गुरुवार, 17 मार्च 2011

लघु कथा की विस्तृत मीमांसा

लघुकथा वर्तमान में एक सशक्त साहित्य-विधा के रूप में स्थापति है !आम पाठक की रूचि लघुकथाओं में बनी है। जिससे की लघुकथाओं को लेकर कई पुस्तकें बाजार में आ रही है। लघुकथा क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार के कथ्य-बीज की संक्षिप्त फलक पर शब्दों की कूँची और शिल्प से तराशी गई प्रभावी अभिव्यक्ति है। एक पंक्ति में कहें तो क्षण में छिपे जीवन के विराट प्रभाव की अभिव्यक्ति ही लघुकथा है। कथ्य, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद, उद्देश्य ये सब लघुकथा के ही मूल तत्व हैं। लघुकथा जीवन की विसंगतियों से उपजी तीखे तेवर वाली सुई की नोक जैसी विधा है। जो दिखने में छोटी मगर गहरे प्रभाव वाली होती है। लघुकथा लेखन के लिए लेखनी के साथ-साथ अवलोकन क्षमता का पैना होना जरूरी है। वैसे तो हर साहित्यिक विधा मेहनत माँगती है लेकिन लघुकथा अधिक क्षमसाध्य है क्योंकि लेखक से अधिक चौकस व चौकन्ना होने की माँग इसमें अधिक होती है। लघुकथा सामाजिक प्रश्नों का उत्तर देने के साथ-साथ जीवन के शाश्वत मूल्यों से भी जुड़ी है। लघुकथा अपनी संक्षिप्तता, सूक्ष्मता एवं सांकेतिकता में जीवन की व्याख्या को नहीं वरन् व्यंजना को समेट कर चलती है। कोई विषय लघुकथा के लिए वर्जित नहीं हैं, लेकिन विषय-चयन से अभिव्यक्ति तक की यात्रा चुनौतीपूर्ण है। लघुकथा में वर्णन और विवरण का अवकाश नहीं होता ; वरन् विश्लेषण, संकेत और व्र्यंजना से काम चलाया जाता है अतः रचना को धारदार बनाने के लिए भाषिक संयम की नितांत आवश्यकता है। जहाँ कई वाक्यों की बात कम से कम वाक्यों में कहीं जा सके, कथन स्फीत न होकर संश्लिष्ट हो ; वहाँ भाषिक संयम स्वतः आ जाएगा।

समकालीन हिंदी लघुकथा जिन दिनों अन्य विधाओं की तरह अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए जूझ रही थी, जिन दिनों समकालीन तेवर की लघुकथाएँ न तो यथेष्ट-संख्या में उपलब्ध थीं और न ही तत्संबंधी आलोचनापरक लेख आदि अन्य सामग्री विपुल मात्रा में उपलब्ध थी। ऐसे समय में राजस्थान के अज़मेर शहर की निवासी डॉ. शकुन्तला किरण अपने रचनात्मक लेखन के साथ-साथ लघुकथा विधा के कई पक्षों पर आलोचनात्मक लेख व पुस्तक साहित्य को प्रदान करने की ओर उन्मख हुई। डॉ.शकुन्तला किरण की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि वे पहली शख्सियत है, जिन्होंने सर्वप्रथम 'लघुकथा' विधा पर पी.एच.डी शोध प्रबंध प्रस्तुत किया। वह शोध प्रबंध ही 2009 'लघुकथा' शीर्षक ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ जिसका अब दूसरा संस्करण (2010) भी आ गया है। इस ग्रंथ में 'लघुकथा' की सैद्धांतिकी गठित करने के साथ-साथ गत शताब्दी के आठवें दशक के लघुकथा अंकों का मूल्यांकन भी किया गया है।

