखिर स्त्रियों पर इतनी हिंसा क्यों बढ़ रही है ? तो इसके कई भौतिक, सामाजिक-आर्थिक- सांस्कृतिक कारणों के अतिरिक्त राजनीतिक कारण भी रहें हैं।

स्त्री पर हो रही हिंसा का मूल कारण उसके शरीर का पुरूष के शरीर से कुछ हद तक भिन्न होना हैं। समाज ने जाने-अनजाने स्त्री-पुरूष के बीच जब से भेद करना आरम्भ किया. उसी दिन से दोनों के मध्य एक असंतुलित असमानता निर्मित हो गई। स्त्री पर हो रहे अत्याचारों का मूल कारण उसकी देह है। स्त्री की 'देह' के भिन्न आयामों को समझने में कई देशी-विदेशी महिलाओं व पुरूषों ने जमकर शोध किए। 'सीमॉन बाउवा' , की पुस्तक ' दि सेकेंड सेक्स' और केट मिलट की 'दि सेक्सुयल पॉलिटिक्स' ऐसी आरम्भिक पुस्तकें थी जिन्होंने स्त्री को एक मानव का दर्जा प्रदान करवाने के प्रयत्न किए। इस उत्तर-आधुनिक समय में ऐसी अनेकों पुस्तकें, फिल्में व संस्थाएँ आदि विकसित हो चुकीं है, जो स्त्री की देह से जुड़ें कई मुद्दों को तर्क के साथ सामने लाती हैं। इस संदर्भ में सैंकड़ों किस्म का स्त्री साहित्य विश्व की लगभग कई भाषाओं में भिन्न-भिन्न मुद्दों को लेकर लिखा जा रहा हैं।


महिलाओं पर बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए अब तक कई महिला आन्दोलनों के साथ-साथ आयोगों व संगठनों की भी स्थापना हुई, लेकिन फिर भी भिन्न स्तरों व वर्गों की महिलाओं को कई तरह की हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। समाज में किसी भी वर्ग की महिला की स्थिति अधिक बेहतर नहीं है। स्त्री की खुद की 'देह' उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है और कमजोरी भी, इसलिए उस पर स्त्री का ही अधिकार होना चाहिए, क्योंकि पुरूष उस पर आधिपत्य जमाकर स्त्री को कई तरह की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक यातना दे सकता हैं। वैसे तो महिलाओं पर हो रही हिंसा को नियंत्रित करने के लिए इतने कानूनी अधिनियम (एक्ट) बने है कि उसकी तुलना में पुरूष के लिए शायद ही कोई कानून बना हों। उदाहरण के लिए घरेलु हिंसा अधिनियम 2005, संपत्ति अधिकार अधिनियम आदि-आदि। लेकिन विडम्बना की बात तो यह है कि स्त्रियों के लिए जितने अधिक कानून बने हिंसा भी उसी मात्रा में बढ़ी है। ऐसे में समस्या की मूल जड़ को पकड़ना होगा।


इन सबके अतिरिक्त भी भिन्न-भिन्न धर्मों की महिलाओं के साथ हिंसा की कुछ विशिष्ट समस्याएँ रही जैसे-हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि धर्मों की स्त्रियों पर हिंसा का तांडव कुल मिलाकर एक सा रहा हैं। ऐसे में समाज को यह जानना जरूरी है कि ये धर्म के ठेकेदारों की राजनीति व दोहरेपन का ही परिणाम है क्योंकि धर्म के सामने सभी समान हैं। निम्न वर्ग की स्त्री के साथ तो हर तरह का शोषण अपनी अंतिम अवस्था पा लेता है। हिंदी में ऐसी कईयों फिल्में है जिसमें निम्न जाति की महिलाओं के साथ सभी वर्ग के पुरूष अमानवीय व्यवहार का परिचय देते हैं- बैंडिट क्कुयिन , बवंडर जैसी कई फिल्में इसके प्रामाणिक उदाहरण हैं। आए दिन समाचार पत्रों में जहाँ एक ओर पिछड़ी जाति की महिला को नंगा घूमाया जाता है तो कई अन्य क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, बलात्कार आदि की सैंकड़ों घटनाएँ सामने आई हैं। कुलमिलाकर विश्व  की सारी महिलाओं की दशा लगभग एक जैसी ही हैं। बहरहाल अब यहाँ यह बात गौर तलब है कि ये हिंसा महिलाओं पर क्यों हो रही है ? क्या ये कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा की कमी है जिसकी वजह से हमें अभी भी ये दुर्भाग्यपूर्ण मामले देखने-सुनने पड़ रहे हैं ? क्या लड़कों को ये ही शिक्षा दी जाती है- बेटा तू जो करे सब सही है तू लड़की को छेड़े सहीं है, तू अपनी पत्नी को पीटे सही है, तुझे अधिकार है पीटने का, तू दूसरी शादी करे सही है- क्या लड़के को ही संस्कार दिए जाते है लड़कियों के प्रति अपने परिवार से। और उसकी तुलना में लड़की को कहा जाता हा हमेशा चुप रहने को सहने को, शादी के बाद उसका घर अब पति का घर है और पति की पिटाई भी। ऐसे में क्यों नहीं हम अपनी बेटियों को आवाज उठाने के लिए उत्साहित करते है, उसे इतना पढ़ाते है लेकिन अंत में सब बराबर हो जाता है।


महिलाओं पर हिंसा के मुख्यतः दो रूप देखने को मिलते हैं- शारीरिक और मानसिक। इस युग में भी शहर की महिलाएँ शिक्षा प्राप्त कर भी अपने कानूनी अधिकार को जानते-पहचानते उसका प्रयोग नहीं करती है- यह एक बड़ी विडंबनापूर्ण स्थिति हैं। क्योंकि अब तक के पितृसत्तात्मक समाज ने कई सैंकड़ों वर्षों से स्त्री को जो प्रशिक्षण संस्कार दिए दिए है उससे वह चाहकर भी नहीं उभर पाई हैं। उससे जुड़ी कई समस्याओं में उसकी देह सुचिता का प्रश्न उसमें समाज द्वारा इतना कूटकूट कर भर दिया गया है कि उसके साथ हुए बहुत से अमानवीय व्यवहारों के प्रति भी वह इसलिए खामोस रहती है कि कहीं किसी को उसकी असुचिता का पता न लग जाएँ। जहाँ तक ग्रामीण महिलाओं का प्रश्न है वे भी अब निजी संस्थाओं द्वारा अपने अधिकारों व अपने ऊपर हो रही हिंसा के प्रति जागरूक तो हो रही हैं लेकिन उनकी पहल भी शोषण के खिलाफ कोई व्यापक रूप धारण नहीं कर सकी हैं। महिलाओं पर पुरूष प्रताडनाओं का अभी हाल ही में साहित्य जगत में एक मुद्दा काफी गरमाया रहा- जब किसी उच्च अधिकारी ने महिला लेखन को पूरी तरह ख़ारिज़ ही नहीं किया बल्कि महिला लेखन को 'छिनाल प्रवाद' की संज्ञा दे दीं। ये तो सरासर स्त्रियों के प्रति सामाजिक और मानसिक उत्पीड़न हैं। इतना ही नहीं ऐसे सैंकड़ों मुद्दें है जहाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने अपना वर्चस्व स्थापित कर महिलाओं के बढ़ते कदम को रोकने के लिए असभ्य भाषा का प्रयोग कर उन्हें बदनाम व निरूत्साहित किया। इसी घटना को लेकर जब महिलाएँ एक हुई तो अधिकारी को माफी माँगनी पड़ी। इसी तरह के ढ़ेरों उदाहरण है जहाँ महिलाओं ने एकजुट होकर न्याय पाया। अतः स्त्रियों की जागरूकता, एकता ने उसे, परिस्थितियों को बदलने की शाक्ति दीं।


