सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मनोरंजन, विज्ञापन और हिंदी



मनोरंजन, विज्ञापन और हिंदी


संपूर्ण जीवन और जगत  संप्रेषण और भाषा का व्यापक प्रयोग क्षेत्र है। भाषा के प्रकार्य तेज़ी से बढ़ रहे  है। भूमंडलीकरण और अंतर्राष्ट्रीय संचार के इस युग में मनोरंजन व्यवसाय और वाणिज्य  का विकास बड़ी तीव्र गति से हुआ है। और इससे भाषा के सामने नई चुनौतियाँ भी खड़ी हो  रहीं हैं। वर्तमान समय पूँजीवादी भूमंडलीकृत बाज़ार का समय है जिसके अंतर्गत  प्रत्येक वस्तु बाज़ार का हिस्सा बन रहीं हैं। ऐसे में यहाँ इसी अत्याधुनिक  भूमंडलीय, बाज़ारवादी संदर्भों को दृष्टि में रखकर हिंदी के मनोरंजन व्यवसाय और  विज्ञापन की प्रयोजनपरक भाषा पर कुछ विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा  हैं।
   
सर्वप्रथम इस वर्तमान व्यवस्था के मनोरंजन व्यवसाय व विज्ञापन के 'डायमेंशन' के समझने के लिए खाड़ी युद्ध के बाद जिस तरह से मीडिया का टेबलाइटकरण हुआ  है उसे समझना बहुत ज़रूरी है। इसी संदर्भ में मीडिया आलोचक फ्रेंक एसर ने 19 वीं  शताब्दी के अंत और 20 वीं शताब्दी के आरम्भ को टेबलाइटकरण की प्रक्रिया की शुरुआत  माना। इसी समय 
खेलों और मनोरंजन ने भी प्रिंट  मीडिया में अपनी जगह बनाना शुरु  किया। 
विज्ञापनकर्ताओं ने समाचारों के माध्यम से एक ऐसी मीडिया संस्कृति का निर्माण  किया जहाँ पाठक उपभोक्ता बनने लगा। और ऐसे में मीडिया राजनैतिक स्तर पर जनता की  रूचि का निर्णायक भी बन गया।

इसी संदर्भ में हॉर्वेड कर्ज़ का कहना है कि इस मीडिया टेबलाइटकरण ने 'हार्ड न्यूज़'-राजनैतिक, आर्थिक आदि की गुणात्मकता को कम कर 'सॉफ्ट न्यूज़' -सनसनी(सनशेंसनल) , सकेंडल और मनोरंजन को अधिक प्रधानता दी। सामाजिक और व्यक्ति जीवन की त्रासदियों को मनोरंजक व नाट्कीय ढंग से परोसा जाने लगा। अतः परम्परागत सत्य,मीडिया द्वारा निर्मित सत्य व विज्ञापन के माध्यम से निर्मित सत्य में दूसरी और तीसरी श्रेणी के सत्य ने समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करना आरम्भ कर  दिया।
  
मनोरंजन एक ऐसी क्रिया है जिसमें सम्मिलित होने वाले को आनन्द आता है एवं मन  को शान्ति मिलती है। तो ऐसे में टेलिविज़न, सिनेमा, रेडियो, नाटक, संगीत नृत्य,डिस्को, हास्य रस, गोष्ठी, सर्कस, मेला, खेल आदि मनोरंजन के अंतर्गत ही समाविष्ट हैं। Entertainment consists of any activity which provides a diversion or permits people to amuse themselves in their leisure time. Entertainment may also provide fun, enjoyment and laughter. the Industry that provides Entertainment is  called the Entertainment Industry.  परन्तु विज्ञापन कम्पनियों ने अपने उत्पाद की बिक्री के लिए आज इन मनोरंजन उद्योग पर अपना आधिपत्य ज़मा लिया हैं। विज्ञापन आज मनोरंजन का प्रतीक बनते जा रहे है।

वैसे प्रिंट मीडिया में भी मनोरंजन के लिए  स्पेस है। और इंटरनेट की बदौलत ऑनलाइन रेडियो ने तो कई-कई भाषाओं में विशिष्ट  समूहों का मनोरंजन शुरु कर दिया हैं। यहाँ मनोरंजन व्यवसाय के मुख्य दो बड़े क्षेत्र  फिल्म और टी.वी पर संक्षिप्त चर्चा की जा रही है। वैसे इंटरनेट भी मनोरंजन और  विज्ञापन का एक बहुत बड़ा क्षेत्र बन कर उभर रहा  हैं।

फिल्म-
  
फिल्में एक ऐसे कला माध्यम के रूप में हमारे  सामने उपस्थित है, जिसमें अनेक कलाओं का पड़ाव दिखाई देता हैं। भाषा, साहित्य और  संस्कृति का गठन फिल्मों का महत्वपूर्ण अवदान माना जा सकता है। और हिंदी फिल्में भी  अपनी इस भूमिका में पीछे नहीं हैं। हिंदी फिल्में अधिकांशतः हिंदी भाषा के जीवन  सरोकारों, स्पंदन, भावात्मक संचार, आर्थिक स्थिति एवं वैचारिक बनावट को दर्शाती है।  'बॉलीवुड' हिंदी फिल्मों की क्षेत्रीय सीमाओं, भौगोलिक बाधाओं एवं भाषाई घेरेबंदी  को चटखा देता है। हिंदी फिल्मों के निर्माण व वितरण में हिंदीतर भाषा-भाषी लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। हिंदी फिल्में अन्य मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय  विमर्श केमुद्दों को भी लगातार गंभीरता और सहजता से उठा रहीं हैं।   

हिंदी  फिल्में निश्चय ही हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपनी विश्वव्यापी भूमिका का  निर्वाह कर रहीं हैं। उनकी यह प्रक्रिया अत्यंत सहज, बोधगम्य, रोचक, संप्रेषणीय और  ग्राह्र है। हिंदी इस संदर्भ में भाषा, साहित्य और जाति तीनों अर्थों में ली जा  सकती हैं। हिंदी फिल्मों की दृश्यता हिंदी भाषा के अर्थ प्रसार में सहायक रहीं हैं।  क्योंकि भाषाओं का भूगोल सीमित और दृश्यों का व्यापक होता है।
  
फिल्म एक भाषिक  कला है। जहाँ एक छोर भाषिक संरचना के रूप में सिनेमा और दूसरा शाब्दिक भाषा से इतर  भाषिक प्रयोग को साधने वाला सिनेमा है। फिल्म के संबंध में यह बात जानना ज़रूरी है  कि 'कैसे फार्मूला दर्शकों द्वारा स्वीकार्य हो जाता है ? कैसे वे बार-बार एक ही  तरह के प्लॉट और ट्रीटमेंट से उबते नहीं ? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि हम  सिर्फ फिल्म देखने नहीं जाते, हम एक ख़ास तरह की कहानी का प्रस्तुतीकरण देखने जाते  हैं। फिल्म के संदर्भ में कोई भी प्रतीक एक 'शब्द' है और कोई 'सिक्वेंस' एक वाक्य।  सिनेमा में भाषिक स्तर पर भाषिक तत्व के भी अलग-अलग पैमाने अलग-अलग फिल्में बनाती  हैं। फिल्म हर प्रकार के संप्रेषण  को सिद्ध करने वाली कला है। जहाँ कुछ फिल्में  दिखावटी, बनावटी या नाटकीय और लाउड होती है। तो कुछ बहुत ही कोमल, मुलायम और  संवेदनशील आदि-आदि होती हैं। (लेखक : फिल्म भाषा की आर्थी संरचना, दिलीप सिंह, समुच्चय पत्रिका, पृ-44)

भाषा के भीतर संस्कृति का प्रच्छन्न प्रवाह बना रहता है। हिंदुस्तानी समाज के विभिन्न मुद्दे राष्ट्रीयता, आतंकवाद, सामाजिक ढाँचा,  पारिवारिक रिश्तें, कृषि-किसान, औद्योगिकरण, बाज़ारवाद और भूमंडलीकरण, प्रवासी जीवन  आदि हिंदी फिल्मों में उठते रहें हैं। हिंदी भाषा भी नव्यतम चुनौतियों के वहन के  लिए नयी विधाओं और नए रूपों में हमारे सामने आयी है। हिंदी भाषा में फिल्म निर्माण  के साथ हिंदी ने उर्दू को प्रमुख सहायिका बनाया, गीतों और संवादों के लिए दृश्यता  का समावेश किया,भाषा और बिम्ब के अंतर संतुलन की पहचान की, नई तरह की  शैलियों-मुबंइया, हैदराबादी हिंदी जिसमें अभी तीन-चार सालों से एक नई भाषा को  फिल्मी पर्दे पर लाना शुरु किया हैं। इस हिंदी ने इन्हें मानक बनाया, नए तरह के  कोड, बिम्ब, प्रतीक, मिथ कथनों को ईज़ाद किया। पटकथा, संवाद और गीत लेखन जैसी नयी  विधाओं का सृजन किया हिंदी भाषा को तकनीकी अनुकूलन के लायक बनाया इसलिए हिंदी  फिल्मों ने हिंदी भाषा के सर्वथा नए रूप रंग और सांचे-ढांचे को गढ़ा है। हिंदी  साहित्य और भाषा पर हिंदी फिल्मों का गहरा प्रभाव पड़ा है। और यदि आगे बढ़कर यह कहा  जाए कि हिंदी फिल्मों  ने हिंदी के आलोचना शास्त्र के लिए कई मानक प्रदान किए तो  अनुचित न होगा। 