आकार में लघुता के कारण ही नहीं, बल्कि इस विधा के स्वरूप से अनभिज्ञ, कई रचनाकारों की दृष्टि में 'लघुकथा' का अर्थ, किसी भी प्रकार की लघु आकारीय गद्य रचना से रहा हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं, लघुकथा-संग्रहों व संकलनों तथा विशेषांकों आदि में 'लघुकथा' स्तम्भ एवं शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित लघुकथाओं में लघुकथा के नाम पर गद्य के विविध रूप उदाहरणतः देश भक्ति प्रसंग, कक्षा-संक्षेप, पैरोडी, किंवदंती, पुराण खण्ड-अंश, उपन्यास-अंश, घटना, व्यंग्य कथा, प्रेरक प्रसंग आदि-आदि जाने-अनजाने में प्रस्तुत किए जाते रहे यद्यपि लेखिका के अनुसार इन सबसे लघुकथा शब्द की व्याप्ति एवं प्रचार-प्रसार में तो सहयोग ही मिला किंतु इस विधा को लेकर जो भ्रामक दृष्टिकोण बने उसे इस शोधपूर्ण पुस्तक में बड़े ही तार्किक संतुलन के साथ स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। लेखिका ने इस पुस्तक के आधार पर लोकप्रचलित इस धारणा कि- लघु आकारीय गद्य में कुछ भी कह देना लघुकथा है, को खण्डित करने का उपक्रम किया है।

 लेखिका की स्पष्ट मान्यता है कि -" हिंदी कथा-साहित्य के बीच लघुकथा ने हर दृष्टि से आज जो विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है, उसका श्रेय अस्सी के दशक में युवा-रचनाकारों द्वारा किए गए विभिन्न सृजनात्मक प्रयासों को दिया जाना चाहिए।" उन्होंने आठवें दशक को अन्य पूर्वोत्तर दशकों से कथ्य और शिल्प दोनों की दृष्टि से श्रेष्ठ माना है। सर्वप्रथम 'सारिका' के माध्यम से कमलेश्वर  की भूमिका को लघुकथा की रचनात्मक पृष्ठभूमि का आधार बनाया गया है। इस बहु-प्रसारित व्यावसायिक पत्रिका में लघुकथाएँ, उससे संबंधित आलेख, चर्चा-गोष्ठियाँ, रपट जैसी सामग्री प्रकाशित होने के कारण  ही बहुल-पाठक वर्ग ने लघुकथा की शक्ति को पहचाना।

हिंदी लघुकथा की रचनात्मक-पड़ताल के लिए डॉ. शकुंतला के दृष्टि-पटल पर देश ही नहीं विदेश की परम्परा भी बीज-रूप में विद्यमान रही है और इसीलिए ख़लील जिब्रान का उल्लेख करते हुए वे उन प्रसंगों को विशेष रूप से रेखांकित करती हैं जो लघुकथा के रचनात्मक-तेवर की वजह से तात्कालिक व्यवस्था के लिए ख़तरनाक साबित हुए। सन् 1965 में अज्ञेय, राजेन्द्र यादव और उनकी समूची पीढ़ी 'यहाँ और इसी क्षण' पर केन्द्रित 'एक क्षण के चित्र' को कहानी कह रही थी, नई पीढ़ी के कतिपय कथाकार उसी 'एक क्षण के चित्र' को निहायत ईमानदारी, श्रय और कथात्मक बुद्धिमत्ता के साथ लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने का कौशल दिखा रहे थे। कहानी के कभी इस तो कभी उस आन्दोलन में दशकों तक तत्कालीन कथा-पीढ़ी उसके परम्परागत स्वरूप के बारे में आतंरिक अस्वीकृति को वक्तव्यों से यदा-कदा ही कथात्मक अभिव्यक्ति दे पा रही थी और ऐसे में वरिष्ठ आलोचकों की अस्वीकृति व उदासीनता से आहत हो उस दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रही थी। लेकिन उसी समय लघुकथा से जुड़े कथाकारों ने ऐसी प्रत्येक अस्वीकृति और उदासीनता का सामना बेहद धैर्यशीलता के साथ रचनात्मकता से जुड़े रहकर किया और विधा को सँवारने, सर्वमान्य-सम्मान्य बनाने व पूर्व पीढ़ी को इस धारा से जोड़े रखने में सफल रहे। अर्थात् कहानी के क्षण केन्द्रित तत्व को इन लघुकथा रचनाकारों ने लघुकथा के रूप में प्रतिफलित किया।