कुछ सम्भावित समाधान-

  • -सामाजिक सोच में आमूलचूल परिवर्तन- जो एक कल्पना मात्र हो सकती है लेकिन समाज को बेहतरी के लिए स्त्री के प्रति अपनी पारंपरिक सोच को बदलना होंगा।
  • -महिलाओं को शिक्षित करने हेतु पितृसत्तात्मक समाज को आगे आना होगा तथा सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं को उन्हें हर तरह से शिक्षित करना होंगा।
  • -स्त्रियों को हर तरह से सशक्त करना होंगा।
  • -पितृसत्तात्मक सोच को उलटकर संतुलित दृष्टि विकसित करनी होंगी।
  • -स्त्री-पुरूष में सामान रूप से एक-दूसरे के प्रति परस्पर वि·ाास, प्रेम, सौमनस्य और सौहार्द की भावना को विकसित करना होंगा।
  • -समाज द्वारा महिला उत्पीड़न, यौन शोषण के विरूद्ध सख्त कानून बना कर स्त्री-हिंसा के मामलों को तत्काल निबटाना होंगा।
  • -महिलाओं के लिए विशेष न्याय व्यवस्था का समायोजन तथा हक की लड़ाई के लिए समुचित स्त्री संसाधनों की व्यवस्था भी की जाएँ।
  • -अपने पर होने वाले किसी भी तरह की हिंसा को बिना भय के समाज के सामने लाना होंगा।
  • -उसे किसी तरह के लालच, कमजोरी, दुर्बलता को गले नहीं लगाना चाहिए।
  • -महिलाएँ एकजुट हो हिंसा फैलाने वाले तत्वों के प्रति जागरूक रहें।


आज तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था महिलाओं पर अधिकार, हिंसा, अत्याचार को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती रही हैं, लेकिन अब उन्हें ये विचार बदलने होंगे। महिलाओं को बेहतरीन व उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्हें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर स्वावलम्बी बनाया जाएँ। आज ऐसे कई कानून बन गए हैं जहाँ परिवार में पैदा होने वाली लड़कियों के लिए विशेष अधिकार, योजनाएँ निर्मित है जिसका वे लाभ उठा सकती है। सरकार ने किसी घर में एक ही लड़की संतान होने पर उसकी पूरी शिक्षा-दीक्षा का दायत्व उठा रखा हैं। हाल ही में किरन बेदी द्वारा प्रस्तुत 'आपकी कचहरी' धारावाहिक एक तरह से महिलाओं पर बढ़ रही हिंसा को रोकने का सफल प्रयास था। इसके अलावा भी टी.वी के कई कार्यक्रमों द्वारा महिलाओं पर हो रही हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई जा रहीं हैं। आरूषि हत्याकांड के न्यायिक फैसले ने महिला सशक्तीकरण की धारणा को और मजबूत कर दिया है। अब जरूरत है तो केवल स्वयं में साहस और निडरता पैदा करने की।


कुलमिलाकर महिलाओं को भी आत्मसंयम के साथ अपने आत्मविश्वास   को बनाए रखते हुए लोकतांत्रिक पद्धति से ऐसे हिंसक समाज का विरोध करना चाहिए। सरकार व निजी संस्थाओं ने महिलाओं को इन हिंसक प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए बहुत से प्रशिक्षण केन्द्र खोल रखे हैं साथ ही वे कई जगह जाकर अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की शिकायत भी दर्ज करा सकती हैं। असल में महिलाओं पर हिंसा को रोकने के लिए खुद समाज के प्रत्येक व्यक्ति को पहल करनी पढ़ेगी।


डॉ. बलविंदर कौर

शनिवार, 14 अगस्त 2010

उत्तर-आधुनिकता विमर्श और पहचान का संकट



- बलविंदर कौर 



उत्तर-आधुनिकता पर विचार करने से पहले आधुनिकता की संकल्पना व उत्तर-आधुनिकता के अन्तःसम्बन्धों को समझना जरूरी हैं। तथा पश्चिम में ये विचारधारा किस रूप में विकसित हुई व भारत के संदर्भ में ये कितनी कारगर सिद्ध हो सकती है ? इसके अलावा इस अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में विचारधाराओं का अन्त किस तरह से विमर्शों की शुरूआत करता है? हाशियाकृत समूह व तत्व किस पहचान के संकट से गुजर रहे है ? क्या हाशिये के समूह, केन्द्र में अपना अस्तित्व बनाए रखने की लड़ाई लड़ रहे है ? या फिर समग्रता के साथ रहते हुए अपनी एक अलग पहचान भर बना लेना चाहते हैं ? आदि कई सवालों को जानना होगा। इन्हीं कुछ बिन्दुओं को लेकर इस लेख में चर्चा की जा रही हैं। वैसे ये विषय काफी गंभीर और विस्तृत हैं, लेकिन यहाँ इसके संबंध में पहचान के कुछ मुद्दों को उठाया जा रहा हैं। उत्तर-आधुनिकतावाद केंद्रीय वर्चस्ववाद को अँगूठा दिखाकर स्थानीयता तथा उसकी भिन्नताओं पर बल देता है। जबकि आधुनिकता केंद्रीयता, एकरूपता और सार्वभौमिकता का जाप करती रही है। आधुनिकता में पुनर्सजन की पुकार थी जबकि उत्तर-आधुनिकता में विकेंद्रीकरण, अलग पहचान, अलग आवाज और विखंडन (वि-रचना) का बोलबाला प्रमुखता से हैं। जान रंडेल उनकी इसी सीमा को इंगित करते हुए कहते हैं कि "उत्तर-आधुनिकता में समाज एक ओर विखंडित और श्रेणीयुक्त बन जाता है, तो दूसरी ओर सूचना निर्भर प्रबंधन में नियुक्त हो जाता है और इस जगत में हर विखंडित समूह अपने आसपास फिर केन्द्र को बनाता जाता है। " (उत्तरआधुनिकतावाद-जगदीशवर चतुर्वेदी, पृ-58) अतः उत्तर-आधुनिक दृष्टिकोण से इस पहचान के संकट को किस तरह देखा जाना चाहिए, इस पर विचार की आवश्यकता हैं। आगे हम इस उत्तर-आधुनिकतावाद को मोटे तौर पर तीन स्तरों पर देख सकते हैं- स्थानीय., राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय और फिर इन्हीं आधार पर कई तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं। 