हिंदी भाषा की संरचनात्मकता, शैली वैज्ञानिक अध्ययन,जन-संप्रेषणीयता, पटकथात्मकता के निर्माण, संवाद, लेखन, दृश्यात्मकता, दृश्य भाषा,  कोडनिर्माण, संक्षिप्त कथन, बिम्बधर्मिता, प्रतीकात्मकता, भाषा-दृश्य की  अनुपातिकता आदि मानकों को हिंदी फिल्मों ने कई हद तक प्रभावित कर गढ़ा भी  हैं।

टी.वी से काफी भिन्न है सिनेमा इसलिए भाषाविद् अल्बर्ट लैफे ने फिल्म की अद्वितीयता को समझ कर ही यह कहा कि-" इतना सजीव रूप है सिनेमा यथार्थ का जितना होने की अपेक्षा किसी उपन्यास, नाटक या मूर्त पैटिंग में नहीं की जा सकता।" सिनेमा की अपनी भाषा व्यवस्था होती है होती ही भर नहीं, फिल्में भाषा व्यवस्थाओं का सृजन भी करती है। फिल्म भाषा एक सी नहीं होती। वह अनेक लचीले रूपों और आकृतियों में बोलती हैं।
  
फिल्म का सौंदर्यशास्त्र निजी है जो यथार्थ भी है और काल्पनिक भी। सिनेमा भाषा इन दोनों को ऐसा बना देती है कि ये हमें आश्वस्त भी करें और भरोसा भी दिलाएँ।  सिनेमा सूचना भी है। सूचना की अपनी भाषा और अपना अर्थतंत्र होता है। (फिल्म भाषा की  आर्थी संरचना, दिलीप सिंह, समुच्चय पत्रिका, पृ-47) एक प्रकार से सिनेमा भाषिक विन्यास सूचना सिद्धांत का व्यावहारिक रूप है जिसे फिल्म बहुत खूबसूरती के साथ  पिरोती है।

इन्हीं उपर्युक्त विशेषताओं के संदर्भ में यदि हिंदी सिनेमा को  देखें तो पिछले दो दशकों में हिंदी सिनेमा में वैविध्य की वृद्धि हुई। इस वैविध्यता  का सबसे बड़ा आधार लक्ष्य दर्शक की पहचान में निहित है। ऐसे में वर्तमान समय की  अभिरुचियों को ध्यान में रखते हुए व्यापक प्रवासी भारतीय के ज़ेब से पैसा निकालने के  लिए 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगें, हम आपके है कौन, नमस्ते लंदन, पटियाला हॉउड़,  सिंग इज़ किंग, मानसून वैडिंग, बैंडेड इट लाइक बैक्कम, पहेली, स्लम डॉग मिलिनियरआदि  फिल्में अस्तित्व में आई। कुछ फिल्में देश के प्रबुद्ध वर्ग को संबोधित है। कुछ  फिल्में विमर्श केन्द्रित है। कुछ शहरी युवा वर्ग के लिए है तो कुछ लोक संस्कृति को बेचने की ख़ातिर-जैसे लगान, स्वदेश, पिपली लाइव आदि। कुछ फिल्में विशेष बोलियों के  प्रयोक्ताओं से संबंध लिए हुए है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज की फिल्मी हिंदी अधिक यथार्थपरक हिंदी है उसमें जड़ता नहीं प्रवाह है। फिल्मों की लोकप्रियता बढ़ती जा रहीं हैं। एक ख़ास बात हिंदी फिल्म में भाषा के खिलंदडे, व्यंग्य, पैरोडी, रीमिक्सिंग रूपों की भी है। आज की फिल्में तो यथार्थ के बहुत नजदीक दिखाई दे रहीं हैं इसलिए उसके भाषाबिम्ब में ये सभी सूक्ष्म छटाएँ भी रूप पा रहीं हैं।

टी.वी-
  
विश्व के सर्वप्रथम टीवी सीरियल (धारावाहिक)'सोप ऑपेरा' की शुरुआत अमेरिका में हुई। 1930 के आसपास एक विज्ञापन कम्पनी  'प्रोक्टर एण्ड गैम्बल' ने दोपहर के समय धारावाहिक पारिवारिक नाटक प्रसारित करवाने के लिए साबुन बनाने वाली एक कम्पनी को तैयार कर लिया। साबुन बनाने वाली कम्पनी का आकर्षण यह था कि घरेलू महिलाएँ ख़ाली समय में नाटक सुनने के साथ-साथ उसके  साबुन की प्रशंसा सुन-सुनकर उसी प्रकार का प्रयोग करेंगी। इसलिए इसका नाम 'सोप  ऑपेरा' पड़ा। और तब से आज तक टी.वी कार्यक्रमों का प्रयोग मनोरंजन के रूप में कम,  परन्तु वस्तु के उत्पाद को विज्ञापित करने व बेचने के लिए अधिक किया जा रहा  है।

अतीत के पन्ने पलटने पर हम देखते हैं कि 80 के दशक तक टीवी का मतलब केवल दूरदर्शन ही होता था। दूरदर्शन के कार्यक्रमों का स्तर होता था। परन्तु 80 के दशक के आख़िरी सालों में टीवी में काफी 'चेंज' आया। भारत में जब सैटलाइट चैनलों की शुरुआत हुई तो विदेशी भाषा के 'सोप ऑपेरा स्टार टीवी के माध्यम से भारत के घरों में आए पर धीरे-धीरे  कई कारणों से आगे चलकर विज्ञापनों की प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी,जिसने टीवी के कई क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न उत्पादों के विज्ञापन हेतु धारावाहिकों, पौराणिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक, आंचलिक, जासूसी, बच्चों  के निमित,वैज्ञानिक (डिस्कवरी चैनल, फॉक्स हिस्ट्री, नेशनल जॉगरिफी) आदि कार्यक्रमों की एक बाढ़ सी आ गई। इन सब कार्यक्रमों से भाषा की प्रयुक्ति और प्रोक्ती निर्मित हो रहीं हैं। इस तरह के कई ढ़ेरों टीवी कार्यक्रमों में भाषा के विभिन्न प्रयुक्ति स्तर अपने को गढ़ रहे हैं।

अतः धारावाहिकों से लेकर 'लाफ्टर चैलेंज़', रियलटी शो आदि  क्षेत्रों तक में मनोरंजन इंडस्ट्री घुस गई है। लेकिन इन सब तकनीकी विकास के बावजूद  आज टीवी माध्यम हमारी वास्तविक दुनिया के समानांतर एक और दुनिया रच रहें हैं जिसके  सुख, दुःख, समाज, समस्याएँ और मनुष्य सभी कुछ अधिक अवास्तविक हैं। और आज की स्थिति  तो यह है कि उच्च मध्यवर्ग ने टीवी का सम्पूर्ण 'टेक ओवर' कर लिया है। इसे यों भी  कहा जा सकता है कि नए टीवी ने मध्यवर्ग का पूरा अधिग्रहण कर लिया है। इस दिखाई पड़ने  वाली छवियों में वह बुरी तरह आत्मकेंद्रित, लालची, पैसा खोर, चमकीला और हर दम  दनदनाता हुआ दिखता है।

इधर दूरदर्शन के परम्परागत कार्यक्रमों के विपरीत नए  प्रकार के कार्यक्रमों से सुसज्जित चैनलों ने उदारवादी  परिवेश में सम्पन्नता की  सीढ़ियाँ चढ़ते मध्यवर्ग को तेज़ी से आकर्षित किया। ऐसे में आम आदमी टीवी से गायब होने  लगा व उसके स्थान पर बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के परिवार टीवी के पर्दे और टी.आर.पी  पर राज करने लगें। 'बालिका वधू', 'बंदिनी,' 'मर्यादा', 'उतरन', 'साथिया' 'छोटी बहू'  आदि ऐसे कई धारावाहिक हैं जो साहित्यिक क्षेत्र में स्त्री संबंधी विमर्श से एक  विपरीत विमर्श प्रस्तुत करते नज़र आ रहे हैं। जिसका रूप बहुत ज्यादा अवास्तविक  प्रतीत होता हैं।  

पिछली सदी के सन् नब्बे से पहले के मध्यवर्ग में एक प्रकार  का 'ब्लेक व्हाइटपना' था। उसमें भाग-दौड़, मेहनत करना परिवार की जिम्मेदारी और  न्याय-अन्याय के कुछ परम्परागत मानकों की परवाह कुछ लाज लिहाज नज़र आता था। पर आज का  मध्यवर्ग 'सेल्फ कंज़प्शन' (आत्मोपभोग) में डूबा हुआ है। (नया मध्यवर्ग और नया टीवी,  सुधीश पचौरी, राष्टीय सहारा, 27, मार्च 2011)। हमारा  मीडिया मध्यवर्ग के दुश्चक्र से मुक्त नहीं हो पा रहा है। अब 'आम आदमी' या 'आम  जनता' शब्द कम सुनाई पड़ते हैं। और यदि मीडिया को अगर आगे विकास करना है तो  पूँजीवादी सत्ता तंत्र, बाज़ार व विज्ञापन के मनोवैज्ञानिक षडयंत्रों के कुचक्र से  अपने को बचाना होगा।  