लघुकथा को उच्च-स्तर पर प्रसारित करने का श्रेय हिंदी कहानी के कथ्य को प्रेमचंदपरक कथ्य से आगे सरकाने की साहसपूर्ण, सक्रिय और सकारात्मक पहल करने वाले कथाकारों में कमलेश्वर  को जाता है जिन्होंने कहानी के जड़-फार्म को तोड़ने की आवश्यकता का आभास कराने की पहल करते हुए 'सारिका' के कई अंकों को लघुकथा-बहुल अंक के रूप में प्रकाशित किया।

विवेच्य पुस्तक में अनर्गल विरोधों की संघर्ष-यात्रा के अंतर्गत हुए इस विधा के पूर्णउदय की स्थितियों-परिस्थितियों, इसके स्वरूप-निर्धारण, अन्य विधागत अंतर, वर्गीकरण, जीवन-मूल्य, विशेषताओं, व्याप्ति व निरंतरता आदि का तथ्यपरक रेखांकन किया गया है।

संपूर्ण प्रकाशित संग्रह को पाँच अध्यायों में क्रमबद्ध रूप से विभाजित किया गया है। सभी अध्यायों के आरंभ से पूर्व उक्ति रूप में लेखिका ने कुछ महत्वपूर्ण वाक्य लघुकथा के संदर्भ में प्रसंगानुसार उदधृत किए हैं। लेखिका ने अत्यधिक शोधपूर्ण पद्धति से हिंदी लघुकथा के युगीन प्रभावों, अर्थ, परिभाषा आदि से लेकर उसके वर्गीकरण व उसकी विशेषताओं तक को एक आलोचनात्मक उद्देश्यपरक रूप में रेखांकित किया है।

स्वातंत्र्योत्तर परिवेश में समाज कई विषमताओं, विसंगतियों से गुजरते हुए हतप्रभ हो गया। राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों की जटिलताओं के चक्रव्यूह में व्यक्ति फँसता चला गया किन्तु उसकी जिजीविषा उसे इन संघर्षों से जूझ सकने का बल एवं साहस देती रही और जीवन जैसा भी है उसे जीने के लिए उसका मोह उसे बाध्य करता रहा, जिसे उसने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त करना आरंभ कर दिया। अतः जीवन-यात्रा में हुए विविध अनुभवों के अंतर्गत बाह्र एवं आन्तरिक संघर्षों के क्षणों को वाणी देने के लिए अभिव्यक्तिकरण की दिशा में अपने भटकाव के मध्य एक रास्ता पा लेने की छटपटाहट ने नई पीढ़ी को उपन्यासों-कहानियों की भीड़ से निकालकर खुले मैदान में ला खड़ा किया, जहाँ वह घुटन से मुक्त हो खुली साँस ले सके, इस घुटन से मुक्ति पाने की यात्रा में उसे सर्वप्रथम आवश्यकता हुई-अभिव्यक्ति के किसी ऐसे माध्यम की जो उसके खण्ड-खण्ड जीवन की जटिलताओं एवं संघर्षों के बीच गुजरती सूक्ष्मतर संवेदनाओं को व्यक्त करने में समर्थ हो सके, जो हर गलत व्यवस्था पर प्रहार करने एवं नए सार्थक-मूल्यों के लिए भूमि तैयार कर सकने में उसकी सहायक सिद्ध हुई-आधुनिक अथवा समकालीन हिंदी लघुकथा।