उत्तर-आधुनिकतावाद अब बहु-संस्कृतिवाद या बहुलतावाद पर आधारित नया विमर्श है। उत्तर-आधुनिकता बहुकेंद्रीयता की संकल्पना को लेकर चलती है और यह बहुकेंद्रीयता व्यक्ति की अपेक्षा समूहों की केंद्रीयता है। भारत में विविधतापूर्ण समाज विद्यमान है जहाँ पर किसी एक विमर्श को संबोधित करना संभव ही नहीं है। इन सबके बावजूद भी हमारा समाज अभी भी स्त्री, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की अभिव्यक्तियों और उनकी सामूहिक अस्मिता के प्रति अत्यंत अनुदार और असहिष्णु है जबकि उत्तर-आधुनिक समाज में इन समूहों की आवाज को सहज भाव से स्वीकार किया जाना अपेक्षित है। 
इसीलिए उत्तर-आधुनिकात पर सोचने की जरूरत है। 

असल में उत्तर-आधुनिकतावाद एक ऐसा ग्लोबल खेल है, जिसमें हम सब शरीक हैं। वह हमारी ही भूमंडलीय अवस्था की रामायण है। इस नवीन भूमंडलीय रामायण में हम सबका बोध बदल रहा है और हमारे सभी सांस्कृतिक-ज्ञानात्मक प्रतीक बाजारवाद में बिकने को खड़े हैं। इस दृष्टि से 'शाक्ति तथा ज्ञान की अवस्था के बदल जाने का यह नया अर्थशास्त्र, नया समाजशास्त्र हैं। (उत्तर-आधुनिकतावाद और दलित साहित्य-कृष्णदत्त पालीवाल, पृ-5) रोलां बार्थ, देरीदा, मिशेल फूको, पाल डी मान आदि ने संस्कृति बोध के सभी पुराने पैमानों को या पैराडाइम्स को बदल दिया है। जहाँ एक ओर पश्चिमी देश उत्तर-आधुनिक होते जा रहे है वहीं भारत ने अभी भी आधुनिकता को गले लगा रखा है।

उत्तर-आधुनिकता के सात झटकें- 

सुधीश पचौरी ने उत्तर-आधुनिकता विमर्श को बड़े ही सहज ढंग से सात झटकों के रूप में इस तरह निरूपित किया हैं-
  • ...तो प्रभु ! सात झटके लगे हैं पचास बरस में, सात झटकों को सात सौ बराबर समझें। 

  • -पहला झटका यह कि बचत गई है, बाजार आया है। संयम गया है। इच्छाओं कामनाओं का साम्राज्य खुला है, दुख-गायन की जगह सुख-संचय का भाव आया है, सुख दिखाने, इतराने का भाव आया है। पूँजी बढ़ी है। 
  • -दूसरा झटका यह है कि एक ही साथ स्थानीयता और भूमंडलीकरण जगे हैं। शीत-युद्ध गया है। गर्म शांति आई है। देशकाल गड़बड़ाया है। मृदु मंथर गति तेज हुई है।रीयलिटी से हाइपर-रीयल में लुढ़क आए हैं। 
  • -तीसरा झटका है मीडिया मार्केट की मित्रता। हर अनुभव सूचना बन रहा है और अर्थ की स्थिरता नहीं बच रही, महानता का वृत्तांत नहीं बन रहा, महान लेखक नहीं हो रहे। 
  • -चौथा झटका दलितों ने दिया है। वर्ग जाति में बदल गया है। माक्र्सवाद मंडलवाद का पर्याय है और प्रसन्न है। इस क्रम में हाहाकार इसलिए बढ़ा है, क्योंकि हमारे जैसे बामनों के हाथ से साहित्य-संस्कृति का धंधा निकल गया है और जिन्हें अब तक संस्कृति के पावन मंदिर में हम बामन लोग घुसने नहीं देते थे, वे खुद अपने राग-रागिनियाँ बनाने लगे हैं। वे हमें साहित्य में मानते ही नहीं। हाय ! 
  • -पांचवाँ झटका, भगवन ! औरतों ने दिया है कि वे जिधर देखों-लिंग-लिंग चिल्लाती डोलती हैं। साहित्य से हमने लिंग गायब कर दिया था, वे फिर उसे ले आई हैं, साहित्य के पवित्र मंदिर में लिंगवादी पाठ को देरिदा, फूको, लाकां जैसे धूर्त एलाउ कर रहे हैं। 
  • -छठा झटका उपभोक्ता संस्कृति के कारण है, क्योंकि तमाम गरीब-जन दलित सब खाने-पीने की इच्छा करने लगे हैं, जो पहले हम लोगों को ही नसीब था। वे हमारे जैसे बनने लगे हैं : उपभोक्तावाद ने हमारी सत्ता के खिलाफ हिंसा बढ़ा दी है। चारों ओर उपभोग है, हमारे वक्त में कोई ऐसे पेटू हो सकता था कि पेट को विचार से बड़ा समझे ? सच यह है, हमारा वक्त जा रहा है। उनका वक्त आ रहा है। 
  • -और सातवाँ झटका यह है कि इन झटकों को इसलिए नहीं जान पा रहे, क्योंकि झटका सहज हैं। और ऐतिहासिक हैं, षडयंत्र नहीं है। वह स्वायत्त क्षेत्र नहीं बन रहा है जहाँ हम काजर की कोठरी की कलंकमयता से मुक्त, अपनी सफेदी बरकरार रख सकें और विद्रोह-प्रतिरोध के लिए जगह निकाल सकें। पिछला पूँजीवाद फुलाता था, सुलाता था, यह झटके देता है, कष्ट देता है, लेकिन ऐसी मीठी संड़ाध है कि सब अच्छा लगता है। झटका लगता ही नहीं, फील नहीं होता। और इन दिनों तो सब फैशन में उत्तर-आधुनिक हुए जाते हैं। (उत्तर-यथार्थवाद-सुधीश पचौरी, पृ-182-83) 