विज्ञापन-
  
आज विज्ञापन कंपनियाँ उत्पाद बनाने से  पहले ब्रांड  (विचार) बना रहीं है और फिर उत्पाद व अंत में विज्ञापन जिनमें कई  शैलियों में उद्घोषों की एक सृजनात्मक प्रस्तुति को पिरोया जा रहा है तथा इन दोनों  के पश्चात् उपभोक्ता के विवेक को मार कर इच्छा, लोभ, लालच की प्रवृत्ति को उसमें  पैदा कर मुनाफा कमाने का साधन बनाया जा रहा है मीडिया और मनोरंजन उद्योग से साठगांठ  कर विज्ञापन कंपनियों ने बाज़ार में अपने उत्पाद को स्थापित कर लिया है। ऐसे में  विज्ञापनों की हवा पर सवार होकर उपभोक्तावाद दूर-दूर की यात्रा करने लगा है। हर  कहीं विशिष्ट वर्ग पश्चिमी सुख-साधन का सामान आयात कर रहें हैं। जिस पर कोई रोक-टोक  नहीं हैं।
व्यावसायिक और वाणिज्य विज्ञापन के अतिरिक्त कुछ ऐसे विज्ञापन भी है  जो अधिकतर सरकारी है जिनका मूल उद्देश्य व्यक्ति को सही सूचना प्रदान करना है।  लेकिन व्यावसायिक विज्ञापनों ने अपनी पूँजी के बल पर पूरे बाज़ारतंत्र, मीडिया पर  कब्ज़ा कर मनमाना मुनाफा कमाना शुरु कर दिया है। विज्ञापन की हिंदी 'जनसंचार की  हिंदी' की एक बहुप्रयुक्त और विशिष्ट उपप्रयुक्ति हैं। विज्ञापनी हिंदी के  प्रयुक्तिगत स्वरूप का निर्धारण वार्ताक्षेत्र (जनसंचार) वार्ता प्रकार  (पाठय, श्रव्य, दृश्य-श्रव्य, दृश्य-श्रव्य पठन) तथा वार्ता शैली (लक्ष्य उपभोक्ता  समाज की प्रयुक्ति के अनुसार) के आधार पर होता है। ये ही प्रयुक्ति के विवेचन के भी  आधार बनते हैं।
  
आज सरकार द्वारा व्यक्ति के विभिन्न स्वास्थ्य, अधिकार व विकास  संबंधी विज्ञापनों को भी नया रूप दिया जा रहा है जिससे की वे अधिक संप्रेषणिय हो  सकें। बाल विकास मन्त्रालय द्वारा बच्चों पर हो रहें अत्याचारों से उन्हें जागृत व  सतर्क करने के लिए सरकार अब कई विज्ञापन नये-नये अंदाज़ और भाषा शैली में विज्ञापित  कर रहीं हैं। टीवी पर एक ऐसा विज्ञापन आ रहा है जिसमें छोटे बच्चे को कई बातों से  सतर्क किया जा रहा है। ऐसे ही महिला ग्रामीण विकास संबंधी तथा वृद्धों, विधवाओं आदि  के विकास से संबंधित विज्ञापन अपने भिन्न उद्देश्य के साथ प्रसारित हो रहे है।  

फिल्मों के माध्यम से जहाँ टीवी मुनाफा कमा रहा है वहीं फिल्म उद्योग भी टीवी के  माध्यम से अपनी फिल्मों के ट्रैलर्स, प्रोमॉज़, म्युज़िक विडियों आदि का विज्ञापन कर रहें हैं। खेलों में क्रिकेट तो ख़ुद एक सबसे बड़ा विज्ञापन बन गया है। अंततः कई तरह के विज्ञापनों में भाषागत व शिल्पगत नये प्रयोग आ रहें हैं। जो केवल संप्रेषणीयता को दृष्टि में रखकर ही तैयार किए गए हैं। इन्हीं विज्ञापनों की श्रृंखला में एक  बहुत बड़ा क्षेत्र व्यावसायिक विज्ञापनों का भी है जो मूल रूप से अपने उत्पादों का  बाज़ार निर्मित करना चाहता है। यदि इस तरह के विज्ञापनों के उद्घोष वाक्यों पर हम  नज़र दौड़ाएँ तो ये उपभोक्ताओं में कई लोभ, लालच, प्रतिस्पर्धा आदि का निर्माण करते  नज़र आएंगें। यहाँ कुछ उदाहरणों को देखा जा सकता हैं-

1. गले की ख़राश का  फस्ट एड- (स्ट्रेप्सिल)2. आपकी ख़ुशियों की ज़ाबी-(टाटा नैनो)3. फास्ट  फॉरवर्ड कूल जहाँ, ख़ुशियाँ वहाँ (वर्लपूल)4. पैसों से खिलौने खरीदे जाते है  दोस्त नहीं, क्योंकि आपके पैसों से बढ़कर है 'आप'- (आई.डी.बी.आई बैंक) 5. बुलंद  भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज....(बजाज स्कूटर)6. हम आपकी ऐसी मदद करते है  जैसे हम अपने लिए घर ख़रीद रहें हों ! (आई.सी.आई.सी.आई, होम लोंस)7. जब इरादों  में हो इतनी चमक, तो कपड़ों में क्यूँ नहीं (सर्फ एक्सल)8. अमूल द टेस्ट ऑफ  इण्डिया9. कुछ बंधन अटूट होते है जैसे एयरटेल का नेटवर्क आपके साथ हमेशा चलता  हैं !10. क्योंकि आपके सपने सिर्फ आपके नहीं यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया11. एक  आयिडिया जो बदल दे आपकी दुनिया (आईडिया मोबाइल)12. कैडबरीज़ की नयी पर्क। थोड़ी सी पूजा। कभी भी, कही भी। 13. सनफीस्ट ड्रीम क्रीम लाओ। ड्रीमी, क्रीमी  दुनिया में खो जाओ। 14. बिरला सन लाइफ इंश्योरेन्स के रिटायरमेंट सोल्यूशन! ताकि मंहगाई चाहे बढ़ती रहे आप कल भी जियें आज की तरह !15. कॉलगेट एक्टिव  सॉल्ट, इसका अनोखा फार्मूला कीटाणुओं को हटाए ताकि मसूड़े बने स्वस्थ और दाँत जड़ों  से मज़बूत
       
ऐसे सैंकड़ों विज्ञापन जाने-अनजाने हिंदी भाषा  की  सृजनात्मक प्रयुक्ति का निर्माण भी कर रहें हैं। लेकिन अधिकतर इन विज्ञापनों का जो  लिप्यंतरण रोमन में हो रहा है वह एक तरह से हिंदी के लिए ख़तरे की घंटी हैं। 

विज्ञापन के क्षेत्र में एक और बात ध्यान खींचने वाली है वह विज्ञापन में स्त्री छवियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल। विज्ञापन का क्षेत्र आज पूर्ण रूप से उसे  पहले से अधिक वस्तु में सीमित करता जा रहा हैं। हालांकि विज्ञापन क्षेत्र में  स्त्रियों का खुला प्रदर्शन बहुतों के लिए स्त्री स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का  द्योतक हो सकता है परन्तु सोचने की बात यह है कि असल में स्त्री का मनमाना प्रयोग  कर कंपनिया चाहती क्या है? आज विज्ञापनों के माध्यम से स्त्रियों को पुरूष के लिए अधिक आकर्षित बनाने का तामझाम ज़ोरों पर है। अतः ये विज्ञापन स्त्री वर्ग के लिए  कैसी संस्कृति निर्मित कर रहें है? इस पर भी विचारनें की ज़रूरत हैं। 

यहाँ टाटा  स्काई के दो उदाहरण देकर विज्ञापन के सूक्ष्म उद्देश्य उत्पाद को बेचने की कलाकारी  का नमूना पेश किया जा रहा है-

1. टाटा स्काई-
आमिर ख़ान सरदार जी वाला विज्ञापन-आमिर  ख़ान-ये जो टाटा स्काई वाले है, ना इन पर तो मैं केश ढ़ोक दूँगा।आई मेक  देयर लाईफ़ लिविंग ब्लैडी हेल !हद कर दी यार, क्रिकेट का बुख़ार कोई कम था, जो ले  आए अपना पिक्चर क्वॉलिटि वाला डिब्बा. मेच के एक्सपिरियंस को इतना बढ़िया बना  दिया है कि लत लगा रखी है सबके। मैय्य किय्या पूत्तर बिज़ली का बिल भर आ। वन  ओल्ड मेन बिज़ली की लाइन में भूटे की तरह सिख़ रहा है और बेटा 'टाटा स्काई' पर क्रिकेट के मज़े लूट रहा है। ब्लैडी पिक्चर क्वॉलिटि। आज दिखाता हूँ कि बाप है कौन?आमिर ख़ान-ए ले (रास्ते में चलते हुए किसी अनजान  व्यक्ति के  हाथ में अपना टाटा स्काई थमा देता है।)नेपथ्य-पापा जी सॉरी,  लाइफ-लाइक पिक्चर क्लियरिटी, जो आप को दे क्रिकेट देखने का असली मज़ा। टाटा स्काई !  इसे लगा डाला तो क्रिकेट झिंगालाला !बेटा-पापा जी अपनी टाटा  स्काई चोरी हो गई। अरे वह तो होनी ही थी, वो ए ई इतनी कमाल की चीज़ !