समकालीन हिंदी 'लघुकथा' का शाब्दिक अर्थ- "लघु आकारीय गद्य कथात्मक रूप में, जीवन के किसी प्रभावी क्षण, मनः स्थिति या विचार, घटना की वह पैनी अभिव्यक्ति जो अपने प्रकर ताप से पाठकों को प्रभावित कर उनकी चेतना को उद्दीप्त कर सके तथा उन्हें कोई गम्भीर चिंतन-बीज सौंप सकें।"( पृ-21)  लेखिका ने बड़े ही वैज्ञानिक, तार्किक ढंग से विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई लघुकथा की परिभाषाओं तथा उसके आकारीय रूप तथा पुरानी कथाओं, लोककथाओं, कहानी-उपन्यास से उसके अंतर को उदाहरणों के माध्यमों से भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है। लघुकथा का उद्देश्य प्राचीन व लोककथाओं के उद्देश्य की तरह शिक्षात्मक या मनोरंजनात्मक नहीं है व उपन्यास संपूर्ण जीवन का, कहानी जीवन के किसी खण्ड का और लघुकथा, खण्ड के किसी प्रभावी क्षण का चित्र है। उपन्यास की अपेक्षा कहानी में अनुभूति ताप का घनत्व अधिक प्रखर होता है और कहानी की अपेक्षा लघुकथा में और भी अधिक ; क्योंकि अधिकाधिक सूक्ष्म या छोटे होते जाते बिंदु आकार की अनुभूति भी घनीभूत होती चली जाती है। " कहानी में प्रायः एक से अधिक मनः स्थितियाँ परस्पर गुँथी रहती हैं अतएवं उनमें से किसी एक सूक्ष्मतर स्थिति का अलग से स्वतंत्र अस्तित्व या विशिष्ट प्रभाव नहीं होता अपितु सभी का समन्वित रूप से कुल-प्रभाव होता है जबकि लघुकथा के माध्यम से वही स्थिति अपना चरम निखार प्राप्त कर सकती है।" (पृ-27) लेखिका ने जोर देकर कहा है कि कुछ पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा के नाम पर कहानियों का सार-संक्षेप भी मिलता है, जिन्हें लघुकथा नहीं माना जा सकता है।

लेखिका ने सोदाहरण प्रतिपादित किया है कि कहानी में सभी तरह के कथानक बुने जा सकते हैं लेकिन लघुकथा में ऐसा कम सम्भव हो पाता है। चरित्र-चित्रण, कथावस्तु का एक महत्वपूर्ण अंग होता है किन्तु लघुकथा में इसका प्रायः अभाव दिखाई पड़ता है। इसमें चरित्र के किसी एक पहलू का मात्र आभास ही होता है, पूर्ण चित्रण नहीं। किसी भी साहित्यिक विधा के लिए भाषा एक पुल है जिसके माध्यम से रचनाकार अपना कथ्य पाठक व श्रोता तक सम्प्रेषित करता है। लघुकथा की भाषा किसी एक विशेष धरातल पर विद्यमान न होकर एकरस नहीं अपितु विविधोन्मुखी होती है। उसमें विविध भंगिमाएँ हैं। वह व्याकरण-सम्मत या आभिजात्य-वर्ग की सुसभ्य अथवा टकसाली भाषा न होकर जनसामान्य के दैनिक जीवन की बोलचाल की सहज व स्वाभाविक सीधी-सादी भाषा है।

लघुकथा की शैली पर विचार करते हुए लेखिका ने शैलीगत विविधता पर काफी बल दिया है। प्रत्येक लघुकथाकार ने अपनी-अपनी अलग शैली विकसित की है। लघुकथा का उद्देश्य परम्परागत निरर्थक खोखले जीवन-मूल्यों पर प्रहार कर नवीन सार्थक जीवन-मूल्यों के लिए भूमि तैयार करना तथा सामाजिक विसंगतियों-विकृतियों एवं व्यक्ति की बाह्र व आन्तरिक जटिलताओं की ओर संकेत करना है। लघुकथा प्रायः समस्याजनक स्थिति की ओर संकेतात्मक अभिव्यक्ति देकर ही मौन हो जाती है और अप्रत्यक्ष रूप में समाधान के लिए उत्प्रेरित करती है। उसमें स्थितियों का निदान लेखक द्वारा आरोपित या सुझाया गया कम और प्रत्येक पाठक द्वारा खोजा गया अधिक होता है। अगर यह कहा जाए कि लघुकथा का खुला अंत दूर पाठक को उसका अपना उप-पाठ रचने की सुविधा देता है, तो इसमें कोई अनौचित्य नहीं होगा।