लियोतार्द ने उत्तर-आधुनिकता की मुख्य पहचान 'विकेन्द्रीकरण' के रूप में की है, जिसके चलते आधुनिकता के सभी महावृत्तों का अवसान हो जाएगा। न ईश्वर होगा, न धर्म, न मनुष्य होगा न विचारधारा, न इतिहास रहेगा और न ही तर्क की केन्द्रीय स्थिति। साहित्य, साहित्यकार और आलोचक भी क्रमशः समाप्त होंगे तथा 'पाठक' और उसके 'पाठ' का उदय होगा। लोकप्रिय साहित्य अकादमिक साहित्य पर हावी हो जाएगा। जेमेसन ने उत्तर-आधुनिक स्थितियों को 'वृद्ध पूँजीवाद' का सांस्कृतिक तर्क कहा है। इसमें आधुनिकता द्वारा छोड़े गए रिक्त स्थान नई तरह की सांस्कृतिक चीजों से भर जाएँगे तथा 'निजी जगत' (प्राइवेसी) का अन्त हो जाएगा। (अंतिम दो दशकों का हिन्दी साहित्य)

आल्विन टाफ्लर 'फ्यूचर-शॉक' पुस्तक लिखने के बाद 'दि थर्ड वेब' पुस्तक लिखते हैं और 'पॉवर शिफ्ट' शीर्षक अपनी पुस्तक में उत्तर-आधुनिकतावाद को समग्रता में प्रस्तुत कर देते हैं। यह तीनों पुस्तकें अलग-अलग दिखाई देने पर भी आपस में जुड़ी हुई है तथा तीनों मिलकर उत्तर-आधुनिकतावाद के तमाम पहलुओं का बौद्धिक बिंब समग्रता में निर्मित करती हैं। इन तीनों का विषय एक ही है-नवीन परिवर्तन। ध्यान में रखने की बात है कि उत्तर-आधुनिकतावाद की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है-बहुलतावाद या नव्य संस्कृतिवाद। यह विशेषता आभिजात्यवादी वर्चस्व के अधिनायकवादी तंत्र को चुनौती देती है और एकलवाद के विरूद्ध बहुलतावाद का समर्थन करती है। पुराने 'केंद्रवाद' सभी क्षेत्रों में टूट जाते हैं और विकेंद्रीकरण का शाक्तितंत्र आकाश-मार्ग में धरती पर उतरता है उस पर अधिकार करता है। रक्तपात रहित अधिकार। यहाँ 'मसल' की जगह 'माइंड' ले लेता है। पुराने बुद्धिवाद के स्थान पर नव्य बुद्धिवाद व्यापार शिक्षा की पटरिया बैठता है। उसे पता है कि परिवर्तन एक इतिहास है और अर्थशास्त्रियों की प्रखर मेधा। सभी क्षेत्रों में विशेषीकृत ज्ञान फिसलकर सामान्य जन तक पहुँच रहा है। नवीन शक्ति तंत्र को गति दी-न्यू इलीट, कारपोरेट चीफ टेन्स, ब्यूरोक्रेट्स, मीडिया मुगल्स, मॉस प्रोडक्शन, मॉस डिस्ट्रीन्यूशन, मॉस एजूकेशन, मॉस कम्यूनिकेशन तथा मॉस डेमोक्रेसी ने मिलकर। (उत्तर-आधुनिकतावाद और दलित साहित्य-कृष्णदत्त पालीवाल, पृ-17) नतीजा यह हुआ कि 'ग्लोबल पॉवर' का बोलबाला हो गया अब व्यक्ति व समाज अपने को ग्लोबल सिनेरियों में देखने का अभिलाषी हो गया।

इसी तथ्य को 'कल्चर एंड इम्पीरियलिज्म' पुस्तक में सईद ने कहा कि अतीत के 'पाठ' का या 'पाठों' का एकांकी अध्ययन नहीं किया जा सकता। उन पाठों के 'कुपाठ' (नॉन टैक्स्च्चुअल) में जो दमित अर्थ है उसे उभारना-जगाना होगा ताकि वह पश्चिमी साम्राज्यवाद, नव-साम्राज्यवाद की बर्बरता की कहानी कह सके। अतः वे इस पूरे उत्तर-आधुनिक परिपेश से कलाओं और साहित्य के पुनर्पाठ की व्याख्या कर अतीत के पाठ को एक दृष्टिकोण प्रदान करना चाहते थे। 

भूमंडलीकरण, उदारवाद और बाजारवाद के विश्वव्यापी प्रसार के साथ चिंतन, कला, विचारधारा आदि में तीव्रता से परिवर्तन हुआ हैं। सम्पूर्ण विश्व में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से जो दो ध्रुवीय विचारधाराएँ अस्तित्व में आई उसने एक लम्बे समय तक संस्कृति, कला और राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावित किया। 1993 के शीतयुद्ध के बाद की व्यवस्था से एक ध्रुव का खण्डित हो जाना तथा एक ही ध्रुव के महाशाक्ति रूप में जो परिवर्तन हुए कालान्तर में वहीं उत्तर-आधुनिक विचारधारा के प्रेरक तत्व बनें। इसने यूरोपीय केंद्रवाद को निर्ममता से शिव-धनुष की तरह तोड़ा। ये बहुकेंद्रीयता की उठानभरी अवस्था है। इस अवस्था में बूढ़ी रिटायर आधुनिकता की कसक है और सभी तरह के महाख्यानकों के टूटने-बिखरने की बेचैनी और कराह। 

जहाँ आधुनिकतावाद परिवेश के प्रति जागरूकता, वस्तुनिष्ठ दृष्टि, बौद्धिकता, यथार्थवाद और सामूहिक मुक्ति की भावना को लेकर चलता है। तथा जीवन के क्षेत्र में ऐतिहासिक दृष्टि को महत्त्व देता है, वहीं दूसरी ओर उत्तर-आधुनिकतावाद विज्ञान, समाज-विज्ञान, मानव-विज्ञान की वैज्ञानिक खोजों एवं दृष्टियों को अस्वीकार करता है। यौन-संबंधों में भी अस्वाभाविक एवं अप्राकृतिक मैथुन के रूपों को प्रमुखता देता है। स्त्री-पुरूष के बीच में समानतावादी लोकतांत्रिक संबंध के बजाए नारीवाद की वकालत करता है। व्यक्ति की वर्गीय एवं पेशेवर इमेज के बजाए नस्ल या सांप्रदायिक या धार्मिक इमेज को रूपायित करता है। (उत्तर-आधुनिकतावाद-जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृ-50 ) तथा एक भिन्न तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों को जन्म देता है।