2. टाटा स्काई-
आमिर ख़ान  दूधवाला-ग्राहक-अरे ! ये लो भईयाआमिर  ख़ान-बाबू जी ये तो आधे महीने का है,ग्राहक- तो.. ??  हम लोग तो छुट्टी पर थे, हमने दूध लिया कहा,आमिर ख़ान-तो लिया  नहीं तो क्या हुआ, गाय ने तो दूध दिया नाऊँ जानवर है सीधा-सादा ऊँ  छुट्टी-वुट्टी क्या समझे ऊ तो..पूरा दूध रोज़ देय !आमिर  ख़ान-अरे ऊँ तो '31' का महीना था, एक दिन का 25 रुपए और दे देते तो अच्छा  होता ! (कह कर ग्राहक से '25' रुपए झटक लेता है)आमिर ख़ान-जय  राम जी की बाबू जी (कह कर अपने रस्ते चले जाता है)नेपथ्य-भई  छुट्टी के पैसे किसी को मत दो चाहे वह दूध वाला हो या टाटा स्काई इसलिए हम लाये  है-वन्स ए इयर सबस्क्रिपशन हॉलिडे प्लेनयानि छुट्टी पर जाओं और पैसे भी मत  दोइसको लगा डाला तो लाइफ झिंगालाला !
  
अतः भाषा का इतना सुन्दर सृजनात्मक  इस्तेमाल निश्चित रूप से उपभोक्ता को वस्तु 
की ओर आकर्षित करेंगा ही। यानि ग्राहक  की मनोस्थितियों को समझकर एक ऐसे भाषा व बिम्ब (दृश्य) का प्रयोग विज्ञापनकत्र्ता  कर रहें हैं जिससे कि उनका उत्पाद अधिक से अधिक बिके। उपर्युक्त दोनों विज्ञापनों  के उदाहरणों में अपने-अपने तरीके से भोक्ता को आकर्षित करने की कला है।
  
भाषा-वैज्ञानिक, शैक्षणिक, सामाजिक और ज्ञान-विज्ञान के विस्तार के साथ जीवंत भाषा हिंदी के नये-नये रूप उभरे हैं। व्यवहार के स्तर पर भी हिंदी का प्रयोग व्यापक है। फिल्म और टीवी ने हिंदी के संपर्क भाषा रूप को भारत के हिंदीत्तर क्षेत्रों में ही नहीं,विदेशों में भी लोकप्रिय बना दिया है। दूसरे देशों के लिए आज हिंदी भारत की सभ्यता  और संस्कृति को समझने की माध्यम भाषा है। ग्लोबलाइज़ेशन के साथ-साथ जैसे स्थानीयता  की प्रवृत्ति बढ़ी है, वैसे ही हिंदी-मीडिया के व्यापक प्रसार के साथ बोलियों के  मिश्रण की प्रवृत्ति और भारतीय भाषाओं से शब्द-ग्रहण की प्रवृत्ति भी बड़े ज़ोरों से  बढ़ी है और ऐसे में मीडिया ने स्वीकार कर लिया है कि भाषा का एकरूपी होना संभव नहीं  हैं। विषमरूपी हिंदी की विविध छटाएँ आज दुनिया भर के हिंदी समझने वालों को एक सूत्र  में बाँध रहीं हैं। हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता को मीडिया ने अनेक कसौटियों पर परखा  है और हिंदी ने यह साबित कर दिखाया है कि ज्ञान-विज्ञान से लेकर मनोरंजन तक हर  क्षेत्र को पूरी तरह अभिव्यक्त और संबोधित करने में हिंदी सर्वसमर्थ है। विज्ञापन  के माध्यम से भी आज हिंदी दुनिया भर में फैले हिंदी भाषी बाज़ार को संबोधित कर रहीं  हैं। हिंदी अपनी ताकत से मीडिया पर सवार हो रही है इससे एक ख़तरा है कि अपने इस तरह  के संप्रेषण में हिंदी हिंग्लिश व खिचड़ी बनती जा रहीं है, ऐसे में यदि वह आम लोगों  की भाषा बन भी जाए, लेकिन विकास की भाषा नहीं बन पायेंगी। इन्हीं सब कारणों से  हिंदी का कोश सिमटता जा रहा है। और इन सब पर विचार करने की आवश्यकता भी है।

सुधीश पचौरी का कहना है कि "हम दो तरह की भाषाओं में जीया करते हैं-एक मानक कार्य की मानक भाषा और दूसरी अनौपचारिक भाषा। और भारत के संदर्भ में मानक भाषा अंग्रेजी कहीं जा सकती है।"आगे वे कहते हैं कि "भाषा की क़ीमत के असली सवाल भाषा  द्वारा पूँजी निर्माण में सहायक होने से जुड़े है। यही भाषा की क़ीमत की शर्त है।  भाषाओं के जीवन मरण के सवाल भी इस बात से जुड़े है कि वे भाषाएँ पूँजी के संदर्भ में  कितनी प्रोडक्टिव है? क्या प्रोडूस करती हैं? क्या ब्रांड बनाती है? भाषा। और अब हमें भी हिंदी को इसी संदर्भ में देखना होगा। अब हिंदी को संप्रेषण से आगे बढ़कर  एकरूपता पाने की ओर बढ़ना होगा।

अन्त में....
कुछ विचारणीय मुद्दे.....

1. जब पूरे शिक्षण-प्रशिक्षण के माध्यम को चालाकी से अंग्रेजीनुमा बनाया जा रहा है तो हिंदी के  विशुद्ध रूप की बात कैसे की जा सकती है?2. अल्प समय में बहुत कुछ जानने-समझने की अभिलाषा में जो कुछ परोसा जा रहा है, वह निश्चित ही कई व्यवस्थाओं को बदल रहा  हैं।3. निश्चित रूप से आज भी प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा  अधिक अपेक्षाएँ हैं।4. प्रिंट मीडिया को मनोरंजन और विज्ञापन के बीच एक सशक्त भूमिका निभानी थी जो वह नहीं निभा पा रहा है। 

                                                                                                             
  डॉ. बलविंदर कौर
प्राध्यापक, 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
खैरताबाद, हैदराबाद-500004

दूरस्थ शिक्षा संपर्क कार्यक्रम का उद्घाटन

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

शमशेर की रचनाओं का वैशिष्टय


    शमशेर बहादुर सिंह की रचनाओं में निजी व वैश्विक  संदर्भों के दो भिन्न छोरों को देखा जा सकता है। असल में जहाँ वे एक ओर अत्यंत आत्मकेन्द्रित हैं तो वहीं दूसरी ओर अत्यंत वैश्विक संदर्भों से भी सहज में जुड़ जाते हैं। उनके काव्य व्यक्तित्व का यह विरोधाभास स्वयं ही उन्हें अद्वैत की सिद्धि प्रदान कर देता है। कवि का निजपन इतना सूक्ष्म व गहरा है कि बाहर आते ही एक विराट रूप धारण कर लेता है। शमशेर को समझने के लिए किसी विचार, वाद को जानने की आवश्यकता  नहीं है बल्कि उनकी भाषा में पिरोए गए शब्दों की जड़ों और उसके प्रस्तुतिकरण शिल्प को सहज ढंग से लोक-संस्कृति व परम्परा से जोड़कर देखने की जरूरत है।
   
   शमशेर बहादुर सिंह ने कई स्तरों पर बिंबों व रंगों की गहनतम अर्थ छटाओं से हिंदी और उर्दू साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। जीवन के कटुतम संघर्षों को लेकर उन्हें कविता में एकदम तरल बना सकना शमशेर के ही काव्य-व्यक्तित्व की पहचान है। शमशेर की कविताओं में संगीत की मनः स्थिति बराबर चलती  रहती है। एक ओर चित्रकला की मूर्तता उभरती है और फिर वह संगीत की अमूर्तता में डूब जाती है। गद्य में उन्होंने बोलचाल के लहजे को अपनाया व कविता की लय में संगीत के चरम अमूर्तन को। अतः वे दोनों परस्पर विरोधी मनः स्थितियों को कला रूप में साधते है। यही कारण है कि शमशेर में एक संपूर्ण रचना संसार दिखाई देता है।
   शमशेर में वातावरण संवेदन में संक्रमित हो जाता है। इस संदर्भ में 'राग' कविता का पहला अंश द्रष्टव्य है-

"मैंने शाम से पूछा
या शाम ने मुझसे पूछा : 
इन बातों का मतलब ?
मैंने कहा : 
शाम ने मुझसे कहा :
राग अपना है।"
   
   यहाँ प्रतीकात्मक रूप से मनुष्य और प्रकृति के बीच में यथार्थ की खोज है। यहाँ 'राग' के अंतर्गत मनोभाव, व्यक्तित्व, संगीतात्मक आकर्षण, रंग की विविध अर्थ-छायाएँ संश्लिष्ट हैं। 'राग' का कोई एक निश्चित अर्थ नहीं, वह अपने में समूचा संवेदन है। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-10)। यहाँ ऐसा जान पड़ता है कि 'मैं' और 'शाम' के बीच में संवाद नहीं, बल्कि यह तो कवि का गहराता आत्मालाप है। प्रकृति और प्रेम दोनों कवि-व्यक्तित्व में डूबते जाते हैं। यह डूबते जाना कविता की मनः स्थिति है, तो डूब जाना दर्शन की अनुभूति। शमशेर ने अपनी कविता की प्रक्रिया के बारे में कहा है-


"तुमने अपनी यादों की पुस्तक खोली है ?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्पष्ट हो गई हों ?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो ?
वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
जब तुम मुझे क्या कहोगे ?"