लघुकथा और बोधकथा के अंतर को भी लेखिक ने बखूबी स्पष्ट किया है। जहाँ बोध-कथाओं में नैतिकता, शिक्षा, आदर्श, उपदेश आदि की प्रधानता होती है अतः वे शिक्षक या उपदेशक का काम करती हैं, वहीं समकालीन लघुकथा इन प्रयोजनों से दूर है। उसका लक्ष्य तो व्यक्ति को व्यवस्था के विकृत रूप से परिचित करा उसे 'सही' करने के प्रति व्यक्ति को कुछ सोचने हेतु बाध्य करना है। लघुकथा और चुटकुला या लतीफा में भी काफी अंतर है। चुटकुले क्षणिक मनोरंजन प्रदान करते  हैं। पाठक या श्रोता को गुदगुदाने, हँसाने व चौंकाने की क्षमता भी रखते हैं किन्तु लघुकथा गुदगुदाती नहीं, वह पाठकीय चेतना पर प्रहार कर उसे किसी समस्या पर कुछ सोचने के लिए बाध्य करती है।

इस प्रकार लघुकथा या कहानी, बोधकथा, भावकथा, चुटकुला, लतीफा आदि विधाओं से भिन्न गद्य-कथात्मक साहित्य  की एक स्वतंत्र इकाई है। "लघुकथा  कहानी नहीं है परन्तु इसका संबंध कहानी से उतना ही है जितना एकांकी का नाटक से है ; लघुकथा कविता नहीं है परन्तु कविता की तीव्र संवेदना इसमें निहित है ; लघुकथा एकांकी नहीं है लेकिन इसके संवाद कथानक का विस्तार करके इसकी संप्रेषणीयता बढ़ाते हैं ; लघुकथा रेखाचित्र नहीं है, परंतु इसमें पात्र की विवशता में कमजोरी और असफल पक्ष को भा उद्घाटित किया जाता है।" (पृ-48)

लेखिका ने हिंदी व उर्दू के अतिरिक्त अन्य प्रादेशिक भाषाओं यथा-कन्नड़, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, बँगला, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, कश्मीरी, मलयालम, सिंधी आदि भाषाओं में उपलब्ध लघुकथाओं का ब्यौरा प्रस्तुत किया है जो तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत उपादेय है। लेखिका ने यह भी दर्शाया है कि आठवें दशक में हिंदी के अतिरिक्त अन्य सभी प्रादेशिक भाषाओं में 'लघुकथा' को एक स्वतंत्र विधा मानकर उसे उस रूप में गम्भीरता से नहीं लिया गया जिस रूप में उसे हिंदी में लिया गया। साथ ही विदेशी लघुकथाओं पर भी लेखिका ने चर्चा की है और यह स्थापित किया है कि आठवें दशक के अंतर्गत आधुनिक हिंदी लघुकथा ने अपने लघु कलेवर, सूक्ष्म व एकांगी कथ्य, सहजता, तीव्रता, बोधक क्षमता सम्प्रेषणीयता एवं प्रखर प्रभावोत्पादकता के कारण सहज ही अपनी पृथक पहचान बनाई।

आधुनिक हिंदी लघुकथा के उद्भव और विकास की पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए लघुकथा की प्राचीन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में कथाओं से लघुकथा के अंतर, प्राचीन काल की लघुकथाओं का वर्गीकरण, विवरण, मूल्यांकन के अतिरिक्त मध्यकालीन लघुकथाओं की स्थिति, तत्पश्चात् आधुनिककाल (सन् 1970 के बाद) में हिंदी लघुकथा के उदय व आठवें दशक तक उसकी विकास-यात्रा का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। लेखिका की मान्यता है कि- "आधुनिक हिंदी लघुकथा का उदय सन् 1970 के बाद हुआ। इस संदर्भ में बलराम अग्रवाल के हवाले से कहा गया है कि मई, 1971 की 'सारिका' में विवेकीराय की 'मकड़जाल' हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। इसके बाद शुरू होता है-लघुकथा का नवोन्मेष....एक पूरा आंदोलन...।" (पृ-101-102) कई जगहों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं ने लघुकथा अंक निकाल कर इसके महत्व व प्रासांगिकता को रेखांकित किया। इलाहाबाद, जालंधर, रतलाम, हरियाणा, अजमेर, गजियाबाद, कलकत्ता, बाँदा, मध्यप्रदेश, मथुरा, इन्दौर, बरेली, लखनऊ आदि कई स्थानों से विविध पत्रिकाओं से लघुकथा अंक निकले जिनसे लघुकथा क्षेत्र बहुदीप्त  हुआ।