देवेंद्र इस्सर ने उत्तर-आधुनिक विमर्श को समेटते हुए- " इसे एक मनोदशा या माहौल ? प्रवृत्ति या परिदृश्य ? फैशन या विचार ? और अंत में सर्वोपरि रूप से विद्रोह या प्रतिविद्रोह अथवा साम्राज्यवादी षदीयंत्र या उत्पीडितों-अल्पसंख्यकों के मुक्ति-संघर्ष का आत्र्तनाद ? आदि कई पक्षों को लेकर विचार किया हैं। उनका कहना है कि उत्तर-आधुनिकता इन सबका मिला-जुला स्वर है जो पिछली सदी के छठे दशक में उठे नारी मक्ति, अश्वेतों के असंतोष, शांति मार्च, युवा विद्रोह, यौन मुक्ति जैसे मुक्ति-आंदोलनों से निकला है। " (समकालीन भारतीय साहित्य, उत्तर-आधुनिकता से संवाद, रवि श्रीवास्तव पृ-171, मई-जून-2008) उसने पुर्जागरण काल के बाद मूल्यों में आए परिवर्तन, व्यक्ति तथा समाज, उसके सांगठनिक रूप, राजनीति एवं राष्ट्रीयता आदि से जुड़े प्रायः स्वीकृत आदर्शों पर बुनियादी सवाल खड़े किए। उसकी तेज आँधी से, ज्ञान का हर कोना प्रभावित हुआ। समीक्षा के सिद्धांत, विचारधाराएँ और प्रतिमानों की प्रचलित प्रवृत्तियाँ-जो कुछ भी ठोस और स्थायी थे, पिघलकर हवा में उड़ गए। इस नए माहौल को उत्तर आधुनिकता कहा गया अर्थात् स्वीकृत प्रतिमानों को शंका के दायरे में खींचने की एक नई प्रवृत्ति।

उत्तर-आधुनिकता की प्रवृत्ति बहुत सरल नहीं है इसे एक सूत्र या समीकरण के रूप में बाँध पाना काफी कठिन हैं। इसके अपने नियम-कानून है, पक्ष-विपक्ष हैं। जहाँ एक ओर हम इसे एक ध्रुवीय दुनिया में सर्वशक्तिमान महाशक्ति की साम्राज्यवादी लिप्सा के विस्तार के रूप में देख सकते है तो दूसरी ओर इसे वंचितों के सत्तासंघर्ष तथा लोकतांत्रिक उपलब्धि के रूप में भी देखा जा सकता है। कभी तो यह भी कहा जाता है कि इस विमर्श में न कोई विचार अंतिम है न कोई विकास-व्यवस्था, साथ ही दूसरे किसी वैध-अवैध व नैतिकता से भी इसका कोई संबंध नहीं है। इसमें व्यक्ति को पूरी छूट है कि वह किसी तरह के अतियथार्थ और आभासी यथार्थ की रचना अपनी कल्पनाशक्ति के जरीये कर सकें। उसकी किसी भी सोच पर कोई प्रतिबंध नहीं है। पर ध्यान देने की बात है कि ये प्रवृत्ति समाज में कोई एक विचारधारा निर्मित नहीं कर पायेंगी, तब ऐसे में अराजकात की स्थिति उत्पन्न हो सकती है या फिर मैनेजर पाण्डे ने जैसे इसे एक उत्तर-आधुनिक विकल्प के रूप में तो देखा, लेकिन वे इसे माक्र्सवाद के स्थानान्तरण के रूप में स्वीकार करना नहीं चाहते। (देवेन्द्र चौबे, रेखा पाण्डे को दिए एक साक्षात्कार में .....) 

हालांकि उत्तर-आधुनिकता विमर्श की सिद्धांतिकी अत्यंत व्यापक भी है और जटिल भी। परंतु हम उसके इस पक्ष में जाते हुए अपनी रूचि का मुख्य बिंदु उन परिधि पर रहे हाशियाकृत समूहों को केन्द्र में लाने की सार्वजनीन स्वीकृति के रूप में देख सकते हैं। भारतीय साहित्य में आज दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसी प्रवृत्तियों के उभार की व्याख्या को उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरता है। साथ ही उत्तर-आधुनिक विमर्श कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रों की व्याख्या में अंतर्पाठीयता और पुनर्पाठ पर जोर देता है, जिसमें काफी पक्षों के खुलने की गुंजाईश है। यहाँ कोई एक पाठ अंतिम नहीं है और न ही स्वायत्त। अतः ऐसे में यह अधिक लोकतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण कर सकता है।

उत्तर-आधुनिक विमर्श अनुपस्थिति को दर्ज करने वाला विमर्श है यानी जो कल तक अनुपस्थित था वह आज उपस्थित होने का संघर्ष कर रहा हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पश्चिम में भारत को अनुपस्थित किया, पुरूष सत्ता ने स्त्री को, वर्ण व्यवस्था ने दलितों को, नेताओं ने जनता को, सभ्य समूहों ने आदिवासिरयों को, कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों को, इलेक्ट्रानिक मीडिया ने लोक कलाओं को तथा बड़े बाजार ने छोटी दुकानों को। उत्तर-आधुनिकता को साहित्य के संदर्भ में इन सब अनुपस्थितों की पुनः व्याख्या के साथ इनकी अभिव्यक्ति को पूरी लोकतांत्रिक शिष्टता के साथ स्वीकार किया जाय। 

स्त्री-विमर्श का संदर्भ-

हालांकि उत्तर-आधुनिकता के साथ ही स्त्री लेखन का आरम्भ हुआ, परन्तु इसकी पहचान का संकट हैं-इस लेखन में अभी भी समग्रता से स्त्री के विविध रूपों, स्तरों, परिप्रेक्ष्यों, वर्गों का चित्रण नहीं मिलता। ये विमर्श एक तरह का जनमत ( pressur ग्रुप)  निर्मित करना चाहता है ताकि अपने यथार्थ के बारे में समाज को बता सकें। उत्तर-आधुनिकता उसे यह स्पेस देती हैं। दूसरे इस वर्ग के पास अपनी भाषा का निर्माण नहीं हो पाया है ऐसे में स्त्री लेखिकाओं के पास अनेक विकल्प हैं ये चाहें तो परंपरागत मुख्यधारा में लिखें, चाहें तो पुरूषों की शैली या स्त्रियों की नकल करें। और चाहें तो इन परंपराओं को चुनौती दें। इन परंपराओं को बदलते हुए स्त्री पाठकों को संबोधित करें। अतः अपने अनुसार अपनी स्पेस का उपयोग करते हुए नये रूपों, भाषा, आदि का निर्माण करें। 