   शमशेर की कविताओं की कोटि यही है, वे मिटती हुई एकाएक स्पष्ट हो जाती हैं। यथा-

 " एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता 
अब गिरा
अब गिरा
वह अटका हुआ
आँसू
सांध्य तारक-सा
अतल में।"
   
   शमशेर ने रंगों की कई छटाओं का अपने मन के भावों की लय को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग किया है। जैसे उपर्युक्त पंक्ति में एक विशेषण 'पीली' का बिंब पतझर, कृशता, अवसाद, थकान की न जाने कितनी ही रंगीन भंगिमाओं के साथ उभर कर आया है। शमशेर की समूची काव्य-प्रकृति उनके वण्र्य, बिंब और लय से जुदा नहीं है। शमशेर ने जो कुछ लिखा वह सीधे उन्हें ही खोलता है।  उनके वण्र्य सामान्य-अकिंचन हैं, भाषा बोलचाल की है, बिंब आत्मीय हैं, लय असीम है। उनकी कविता जीवन-मात्र के प्रति कृतज्ञता है। उनकी रचना के खुलेपन का एक कारण और प्रमाण यह है कि उनकी काव्यभाषा में संज्ञा शब्दों से कुछ अधिक ही महत्व सर्वनामों, क्रियापदों और अव्ययों का है। उनके प्रकृति-चित्रण में अतियथार्थवाद की झलक भी बार-बार मिलती है। प्रकृति जितनी उनके बाहर है उतनी ही भीतर भी। एक चित्रण यथार्थ है तो दूसरा अतियथार्थ। शमशेर के लिए वर्णन देश का होता है और अनुभव काल का। वेदना के विस्तार को कवि ने अपने एक शेर में यों बाँधा है-

"इश्क की इंतहा तो होती है
दर्द की इंतहा नहीं होती "
  
 मलयज शमशेर को 'मूड्स' का कवि  मानते है 'विजन' का नहीं। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-19)। परंतु सच यह है कि उनके भावसंवेदन ही संपुंजित होकर उनकी जीवन दृष्टि बन जाते है। ये भावसंवेदन छोटी-छोटी मनः स्थितियाँ हैं, किसी दर्शन या जीवन दृष्टि को रचने का प्रयत्न नहीं। यह वस्तुतः नयी कविता का एक मूल स्वर है-सामान्य घटनाओं में सोए हुए या स्थापित जीवन की पहचान। उदात्त तो स्वयं ही काव्य है, अपने से जीने योग्य है ; अनुदात्त को रचना और उसे जीने योग्य बनाना यह नये कवि का वैशिष्टय  है, जीवन के अंदर के जनतंत्र को बढ़ाना है। शमशेर में इसकी अच्छी पहल हुई है। दिन के चौबीस घंटों, और वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिनों की छोटी-बड़ी घटनाओं में जीवनअबाध गति से प्रवाहित हो रहा है, यह 'विज़न' शमशेर के अनेक 'मूड्स' में से उभरता है और नयी कविता के समूचे परिदृश्य में धीमे से घुल जाता है।

   शमशेर का समूचा काव्य हिंदी कविता के पद-समूह में अव्यय है-सरल, निरीह और अर्थवान, पर अपनी प्रक्रिया में जटिल। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-21) जो नहीं है उसका गम क्या, और जो है उसे ही संजोना यह कवि का मूल मंत्र है। शमशेर मानते थे कि कविता वैज्ञानिक तथ्यों का निषेध नहीं करती। उनकी कविता आधुनिकवादियों और प्रगतिवादियों-दोनों के लिए एक चुनौती रही है। वे जनसंघर्ष के नहीं, बल्कि संघर्षों के बाद की मुक्ति के आनंद के कवि है। प्रो.मैनेजर पांडेय ने कहा है कि शमशेर की कविताएँ विद्वानों के लेखों या शब्दकोशों के जरिए कम समझ में आती हैं, जीवन-जगत के व्यापक बोध में उनकी कविताएँ समझ में आ सकती है। इसी संदर्भ में मुक्तिबोध ने लिखा है कि-" शमशेर की आस्था ने अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली महल अपने हाथों तैयार किया है। उस भवन में जाने से डर लगता है-उसकी गंभीर, प्रयत्नसाध्य गम्भीरता के कारण।" मुक्तिबोध ने 'आत्मा का भूगोल' और 'आत्मा का इतिहास' को उनके शिल्प के विकास का कारण माना और उनके काव्य-व्यक्तित्व और शिल्प के अटूट जुड़ाव को रेखांकित किया। 
शमशेर को विचारधारा के सौन्दर्यबोधी रूप को साहित्य और कला में ढालने में महारत हासिल है। 'अमन का राग' (1945) में कवि की सौन्दर्य दृष्टि स्पष्ट लक्षित होती है-

" ये पूरब-पच्छिम मेरी आत्मा के ताने बाने है
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द 
लपेट लिया है
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आंच की धूप छांव पर
बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर है
क्योंकि मैं ह्यदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव हम
एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे है
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह "

   अतः एक ऐसे विश्व  की कामना कर रहा है कवि जिसमें एक नया इंसान धर्म, जाति, देश की चहारदीवारियों से आजाद हो शांति, सुख और प्यार को रोजमर्रा की जिंदगी में ही पा जाएगा। कवि शमशेर में विचार और यथार्थ बहुत छनने के बाद कविता में ढलता है, या फिर यों कहे कि उनके ज्ञानात्मक संवेदन की विशेषता यह है कि वे अनुभूत वास्तविकता को काफी गलाते और संघनित करके कविता में फिर से मूर्त करते हैं, अपनी ही कल्पना में फिर-फिर उसे सिरजते हैं। अर्थात् वे अपनी कविताओं पर सहज में काफी श्रम भी करते है या फिर कहे कि उनकी कविता की परिपक्कवता में काफी कुछ छन कर आता है।

   प्रगतिशील कविता में अगर त्रिलोचन और नागार्जुन में देशज, स्थानीय, ग्रामीण संदर्भ अधिक मुखर है, तो शमशेर में नितांत वैयक्तिक संदर्भ वैश्विकता  और अंतरराष्ट्रीयता का रूप ग्रहण करते नज़र आते हैं। अज्ञेय ने शमशेर के बारे में लिखा " वह प्रगतिवादी आंदोलन के साथ रहे, लेकिन उसके सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले कभी नहीं रहे....उन्होंने मान लिया कि हम उस आंदोलन के साथ हैं, और स्वयं उनकी कविता है, उसका जो बुनियादी संवेदन है, वह लगातार उसके बाहर और उसके विरुद्ध भी जाता रहा और अब भी है....हम चाहें तो उन्हें रूमानी और बिम्बवादी कवि भी कह सकते है।" शमशेर ने स्वयं अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में कहा है कि " बच्चे अपनी सब बातें समझा लेते है-बावजूद इसके कि वो शब्द बहुत से नहीं इस्तेमाल करते लेकिन इतनी अच्छी तरह से समझा लेते हैं, नन्हें-नन्हें बच्चे, कि उनकी बात सब स्पष्ट होती है। ठीक इसी तरह से मेरी भी बहुत सी कविताएँ बच्चों जैसी अटपटी हैं। बहुत अटपटी हैं। लेकिन उसमें वो फोर्स बच्चों जैसी है। यानी कोई बात मैं कहना चाहता हूँ और वो उन इमेजेस के जरिए आती है जो मेरे सामने आ जाते हैं।" साफ है कि शमशेर की कविताएँ किसी राजनीतिक विचारधारा से बंधी हुई नहीं है। वास्तव में उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता को वादों से ऊपर रखा। रचना के स्तर पर वे ठेठ लोक की ज़मीन से जुड़े हुए कवि हैं। उनकी कविताओं में राजनीति सहज में  ही देश, काल, वातावरण के परिप्रेक्ष्य में उभर कर आ जाती है। 1948 में शमशेर ने निज़ामशाही के खिलाफ भी एक छोटी सी नज्म लिखी थी-' ये चालबाज हुकूमत फिरंगियों का गढ़ / बनी हुई है अभी तक फिरंगियों का गढ़ / लगे अवाम की ठोकर निज़ामशाही को।" शमशेर आरंभ में जिसे माक्र्सवाद कहते थे, उसके लिए दस वर्ष बाद कुछ अधिक-ढीली शब्दावली 'समाज सत्य' या उससे भी अधिक ढीली शब्दावली 'समाज-सत्य का मर्म', 'इतिहास की धड़कन' आदि का प्रयोग करते हैं। अतः वे जीवन के सौंदर्य को समझने के लिए माक्र्सवाद से आगे जाने की ओर इशारा करते है। उनकी प्रकृति हमेशा वस्तुपरकता को उसके शुद्ध रूप या उन्हीं के शब्दों में उसके 'मर्म-रूप' में पकड़ने की रही है। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-34-35)।  