लघुकथा आंदोलन से पूर्व की लघुकथाओं के रूप में जयशंकर प्रसाद के 'प्रतिध्वनि' से लेकर के श्यामनन्द शास्त्री के 'पाषाण के पंछी' आदि प्रमुख संग्रहों की रचनाओं का कथ्य नीति-बोधपरक, आदर्श-उपदेशपरक है जो शिक्षात्मक प्रयोजन को लेकर चलती हैं, साथ ही शिल्प एवं प्रभाव की दृष्टि से भी आधुनिक हिंदी लघुकथा की तुलना में अप्रभावी हैं। लेखिका की इस मान्यता से मतभेद नहीं हो सकता कि इस समय की लघुकथाएं उत्कृष्ट, दार्शनिक एवं प्रेरक लघुकथाएँ तो हैं जो अपना साहित्यिक मूल्य भी रखती है तथा विशिष्ट वैचारिक धरातल भी देती हैं किन्तु समाज में व्याप्त असंगतियों, भ्रष्टाचार एवं खोखली मान्यताओं पर चोट करने में वे असमर्थ हैं।

लेखिका ने आठवें दशक की लघुकथाओं को अपने शोध का आधार बनाकर, आठवें दशक को ही लघुकथा विधा का सबसे विकसित रूप घोषित किया। आठवें दशक के आरम्भ 1971 में आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र का लघुकथा-संग्रह 'ऐतिहासिक लघुकथाएँ' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में वैसे आदर्शात्मक-शिक्षाप्रद प्रेरणा देने की क्षमता है किन्तु यह संग्रह आधुनिक लघुकथा के उद्देश्यों से दूर है। सन् 1974 में डॉ.सतीश दुबे का 'सिसकता उपास' कथा संग्रह प्रकाशित हुआ जिसमें 34 कथाएँ-लघुकथाएँ है। अपने विशिष्ट कथ्य और शिल्प में इनकी लघुकथाएँ सोच के नए धरातल उजागर करती है।

रामनारायण उपाध्याय के लघुकथा संग्रह 'नया पंचतंत्र' (1974) की लघुकथाओं का मूल स्वर व्यंग्य का है किन्तु वह व्यंग्य बहुत अधिक प्रभावी व पैना नहीं बन पाया। लघुकथाओं का कथ्य नेताओं, मन्त्रियों आदि के भ्रष्ट आचरण, स्वार्थपरता, पद-लोभ तथा सामाजिक पारिवारिक विसंगतियों आदि से संबंधित है। भाषा बहुत सादी, चमत्कार से रहित है। सन् 1975 में कृष्ण कमलेश का संग्रह 'मोहभंग' वैद्य शरद कुमार मिश्र 'शरद' का लघुकथा-संग्रह 'निर्माण के अंकुर' तथा मई 1977 में श्रीराम ठाकुर 'दादा' का लघुकथा-संग्रह 'अभिमन्यु का सत्ता व्यूह' प्रकाशित हुआ। दादा के संग्रह में 21 लघुकथाएँ हैं। आमुख हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित है। इन संग्रहों में अधिकतर व्यंग्य लघुकथाएँ है। इस समय के काल खण्ड में अधिकांश लगुकथाएँ पौराणिक प्रतीक के माध्यम वर्तमान राजनीति के भ्रष्टाचार पर व्यंग्य करती हैं। सन् 1976 में डॉ. सतीश दुबे एवं सूर्यकांत नागर द्वारा संपादित संकलन 'प्रतिनिधि लघुकथाएँ' प्रकाशित हुआ। इनमें 15 रचनाकारों की 78 लगुकथाएँ संकलित हैं। लघुकथाओं में मानवीय संवेदनशीलता का ह्यास, खोखले संबंध, नोताओं एवं अफसरों के ढोंग एवं दंभ, कथनी और करनी में अंतर, ओढ़े गए मुखौटे आदि कथ्य उजागर किए गए हैं। दिनेशचन्द्र दुबे की 'दर्शन' में आधुनिक सभ्यता के रेशमी पर्दे पर पुराने संस्कार के टाट के पैबंध लगाकर गर्वित होने वाले एक अफसर के दंभ पर चोट की गई है। 'एक चित्र : दो रूप, 'मास्टर और लालफीता,' 'एक टेम की रोटी' आदि भी प्रभावोत्पादक लघुकथाएँ है। इन लघुकथाओं के संदर्भ में प्रकाश (प्रकर ; दिसबंर 1977) के अनुसार- " 'प्रतिनिधि लघुकथाएं' में जिन्दगी से जुड़ी स्थितियाँ बल्कि स्वयं जिंदगी के उठाकर रखे गए टुकड़े हैं जिनमें आज के मानव की संवेदनशीलता, ह्यास, नेताओं के पाखण्ड, अफसरों के दम्भ और मातहतो पर पलने की मुफ्तखोर-प्रवृत्ति, कथनी-करनी की खाई, अंदरूनी हकीकत को ढँकने के लिए ओढ़् गए मुखौटे आदि जीवंत रूप में प्रस्तुत किए गए है।"(पृ-152-153)