स्त्री-विमर्श ने अपने अन्य संदर्भों के साथ-साथ बड़ी बेबाकी से अपनी देह के कथनों को भी 
उजागर किया है। इसी संदर्भ में अनामिका की एक कविता के कुछ अंशों को रेखांकित किया जा सकता हैं-

" कुंडलिनी सी जगी बैठी थी /लड़की पलंग पर/ उसकी सफेद फ्राक और जाघिए पर / किसी परी माँ ने काढ़ दिए थे / कत्थई गुलाब रात में ?/ और सात बौने/ क्यों गुत्थमगुत्थी / 
मचा रहे थे / आज उसके पेट में ? /अनहद सी / बज़ रही थी लड़की / कांपती हुई / लगातार थे / उसकी जंघाओं में/ इक्तारे/ चक्रों सा/ काँप रही थी वह / एक महीयसी मुद्रा में / गोद में छुपाए हुए / सृष्टि के प्रथम सूर्य सा दीपित / लाल लाल तकिया..." 
यह हिन्दी की शायद पहली कविता है जो प्रथम रजोस्त्राव  के अनुभव को एकाग्र करती हैं और उस वर्जित प्रदेश को विमर्श में ले आती है जिसका आखेट-'लज्जा' में कैद करके अब तक किया गया है। ऋतुमती होने का ऐसा 'ऐलीब्रेशन ' मूलतः सैक्सुअलिटी का नया दावा है। (उत्तर-यथार्थवाद- सुधीश पचौरी, पृ-304 ) अतः कई समय से वर्जित क्षेत्र पर स्त्री अपनी घुसपैठ बढ़ा रही है। वे भी अपने सब अनुभवों को संप्रेषित करना चाहती है। तथा इस उत्तर-आधुनिक विमर्श में इन सब मुद्दों के लिए स्पेस पा रही है। 

हिंदी में स्त्री केन्द्र अभी बनना है। भाषा में वह केन्द्र अभी आना है, विचारों की विविध श्रेणियों में उसका साक्षात्कार अभी होना है। हिन्दी में स्त्री केन्द्र के सम्भव होने की अपनी जटिल भारतीय अवस्थाएँ हैं। तीसरी दुनिया में पिछड़ेपन और विकास के प्रश्नों के साथ तकनीकी एवं उत्तर-आधुनिक जटिलताएँ भी सक्रिय हैं। वे बड़े बुनियादी वैचारिक संघर्षों को जन्म दे सकती है। महिलाओं की मुक्ति यहीं कहीं छिपी है। साहित्य संस्कृति का अगला वैचारिक-संघर्ष-बिन्दु यहीं से शुरू हो सकता है। भविष्य की भाषा दूर तक स्त्री केन्द्रीत हो सकती है अभी स्त्री को बोलना है। अपने एकांत को खोजना है। 

दलित विमर्श -

चूंकि दलित विमर्श मार्जिन पर ही है, वह स्वयं एक उत्तर-आधुनिक मार्जिन ही है, मेन स्ट्रीम नहीं है। मेन स्ट्रीम कोई है भी नहीं, जो है सो मेनस्ट्रीम यथार्थवाद यानी क्रिटीकल ब्राहमणवाद  है, इसलिए न तो यह विमर्श फैला न नीचे तक गया लेकिन इससे जो डिरुप्शन हुआ वह निशान छोड़ गया है। हिन्दी में उसे अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ प्रकट होना है। अभी यह सुगबुगा रहा है। दलित विमर्श की लड़ाई मूलतः क्रिटीकल ब्राहृणवाद और ब्राहृणीकल रीयलिज्म से ही है, यद्यपि उसमें कई दलित ऐसे भी हैं जो ब्राहृणीकल रीयलिज्म से समझौता करते दिखते हैं। यह भविष्य के दलित की रचना-समस्या है।(उत्तर-यथार्थवाद-सुधीश पचौरी, पृ-202) दलितों ने अपनी दशा के लिए ब्रााहृणों को दोष दिया। ये इस विमर्श की सीमा रेखा हैं। 

आदिवासी संदर्भ - 

इस उत्तर-आधुनिक समय में GREEN HUNT (जंगल काटों) के चलते जो आदिवासियों को खदेड़ा जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप आदिवासीय संस्कृति, समाज, कला, आदि पर जम कर प्रहार हो रहे है। वीर भारत तलवार की हाल में प्रकाशित किताब 'झारखंड के आदिवासियों के बीच : एक ऐक्टीविस्ट के नोट' पुस्तक झारखंड के विकास का प्रश्न उठाती है और बताती है कि किस तरह झारखंड के नाम पर झारखंड से दूर रहकर बनाई जा रही योजनाओं ने इस-पूरे इलाके को अन्याय और शोषण की बेदखली और विस्थापन की सौगात से भर दिया हैं। यह एक दोहरी मार है, जो आदिवासी झेलने पर मजबूर है। एक तरफ जो योजनाएँ बनीं उनमें इन इलाके की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों और आदिवासी समूहों की अलग किस्म की जीवनचर्या और जरूरतों का जरा भी ख्याल नहीं रखा गया। आदिवासी इलाकों में एक तरह का औपनिवेशिक विकास किया गया। आदिवासी इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों और सस्ते श्रम का शोषण किया जा रहा है जो आदिवासियों के लिए अस्तित्व का संकट प्रस्तुत कर रहा है साथ ही इस आदिवासी संकट के साथ पर्यावरण संकट की स्थिति को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए। कई भाषाओं के साहित्य के अतिरिक्त हिन्दी में भी कब आदिवासी जीवन उभर कर आ रहा हैं। रेत, जंगल जहाँ शुरू होता है, ठेरा बस्ती का सफर नामा, अल्मा कबूतरी आदि हाल ही में आदिवासी जीवन से संबंधित कई रचनाएँ अस्तित्व में आई हैं-जो आदिवासियों की संस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक अस्मिता के प्रश्न खड़े करती हैं। 