शमशेर ने कविता के छंद, लय, शब्दावली सबमें बहुत से नये प्रयोग किये हैं। उन्होंने ऐसे नये प्रतीकों और बिम्बों का सृजन किया है जो कविता के अभ्यस्त पाठकों और श्रोताओं को अक्सर चुनौती की तरह लग सकते हैं। शमशेर की एक कविता है जिसका शीर्षक है-' एक पीली शाम !'

"एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शांत
मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल 
का शिल म्लान हारा-सा
(कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कही ?)
वासन डूबी
शिथिल काजल में
लिये अद्भूत रूप-कोमलता
अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्ध्य तारक-सा
अतल में। "

   यहाँ आँसू निजी है भी और नहीं भी है। पराया है भी और नहीं भी है। न तो वह बिलकुल आत्मपरक है, और न बिलकुल वस्तुपरक वह अभिव्यक्ति भी है और संकोच भी है। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-25)। छायावाद के बाद हिंदी कविता के सौंदर्य के दामन को पकड़ने का कार्य एकलौते कवि शमशेर ने किया। उनकी 'सौन्दर्य' कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-

" काश कि मैं न होऊँ
न होऊँ
तो कितना अधिक विस्तार
किसी पावन विशेष सौन्दर्य का
अवतरित हो ! 
पावन विशेष सौन्दर्य का
कितना अधिक विस्तार
अवतरित हो
यदि मैं न होऊँ।"

   अतः शमशेर पल-छिन अवतार लेते हुए सौन्दर्य के गवाह हैं-ऐसे गवाह जिसने इस अवतार के हर-रंग और हर विस्तार को उसके 'अनंत लीला' रूप में अभिव्यक्त करने की शपथ ली है।
   
   शमशेर की यूटोपियन कविताओं में उनके बिंब सघन ठोस और अपारदर्शी लगते हैं। नामवर सिंह को भी उनकी कविताओं में सिर्फ बिंब और काव्य-शिल्प और प्रतीक ही मिले....विचार नहीं। शमशेर स्वयं अपनी रचनाओं के बारे में कहते है कि " कविता के माध्यम से मैंने प्यार करना -अधिक से अधिक चीजों को प्यार करना-सीखा है। मैं उसके द्वारा सौंदर्य तक पहुँचा हूँ। मेरी चेतना इतनी, कह लो कि कंडीशंड हो चुकी है, कि हर चीज में मुझे एक अतःसौंदर्य दिखायी देता है, बिना किसी अतिरिक्त कांशस प्रयत्न के, सौंदर्य का पूरा एक कम्पोजीशन...दृश्य जगत पहले मेरी नज़र में सौंदर्य के एक कम्पोजीशन के रूप में ही आता है....मैं उससे प्रभावित होता हूँ.....काव्य की कुछ उपलब्धियाँ निगेटिव मूल्य के रूप में होती हैं, समझ लो कि यह बरबस सौंदर्य के एक खाके में अपने को अनायास महसूस कर लेना मेरी कविता की वही निगेटिव उपलब्धि है।" (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-50) इसीलिए वे अंततः कोई सियासी कवि नहीं, सौंदर्य के चितेरे कवि सिद्ध होते हैं।
   
   शमशेर की प्रायः सभी कविताएँ एकालाप हैं-आन्तरिक एकालाप। "बक रहा हूँ जुनूँ में क्या कुछ / कुछ न समझे खुदा करे कोई " के अन्दाज में । " उसने मुझसे पूछा, इन शब्दों का क्या। मतलब है ? मैंने कहा : शब्द। कहाँ हैं ? " राग। (शमशेर की शमशेरियत, डॉ.नामवर सिंह)। नामवर सिंह ने शमशेर पर अपने लेख में शमशेर को सिर्फ कवि माना है। "न 'शुद्ध कविता' का कवि, न 'कवियों का कवि', न प्रयोग का कवि और न प्रगति का ही कवि ! कुछ कवि ऐसे होते हैं जिन्हें हर विशेषण छोटा कर देता है। (27 जुलाई 1990, 'शमशेर : प्रतिनिधि कविताएँ' की भूमिका)
  
   शमशेर अच्छे गद्यकार भी रहे हैं। उनका अच्छा गद्य उनकी डायरी और लेखों में मिलता है। अपने अच्छे गद्य में शमशेर खूब खुलते हैं। न वाक्यों की बनावट से उनके विचार अधूरे रह जाते हैं, न अधूरे वाक्यों से उनका चिंतन गड्ड-मड्ड होता है। उनका गद्य अमूर्तन से मूर्तन की ओर बढ़नेवाला गद्य है जिसमें उनका चिंतन और अनुचिंतन समाहित है। कविता हो, या कहानी या फिर संस्मरण जैसी अकाल्पनिक गद्य विधा ही हो-तीनों में शमशेर के व्यक्तित्व की निश्छलता, भावप्रवणता, अध्ययनशीलता और सौंदर्य दृष्टि के वैशिष्ट¬ को साफ-साफ पहचाना जा सकता है। उनका गद्य खुद से उलझता है, खुद को उधेड़ता भी है, खुद की 'खबर' भी लेता है यानी एकांत में शमशेर गद्य में आत्मालाप करते हैं। 'दोआब' शमशेर की पहली गद्य कृति है, उसके गद्य को आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने अच्छा गद्य माना है। शमशेर की दूसरी कृति है, 'कुछ और गद्य रचनाएँ "। इस की रचनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि उनके अच्छे गद्य में घनत्व और प्रसार दोनों शैलियाँ  विद्यमान हैं। उनके गद्य में ठोस जमीन और स्वदेशी गहराई है। प्रसार में वह खुद को खोलते हैं, संस्मरण सुनाकर, अपनी मान्यता को पुष्ट करते हैं। कैफी आज़मी, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, गालिब, इक़बाल और रहीम पर लिखी उनकी समीक्षाओं में उनकी साहित्यिक सुरुचि यानी श्रेष्ठ स्तर की कसौटी मिलती है। उनका गद्य बातचीत की शैली का संवाद है। वह जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते है। लिखते समय भी वह खुलापन लाते है।
  
   भाषा शमशेर के लिए कविता है, सिर्फ एक माध्यम नहीं। और कविता भी कैसी ? जिसमें बहते-बहते वे संस्कृति-नहीं, संस्कृतियों के उद्गम तक पहुँचने का उपक्रम करते है। उनकी काव्य भाषा बहुत लचीली और संकेतात्मक है। डॉ. गंगा प्रसाद विमल उन्हें हिंदी की कविता भाषा को हिंदुस्तानियत के लहजे से पुष्ट करनेवाला मानते है। इसी कारण उनकी शमशेरियत लोगों से अपना लोहा मनवा लेती है। 'कुछ कविताएँ' की भूमिका में शमशेरने लिखा है, " हर भाषा की जान होता है मुहावरा। और मुहावरे हिंदी-उर्दू दोनों के बिलकुल एक हैं।" मुहावरे ही क्यों, दोनों का काफी शब्द-समूह और व्याकरण भी एक है। इसीलिए बोलचाल में दोनों प्रायः एक हैं। अतः उन्होंने हिंदी, उर्दू के विश्लेषण को नहीं संश्लेषण को ही महत्व दिया। जिसका प्रमाण उनकी रचनाएँ हैं। उनकी डायरियों, स्केचों, कहानियों, समीक्षाओं में भाषा की निजी खनक है। और यह खनक कई किस्म की है-कहीं जेस्ट उर्दू की पच्चीकारी, कहीं ग्राम्य बोलियों का संगीत, कहीं अंग्रेजी का वाक्य-विन्यास। ख़ास तौर पर उनकी ग़ज़लों को हिंदी-उर्दू के गंगा-जमुनी संस्कार अथवा हिंदुस्तानी के लहजे के लिए याद किया जा सकता है। यथा-

" आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए
ताक़ पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद "

" मेरी बातें भी तुझे खाबे-जवानी-सी है
तेरी आँखों में अभी नींद भरी है शायद !"