सन् 1977 में शंकर पुणताम्बेकर के संपादन में 'श्रेष्ठ लघुकथाएँ' संकलन प्रकाशित  हुआ जिसमें लगुकता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है तथा बलराम द्वारा लिखित लेख 'हिंदी लघुकथा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि' भी लघुकथा-पुस्तकों की जानकारी देता है। इस संकलन की लघुकथाओं में कथ्य की दृष्टि से राजनीतिक, सामाजिक, मानसिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में व्याप्त विकृतिओं को समेटा गया है किंतु इसमें राजनीतिक प्रसंग ही मुख्य रूप से उभरे है। पौराणिक पात्रों को भी आधुनिक परिवेश व प्रसंगों में चित्रित कर दिखाया गया है। 1977 में ही नरेन्द्र मौर्य व नर्मदा प्रसाद उपाध्याय द्वारा संपादित संकलन 'समान्तर लघुकथाएं' प्रकाशित हुआ जिसमें 46 रचनाकारों की 52 लघुकथाएँ हैं तथा अंत में बलराम का लेख 'हिंदी लघुकथा का विकास' है। इस संकलन में जहाँ कई अच्छी लघुकथाएँ है वहीं लघुकथा के नाम पर कहानी, लेख, रिपोर्ताज, लतीफा, आत्मकथा, क्षणिकाएं आदि को भी सम्मिलित कर लिया गया है।

सन् 1978 में संकलन 'छोटी-बड़ी बातें' प्रकाशित हुआ। इसमें 72 रचनाकारों की 82 लघुकथाएँ हैं तथा 'किताब से पहले' (प्रस्तावना : अवधनारायण मुद्गल ) ' हिंदी लघुकथा : शिल्प और रचनाविधान' (महावीर प्रसाद जैन) 'हिंदी लघुकथा : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में' (जगदीश कश्यप) आदि अत्यंत महत्वपूर्ण लेख हैं जो लघुकथा की विकास यात्रा एवं उसके शिल्प और रचनाविधान पर प्रामाणिक तथ्य प्रस्तुत करते हैं। 'छोटी-बड़ी बातें' के बाद प्रभाकर आर्य के संपादन में 'युगदाह' लघुकथा-संकलन प्रकाशित हुआ। इसमें 39 रचनाकारों की 110 लघुकथाएँ हैं तथा प्रो.कृष्ण कमलेश व भगीरथ का संयुक्त लेख-'लघुकथा का रचना संसार : इतिहास और सर्वेक्षण' है जो बहुत महत्वपूर्ण एवं तथ्यपरक है। पुष्पलता कश्यप का लेख 'लघुकथा : एक सिंहावलोकन' भी है। कुछ लघुकथाओं में साहित्यिक राजनीति पर भी अच्छा व्यंग्य किया गया है। संकलन की लघुकथाएँ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विसंगतियों व व्यक्ति के छल-छद्म को प्रभावशाली ढंग से उकेरती हैं।
 