साहित्यिक संदर्भ -

उत्तर-आधुनिकता ने साहित्य के संदर्भ को भी काफी प्रभावित किया, अब साहित्य 'पाठ' और 'पाठक' केन्द्रीत हो गया है। लेखक और आलोचक गायब हो रहे है। रोलां बार्थ कहते हैं कि पाठक का जन्म अनिवार्य रूप से लेखक की मृत्यु की कीमत पर होना चाहिए। यहां आकर हम समझ सकते हैं कि उत्तर-आधुनिकता की धारणा में 'अर्थ' न लेखक में होता है, न आलोचक में। 'अर्थ' पाठ में स्थित नहीं होता बल्कि वह 'पाठ' और 'पाठक' की अन्तः क्रिया द्वारा निर्धारित होता है। अतः न तो पाठ समान होते हैं और न एक पाठ अलग-अलग 'पठन' में समान होता है। इस दृष्टि से उत्तर-आधुनिकता का यह दावा है कि कोई भी रचना अन्य सभी रचनाओं (या पाठों) से सम्बद्ध होती है क्योंकि 'पाठ' संस्कृति के असंख्य केन्द्रों से लिए गए उद्धरणों का समुच्चय है। क्योंकि 'पाठ ऐसे ही होते हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि सभी पाठ अन्तः सम्बन्धित होते हैं। पाठों की यह अन्तः सम्बन्धता अन्तः पाठीयता को जन्म देती है। उत्तर-आधुनिकता पाठ को पढ़ने की प्रक्रिया में 'पाठ' एक ओर कुछ कहता है तो दूसरी ओर कुछ छुपाता है या दबाता है। पाठ क्या कह रहा है की अपेक्षा क्या छुपा या दबा रहा है उसकी खोज महत्वपूर्णं है। 

भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की आँधी के साथ ही भारतीय समाज कम्प्यूट्रीकरण, संचार-क्रांति और नव-उपिवेशवाद की गिरफ्त में आ गया। कुछ आन्तरिक अनिवार्यता और कुछ फैशन के स्तर पर हिन्दी उपन्यास साहित्य में गत बीस वर्षों में उत्तर-आधुनिक स्थितियों का चित्रण होने लगा। इस प्रकार के साहित्य लेखन में चार प्रकार के उपन्यासकारों की गणना की जा सकती है। 

  • - उत्तर-औद्योगिक युग की विकेन्द्रित मूल्यहीन व्यवहारवादी, पॉप-संस्कृतियों को आधार बनाकर लिखने वाले उपन्यासकार। इनमें मुख्य रूप से मनोहरश्याम जोशी और सुरेन्द्र वर्मा का नाम आता है। जोशी के चार उपन्यास 'कुरू-कुरू स्वाहा, हमजाद, कसप तथा हिरया हरकयूलिस की हैरानी' को लिया जा सकता है। सुरेन्द्र वर्मा का 'मुझे चाँद चाहिए' भी ऐसा ही उपन्यास है। 
  • -दूसरे प्रकार के उपन्यासकार वे हैं जो उत्तर-आधुनिक विकास की अवधारणा को गरीबों/ ग्रामीणों/ पिछड़े वर्गों के लिए विनाशकारी मानते रहें। वीरेन्द्र जैन के दो उपन्यास 'पाए' और 'डूब' को इस श्रेणी में रखा जा सकता हैं। 
  • -तीसरे प्रकार के वे उपन्यासकार हैं जो कि आधुनिकता के दौर में साहित्य में उपेक्षित अनुपस्थित अथवा बहिष्कृत पात्रों, परिस्थितियों अथवा कथानकों को साहित्य में ला रहे है। नारीवादी, दलित तथा अन्य जनजातीय क्षेत्रों से जुड़ें उपन्यासों को इसमें लिया जा सकता है। मैत्रेयी पुष्पा का 'इदन्नमम', प्रभा खेतान का 'छिन्नमस्ता' कृष्णा सोबती का 'दिलो दानिश' अनामिका का 'तिनका तिनके पास' आदि को लिया जा सकता है। 
  • -चौथी तरह के उपन्यासकार वे हैं जो कि मिथकों को तोड़ कर उनमें नए अर्थ भर रहे हैं या फिर मिथकों का नए ढंग से विश्लेषण कर रहे हैं। भगवान सिंह का 'अपने-अपने राम' तथा नरेन्द्र कोहली के रामायण और महाभारत पर आधारित उपन्यास ऐसे ही हैं। 

कहानीकार उदयप्रकाश के शब्दों में अगर कहें- 'उत्तर-आधुनिकता' तो परवर्ती पूंजीवाद द्वारा उछाला गया एक नया दार्शनिक विकल्प है। इसने इतिहास और विचारधारा के अंत की घोषणा की थी लेकिन यूरोप में स्वयं इसी का अंत हो गया है। अब आजकल वहाँ 'फिलासफी ऑफ केयास' (विसंगतियों या अराजकता का दर्शन) का बोलबाला है। उनका मानना है कि सभी तरह की वैचारिक सरणियाँ और सामाजिक व्यवस्थाएँ नाकाफी और निकम्मी हो चुकी हैं। लिहाजा 'हिन्दी कहानी के लिए उत्तर-आधुनिकता की प्रासांगिकता इस अर्थ में है कि वह भारतीय समाज और जनता को उसकी अमानुषिक परिणति का अहसास कराए, जैसा उदयप्रकाश ने 'पॉल गोमरा का स्कूटर' में कराने का प्रयास किया है। किन्तु ऐसी कहानियाँ इधर नहीं लिखी जा रही हैं जो उत्तर-आधुनिक विमर्श की विरोधी मुद्रा में खड़ी हो सकें। साहित्यकारों का एक वर्ग इस विमर्श का हिमायती है। इस कहानी के मुख्य पात्र हिन्दी कवि पॉल गोमरा के माध्यम से उत्तर-आधुनिक समाज में चतुर्दिक ध्वंस और बाजारवादी युग की अमानवीयता का एहसास कराया गया है। पॉल गोमरा कथित उत्तर-आधुनिक यथार्थ के प्रतिनिधि रूप में नहीं बल्कि उस प्रतिनिधि के रूप में आए हैं जिनका यह उत्तर-आधुनिक उपभोक्तावाद और बाजार तंत्र लगातार गला घोंट रहा है बस 
उसके हाथ दिखायी नहीं पड़ते। 

मनोहरश्याम जोशी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से कई उत्तर-आधुनिक तत्त्वों का प्रयोग किया है। मनोहरश्याम जोशी ने हरिया से एक साथ कई खेल कर दिए हैं ( उत्तर-यथार्थवाद-सुधीश पचौरी, मीठी सड़ांध, पृ-153) - 