" कितने बादल आए, बरसे औ गए
जिनके नीचे मैं पड़ा सुलगा किया !
छिपके बैठे मेरे दिल की चोट में
आपने अच्छा किया, पर्दा किया
रुक गए हैं क्यों ज़मीनो-आसमाँ
कुछ कनखियों से इशारा-सा किया !"
   अंत में यह भी कहना जरूरी है कि शमशेर की रचनाओं को समझने के लिए पाठकों को सभी कलाओं विशेष रूप से चित्रकला का पारखी होना होगा। भावनाओं की गुत्थियाँ, जब कभी शमशेर शब्दों द्वारा न ही खोल पाते तब रंगों का सहारा लेते हैं, क्योंकि शब्द एक सीमा तक ही अमूर्त हो सकते हैं, जबकि रंग प्रकृति से ही अमूर्त के माध्यम हैं। उनका सौंदर्यबोध कालचिंतन से जुड़कर उनकी कविता को काल से होड लेने वाली सृजनात्मकता का प्रतीक बना देता है-

" काल 
तुझसे होड़ है मेरी अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूँ।
इसीलिए तेरे ह्दय में समा रहा हूँ
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, आनंदोपरि
मैं-तेरे भी, ओ काल ऊपर !
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !
जो मैं हूँ-
मैं कि जिसमें सब कुछ है....
क्रांतियाँ, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं
मैं, जो वह हरेक हूँ
जो, तुझसे, ओ काल, परे है।"

                                                                                                   - डॉ. बलविंदर कौ

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

बकौल नामवर सिंह शमशेर सौंदर्य के कवि हैं


(Photos by dr.neeraja, dr.balaji & radhakrishna)

मौलाना आजाद विश्वविद्यालय में संपन्न शमशेर शताब्दी समारोह में दो दिन उपस्थित रहकर बड़ा ही सुखद महसूस हुआ| ३०- ३१ के समारोह से पहले मुझे दो दिन हैदराबाद विश्वविद्यालय में द्विदिवसीय संगोष्ठी में भाग लेने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ तो कुल मिलाकर दो अलग अलग संगोष्‍ठियों के चार दिन| दोनों का अपना अपना विशेष महत्त्व रहा| एक हिंदी भाषा पर थी तो दूसरी हिंदी-उर्दू  के महान रचनाकार शमशेर बहादुर सिंह पर|

जब दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में यह कार्यक्रम तैयार किया जा रहा था तो केवल इतनी ही सूचना प्राप्त हुई थी कि यह कार्यक्रम दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और मौलाना आजाद विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया जाएगा परंतु जब आयोजन  स्थल पर पहुँची तो सारी व्यवस्थाएँ देखकर आश्चर्यचकित होती रही क्योंकि आयोजन से दो दिन पहले ही सभा से गायब रहने के बावजूद मुझे कोई  अतिरिक्त कार्य नहीं सौंपा गया था|

उद्‍घाटन सत्र में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नामवर जी के बीज व्याख्यान को सुनकर यह भ्रांति दिमाग से निकल गई कि नामवर जी अब संगोष्‍ठियों में अधिक नहीं बोल पाते| गंगा प्रसाद विमल जी का संस्मरण काफी रोचक रहा| उन से जब भोजन के समय मुलाक़ात हुई असल में उन्होंने ही किसी से कहकर जब मुझे बुलाया तब उन्होंने पहला प्रश्न किया - क्या पंजाबी बोल लेती हो? उनके इस प्रश्न ने ही मुझे अप्रत्यक्ष रूप से इस बात की और इशारा कर दिया कि अपनी जड़ों से जुड़े रहना कितना महत्वपूर्ण है|

डॉ. ऋषभदेव जी  ने इस तरह से वक्‍ताओं व कार्यक्रम के क्रम को तैयार किया कि कहीं से भी सुनने में बोरियत का एहसास नहीं हुआ| बीच बीच में उनकी हँसी तथा हाथ खड़े करके ताली बजाना पूरे कक्ष में असीम उल्हास भर देता था| शायद लोगों को पता नहीं है कि इस आयोजन के पीछे   दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र के डॉ.ऋषभदेव शर्मा, के.नागेश्वर राव, डॉ.जी.नीरजा का सब से महतवपूर्ण योगदान रहा| हम तो शादी में मेहमान बनकर आए, खाए - पीए, मौझ मस्ती की और चल दिए| सच में आयोजन कई तरह से लाभदायक और ज्ञानवर्धक रहा| शमशेर , हिंदी - उर्दू के बहाने दो समूहों को एक करने की सहज कोशिश वहां बड़े जोरों से नजर आई| कमाल है एक शख्शियत के बहाने इतने सारे मिलाप| बहुत ही अद्‍भुत अनुभव रहा|

भविष्य में जरूर इस संगोष्ठी से निकले संकल्पों को कार्यांवित करने का प्रयास करूँगी और आशा  करूँगी कि आगे भी इस तरह के और और आयोजन होते रहेंगे|

समारोह की विस्तृत रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है. 

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

कविता की अनुवादनीयता


अनुवादनीयता-
   किसी भी भाषा में कुछ ऐसे तत्व अवश्य होते हैं, जो किसी भी अन्य भाषा में अनूदित होने के लिए अनुवादक को प्रेरित करते रहते हैं। इसलिए किसी भी तरह के अनुवाद में अनुवादनीयता का बड़ा महत्व होता है।
    अनूदित हो सकने की स्थिति अनूद्यता है और यह मूल भाषा पाठ का गुण है। अनूद्यता का निर्धारक तत्व है सममूल्यता-द्विभाषिक समूल्यता या अनुवाद सममूल्यता। अनुवाद सममूल्यता स्थापित हो सकने की वास्तविक और संभाव्य स्थिति ही अनूद्यता हैं। भाषाओं के बीच अननूद्यता की बात की जाती है। वह वास्तव में किन्ही दो विशेष भाषाओं के बीच अननूद्यता की स्थिति के विषय में किया गया सामान्य कथन है। इसे सामान्य तथा सांस्कृतिक संरचनात्मक प्ररूपगत दृष्टियों से दूरस्थ भाषाओं के कतिपय विशिष्ट अंगों-निश्चित कोटि के शब्द, व्याकरणिक कोटियाँ आदि के बीच सम-मूल्यता स्थापति न हो सकने की स्थिति का निर्देश समझना चाहिए। आधुनिक सभ्यता से अति दूर किसी जनजातीय सांस्कृतिक समुदाय की भाषा के किसी आधुनिक भाषा में काफी बड़ी सीमा तक अनूदित न हो सकने के कारण उस भाषा को अननूद्य कहना इसके अन्तर्गत है। भाषायी संरचना के अतिरिक्त दार्शनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पौराणिक शब्दावली भी अनुवादनीयता के स्तर पर अपना अलग संदर्भ बनाए हुए है। 
अनुवादनीयता की समस्याएँ-
      अन्य अनुवादों की अपेक्षा काव्यानुवाद प्रक्रिया के संदर्भ में अनुवादनीयता और उससे संबंधित समस्याओं का पक्ष आज अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। क्योंकि साहित्यिक अनुवाद की दृष्टि से दो भाषाओं की भाषिक संरचना ही नहीं बल्कि समाज-सांस्कृतिक, सम्प्रेषणपरक पक्ष भी महत्वपूर्ण होते हैं। जबकि सामान्य रूप से अनुवाद के संदर्भ में भाषा (1) और भाषा (2) के संरचनात्मक पक्ष पर ही बल दिया जाता रहा है।
    साहित्यिक पाठ में मूल भाषा समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक व भाषागत प्राकार्यात्मक सम्प्रेषणपरक विभेद और अनेक अन्य स्तर इतने गहरे सम्बद्ध होते हैं कि इनमें से कुछ अनुवादनीय होते ही नहीं, कुछ आंशिक रूप से ही अनुवादनीय हो पाते है और कुछ मात्र शाब्दिक स्तर पर।
अनुवादनीयता के संदर्भ में दो पाठों (मूल और अनूदित) की समतुल्यता को कई मापकों पर देखते हुए उनकी मात्रा (Degree) में होने वाले भेद पर भी ध्यान दिया जाता है और इसके मात्र भाषिक ही नहीं, अन्य बिंदुओं पर भी विचार किया जाता है, यथा-
1. संदर्भगत (Degree)
2. अर्थगत (Sementeric)
3. व्याकरणिक (Grammatical)
4. शब्द समूहगत (Lexical)
5. सम्प्रेषणपरक (Communicative)
6. संज्ञात्मक (Congnalise)
7. प्रैगमेटिक (Pragmatic)
8. भाषेतर (Extra linguistic) 1
    अनुवादनीयता की दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण यह प्रश्न है कि 'अनुवाद कैसे किया जाय' उतना ही महत्वपूर्ण यह प्रश्न भी है कि 'किस का अनुवाद न किया जाय' अथवा 'किसका अनुवाद कर पाना सम्भव नहीं है'। इन प्रश्नों के संदर्भ में मात्र संरचना को समतुल्यता के परिप्रेक्ष्य में देखना ही पर्याप्त नहीं है। अतः अनुवाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य में  भी और विशेष कर साहित्यिक अनुवाद के संदर्भ में यह स्वीकार करना होगा कि भाषा एक औपचारिक संरचना या 'कोड' तो है पर उसमें भाव, अपने आसपास की दुनिया की सम्बद्ध अनुभूतियाँ तथा मनोदशाएँ भी निहित होती हैं जो भाषा में सम्प्रेषणपरक मूल्य के रूप में सुरक्षित रहती है। 2 
   अतः अनुवाद में अनुवादनीयता का पक्ष आज अर्थ के गहरे संदर्भों, भाषा की समाज-सांस्कृतिक विविधताओं तथा उसकी संप्रेषणपरक सरणियों तक विस्तृत हो चुका है।