  • -उन्होंने कथा के भोलेपन का अन्त कर दिया है (यही वोद्रीआ की 'छलना' है)। 
  • -उन्होंने तर्कसंगत, वस्तुगत ज्ञान-अज्ञान के कवित भेद को हरिया के जरिए पिटा दिया है। 
  • -उन्होंने पूँजी (पिटार), काम (लिंग, गूमालिंग) और विभक्त-अविभक्त चित्र के भेद मिटा दिए हैं।
  • -उन्होंने विमर्श की भाषा को वृत्तान्त की भाषा बना दिया है, वृत्तान्त को विमर्श। सारी कहानी बातचीत में नहीं, बातचीत की भाषा में चलती है। एक बिरादरी को बिरादरियत की हिफाजत के साथ। 
  • -हर पाठक अपना पाठ पा सकता है कहानी में। 

मीडिया संदर्भ -

मीडिया-माध्यमों ने 'यथार्थ' के साथ हमारे रिश्ते को इस कदर बदल दिया है कि हमारी इंद्रियाँ अब यथार्थ को सीधे-सीधे ग्रहण नहीं करती है। सूचना-क्रांति ने हमारे 'बोध' में ऐसा उलट-पलट किया है कि हमें पता ही नहीं है कि हम कब स्थानीय हैं कब भूमंडलीय। सूचना के 'अतिबोध' ने हमारी 'प्रकृति', 'मिथक चेतना, भाषा-व्यवहार, प्रतीक सभी को बदल दिया है। हर क्षेत्र पर (प्रकृति-संस्कृति पर) बहुराष्ट्र्रीय पूँजी का वर्चस्व। 'दलित और बाहृण' दोनों इधर लपक रहे हैं। 'ज्ञान' की जगह 'उपभोक्तावाद' का कब्जा। साहित्य अब मीडिया के कंधे पर चढ़कर दृश्य के महत्त्वे को स्वीकार कर रहा है जो सच में एक संकट की स्थिति है। स्थानीयता और भूमंडलीयकरण दोनों स्थितियाँ एक साथ चल रही है ऐसे में इनके पीछे निहित उद्देश्यों को खोजना होगा। संस्कृति के नाम पर आज बड़े-बड़े उद्योगपति, उपभोक्ता को बाजार में खींच कर ला रहे है, उनके इरादों को समझना होगा।

उत्तर-आधुनिकता का काल कई संकटों, अंतर्विरोधी परिस्थितियों, शंकाओं, असंतुलन आदि की स्थितियों को लेकर चल रहा है अभी इसके विवेचन-विश्लेषण की प्रक्रिया शेष है। अभी यह तय करना बाकि है कि यह एक सहज प्रक्रिया है या फिर सोची-समझी चाल। पर इतना तो तय है कि इन भिन्न-भिन्न विमर्शों ने एक तरह का जनमत (pressure group) बनाने का कार्य अवश्य किया है। अब ध्यान देने की बात यह है कि बिना किसी कोर के ये सब बहुकेन्द्रीत, बहुलतावादी संगठन, समूह अपनी कोई पहचान 
बना पायेंगे ? क्या सच में उत्तर-आधुनिकता एक तरह की लोकतांत्रिक समानता की बात करती है ? तो फिर क्या ये पूँजीवाद का विकल्प है ? हाशियाकृत समुदाय इस उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अपनी क्या पहचान बना पायेंगा ? ये सोचने की बात है ? उत्तर-आधुनिकता भारतीय परिप्रेक्ष्य में केवल एक हौवा है या फिर ये प्रवृत्ति कुछ निर्णायक भूमिका अदा कर सकेंगी, ये सब विचारनीय मुद्दें है ? और ये ही इनके पहचान का संकट हैं।

भाषा का संदर्भ -

भाषा से संबंधित नये-नये प्रयोग हो रहे है जिसमें भाषा के सभी रूपों को स्थान दिया जा रहा हैं। अपनी विशिष्ट भाषा-शैली में आजादी के बाद के आन्दोलनों के वास्तविक चेहरे को प्रस्तुत कर रहा है उत्तर-आधुनिक साहित्य। 

कुलमिलाकर अस्मिता का संकट तब ही पैदा होता है जब हम संकटग्रस्त हों वैषम्य उग्र एवं आक्रामक हो उठे और विच्छिन्नता बहुरूपी-शक्ल में सक्रिय हो उठे। उत्तर-आधुनिकतावादियों के लिए यह नई परिस्थिति है और उत्तर-आधुनिक परिस्थिति है जो अपरिहार्य है, यही आज की सच्चाई है किन्तु यह सच्चाई का अस्वीकृत किया जाने वाला रूप है। उत्तर-आधुनिकता ने इन हाशिए पर रहे वर्गों को एक प्लेटफार्म दिया, जिससे की इनकी एक पहचान निर्मित हो सके, लेकिन इसमें भी कई सारे संकट हैं-ये विमर्श अपनी स्पेस को किसी दूसरे के साथ बाँटना नहीं चाहता है। दूसरे यह धीरे-धीरे मालिक वर्ग के चरित्र को अपनाता जाता है यानी अपने वर्ग को नकारकर, यानी दलित वर्ग को नकारकर अपने ऊपर के वर्ग के साथ मिलना चाहता है। यह एक दूसरे प्रकार का डि-क्लासिफिकेशन है। पश्चिम में उत्तर-आधुनिकता का परिप्रेक्ष्य बिलकुल भिन्न है। भारत में भी उत्तर-आधुनिकता पूर्णरूप से नहीं आ पाई है क्योंकि यहाँ का समाज अपनी परम्परा, रूढ़ि, बद्धमूलता को अभी तक अस्वीकार नहीं कर पाया है, इसीलिए व्यापक रूप में ये एक पहचान का संकट हैं। 


संदर्भ ग्रन्थ और पत्रिकाएँ-
1. उत्तर-आधुनिकता कुछ विचार., संपादन देवी शंकर नवीन एवं सुशान्त कुमार मिश्र
2. अंतिम दो दशकों का हिन्दी साहित्य
3. अद्य-पाद्य विन्यास-सुधीश पचौरी
4. उत्तर-यथार्थवाद-सुधीश पचौरी
5. उत्तर-आधुनिकतावाद-जगदीश्वर चतुर्वेदी
6. उत्तर-आधुनिकतावाद और दलित साहित्य-कृष्णदत्त पालीवाल
पत्रिकाएँ-
1. कथादेश-जुलाई 2009-विचारधारा का संकट और स्त्री-विमर्श का लोकतंत्र-विनोद शाही
2. कथादेस -'हिन्द स्वराज्य' की शती पर गाँधी का उत्तर आधुनिक बोध, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल
3. समकालीन भारतीय साहित्य -मई-जून 2008, उत्तर आधुनिकता से संवाद, रवि श्रीवास्तव