अनुवादनीयता के संदर्भ में अनुवाद-पद्धति के निम्नलिखित धरातल निर्धारित होते है : 
1. मूल पाठ के कोडीकरण द्वारा (चाहे वह सीमित संदर्भ हो या व्यापक) सांकेतिक पद्धति से लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करती है। जिसके अन्तर्गत भाषेतर और अर्थगत सन्दर्भों को भी महत्व दिया जाता है। अतः अनुवादनीयता का पक्ष इन धरातलों से विशेष रूप से जुड़ता है : 
1.1 उपवाक्य का भाषिक स्तर :-
   यहाँ अनुवादनीयता को उस प्रक्रिया से बाँधना पड़ता है, जिसमें वाक्यों के घटक किस रूप में संयोजित होकर कोई विशिष्ट अर्थ दे रहे हैं, इसका विश्लेषण हो सके।
1.2 शैली का स्तर :-
   यहाँ अनुवादनीयता के पक्ष को मूल पाठ की शैली के साथ जोड़ना पड़ता है। शैली का अन्तरण अनुवादनीय कम होता है। लेकिन मूल पाठ के निरन्तर एवं गहन विश्लेषण द्वारा शैलीय उपादानों में निहित अर्थ को लक्ष्य भाषा में ला पाना ही अनुवादक की सफलता माना जाएँगा।
2. भाषा (1) और भाषा (2) के कुछ महत्वपूर्ण स्तर :
2.1 वर्ण रचना व लेखन पद्धति की समझ होना अनुवादक के लिए काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये अनुवादनीयता के कई स्तर तय करती हैं।  
2.2 वाक्य रचना प्रक्रिया :- हर भाषा में एक ही भाव को विभिन्न उक्तियों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है और इनके अर्थ में सूक्ष्म भेद होता है। इसी प्रकार शब्द अर्थ और प्रोक्ति स्तर पर, जहाँ पाठ अनेक स्तरों पर कार्य करता है और एकालाप, संवाद, विवरण के रूप में अनुवादक को उपलब्ध होता है। यहाँ एक ही पाठ कई स्तर पर मिश्रित होता है इसलिए इस स्तर पर भाषा संरचना में भी पर्याप्त भेद आता है। 
  अतः अनुवाद पद्धति, प्रक्रिया और अनुवादनीयता की विभिन्न सीमाएँ और उसकी दक्षताएँ भाषा (1) और भाषा (2) के सन्दर्भों में बहुआयामी होती हैं। इसी के कारण अनुवाद की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद की दृष्टि से भाषा (1) में प्रस्तुत मूल पाठ का कौन-सा पक्ष (व्याकरण परक, सम्प्रेषण परक, प्रयोजनमूलक, शैलीगत आदि) किस सीमा तक अनुवादनीय हो सकता है या नहीं हो सकता।
   आधुनिक भाषा विज्ञान अनुवादनीयता की दृष्टि से भाषिक इकाईयों अथवा भाषा संरचना के अतिरिक्त भाषा के प्रकार्यों (Functions) पर भी अब विचार कर रहा है। क्योंकि अपने प्रकार्य में भाषा अनेक रूपों में सामने आती हैं और बोध गम्यता (Cognation) तथा सम्प्रेषणियता (Communicability) के लक्ष्य को पूरा करती है। अनुवाद में अनुवादनीयता और समतुल्यता का संबंध भाषा के इन प्रकार्यों से भी अनिवार्यतः जुड़ा हुआ होता है।
   भाषिक स्तर पर अनुवादनीयता में प्रकार्यात्मक तौर पर प्रासंगिक लक्षणों में कुछ ऐसे (लक्षण) सन्निहित होते हैं जो स्त्रोत भाषा या मूल पाठ की भाषा के तथ्यतः रूपात्मक लक्षण होते है। यदि लक्ष्य भाषा में रूपात्मक तौर पर ये अनुरूप लक्षण नहीं हैं तो वह मूल पाठ अथवा इकाई अपेक्षाकृत अनुवादनीय नहीं होती है। 3
   अनुवादनीयता के संदर्भ में एक बिलकुल भिन्न समस्या तब उत्पन्न होती है जब स्त्रोत भाषा पाठ में प्रकार्यात्मक लक्षण विशिष्ट संस्कृति से सम्बद्ध हो और जो लक्ष्य भाषा में पूर्ण रूप से अनुपस्थित हों। इसके साथ ही भाषा के सामाजिक संदर्भ भी अनुवादनीयता को कई धरातलों पर प्रकाशित करते है। अतः यहाँ भी अनुवादनीयता की अनेक समस्याएँ उत्पन्न  होती है। 
   अनुवाद की दृष्टि से स्त्रोत  भाषा में प्रस्तुत मूल पाठ का कौन-सा पक्ष (व्याकरण परक, सम्प्रेषण परक, प्रयोजनमूलक, शैलीगत आदि) किस सीमा तक अनुवादनीय हो सकता है या नहीं हो सकता है, इस दृष्टि से विचार जरूरी है। 'समतुल्यता' की प्राप्ति हर स्तर पर समान रूप से उपलब्ध नहीं की जा सकती। स्त्रोत भाषा के मूल पाठ की इकाइयाँ पूर्ण रूप से अनुवाद योग्य (Translatable) अथवा पूरी तरह अनुवाद अयोग्य (Untranslatable) नहीं होती बल्कि 'कम' या 'अधिक' अनुवाद योग्य होती हैं। इसीलिए समतुल्यता स्त्रोत  भाषा तथा लक्ष्य भाषा के मूल पाठों तथा स्थिति-संदर्भों के कुछ समान प्रासंगिक लक्षणों के संबंध पर निर्भर करती हैं।
    मूल रचनाओं में जो अनुवाद-योग्यता निहित होती है, उसकी खोज बेंजामिन-जैसे चिंतक की चिंता का एक मुख्य विषय थी। अनुवादित होने की योग्यता अनेक रचनाओं की विशिष्ट गुणवत्ता होती हैं। बेंजामिन के अनुसार अनुवाद जितना रचना के जीवन से संबंधित होता है उतना ही उसके परवर्ती  जीवन से भी, क्योंकि मूल हमेशा अनुवाद का अग्रज होता है। मूल रचना की लगातार अनेक जिन्दगियाँ होती हैं, जिनके यश को अनुवाद चिह्यित करते चलते हैं मूल की अन्तर्वस्तु के स्थानान्तरण या सम्प्रसारण से अनुवाद बहुत अधिक होते हैं। वे मूल का यशो जीवन होते हैं। अनुवादों में मूल रचना अपना कायाकल्प करती रहती है, नवजीवन, नवपरिधान, नव रूप-रस-गंध से युक्त होती रहती हैं। इसीलिए शायद अनुवाद को वाल्टर बेंजमिन ने साहित्य का परवर्ती  जीवन (Afterlife of Literature) बहुत सोच समझकर कहा होगा।4  मूल रचना के सभी पक्षों में अनुवादनीयता नहीं होती और ऐसे पक्षों को अनुवादक को मानना पड़ता हैं। वाल्टर बेंजमिन का कहना था कि जितने ऊँचे स्तर की रचना होती है उसमें उतनी ही अधिक अनुवादनीयता की सम्भावना भी छिपी होती हैं। 5 काव्यानुवाद के संदर्भ में अनुवादनीयता का प्रश्न अनुवादकों के लिए सदैव से एक कठिन समस्या रहा है परन्तु अब भाषागत संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद काव्यानुवाद में अनुवादनीयता से संबंधित कई प्रश्नों के समाधान निकाले जा सकते हैं। बशर्त है कि अनुवादक को  दोनों भाषाओं के संस्कारों की समान जानकारी हो !
संदर्भ-
1. दे. अनुवाद समीक्षा (1998) , डॉ. सी.अन्नपूर्णा, पृ-27
2. Language is a formal structure- a code which consists of elements which can combine to signal semantic 'sense' and at the same time a communication system which uses the forms of the code to refer to entities (in the world of the sense & the world of the mind) and create signals which possess communicative value. -Roger j.Bell : translation & translating theory and practice (1991) p.-6-7.
3. अनुवाद समीक्षा, डॉ.सी.अन्नपूर्णा, पृ-34
4. Illumination 1970 by walter Benjamin,Ed : Hannah a Rendt, Tr : Harryzohn, p-71
5. llumination 1970 by walter Benjamin, Ed : Hannah a Rendt, Tr : Harryzohn, p-81

                                                                                                                                                                               डॉ . बलविंदर कौर