सन् 1979 में डॉ. सतीश दुबे के संपादन में 'आठवें दशक की लघुकथाएँ' संकलन प्रकाशित हुआ। इसमें 36 रचनाकारों की 89 लघुकथाएँ है तथा संपादकीय वक्तव्य के साथ इस शकुंतला किरण का विस्तृत लेख ' कथा-लेखन का एक और पिरामिड' है। इस संकलन में पाँचवें दशक से लगातार लिख रहे-रावी, विष्णु प्रभाकर, रामनारायण उपाध्याय, डॉ. ब्राजभूषण सिंह 'आदर्श', डॉ. श्याम सुन्दर व्यास तथा मनमोहन मदारिया की इसी दशक में लिखी गई लघुकथाएँ भी संकलित हैं। सन् 1980 में मधुदीप एवं मधुकांत के संपादन में 'तनी हुई मुट्ठियाँ' संकलन प्रकाशित हुआ इसमें 50 रचनाकारों की 100 लघुकथाएँ हैं तथा मधुदीप का एक लेख 'लघुकथा : एक विहंगम दृष्टि' भी।
 
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों ने भी लघुकथा आंदोलन को विस्तार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी लघुकथा विशेषांकों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. लघुकथा-केन्द्रित पत्रिकाएँ 2. पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा-विशेषांक 3. समाचार-पत्रों के लघुकथा-विशेषांक। कुलमिलाकर आठवें दशक में प्रकाशित हिंदी लघुकथा साहित्य के अंतर्गत लगभग 10 लघुकथा संग्रह और 9 लघुकता-संकलनों के अलावा 38 लघुकथा-विशेषांक उपलब्ध होते है। साथ ही देश की लगभग 150 विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथाओं का प्रकाशन मिलता है।
 
हिंदी लघुकथा की विशेषताओं, व्याप्ति एवं निरन्तरता पर विचार करते हुए लेखिका ने लघुकथा की कथ्य, शिल्प व प्रभावगत विशेषताओं की ओर इंगित किया है। लघुकथा की कथ्यगत विशेषताओं में गंभीरता, यथार्थपरकता, प्रखरता, सूक्ष्मता, स्पष्टता, पैनापन एवं जुझारूपन आदि प्रमुखतः उल्लेखनीय है। लघुकथा का कथ्य आदर्शात्मकता व उपदेशात्मकता से रहित है। यह जीवन की सच्चाइयों से साक्षात्कार कराती है। 'जहाँ जो जैसा है' - लघुकथा उसे वैसा ही चित्रित प्रस्तुत नहीं करती। चूँकि लघुकथा शिक्षात्मक या आदर्शात्मक उद्देश्य को लेकर नहीं चलती इसीलिए इसके कथ्य में आदर्श, नीति, बोध, उपदेश आदि की बोझिलता नहीं होती। अतः ऐसे में लघुकथा के कथ्य का आदर्शात्मक उपदेशात्मक प्रवृत्ति से रहित होना उसकी एक अन्य विशेषता है। इसके अतिरिक्त 'देखन में छोटे लगै घाव करैं गम्भीर' वाले रूप में कथ्य का पैनापन लघुकथा की एक और प्रमुख विशेषता है।
 
शिल्पगत विशेषताओं के रूप में लघुकथा में कुछ प्रमुख उल्लेखनीय तथ्य हैं। इसमें-आकारीय लघुता, कसावट भाषागत सादगी, सहजता व स्वाभाविकता, संकेतात्मक, अर्थगर्भी अभिव्यक्ति, संप्रेषणीयता, उद्देश्य की एकाग्रता आदि प्रमुखत : उल्लेखनीय है। लेखिका ने कई लघुकथाओं के उद्धरण देकर अपने मत को बखूबी परिपुष्ट किया है।
 
इसके अलावा हिंदी लघुकथाओं का वर्गीकरण करते हुए उनकी विशेषताओं एवं उनमें निहित जीवन-मूल्यों का लेखिका ने विशद विवेचन किया है। लघु विधा में भी पात्रगत विशेषताओं व जीवन-मूल्य के संदर्भ को विश्लेषित करना सचमुच महत्वपूर्ण है। इससे यह साफ हो सका है कि हिंदी लघुकथा ने भी अपने सामयिक स्थिति-परिस्थिति-सापेक्ष युगबोध को उकेरा है। देश में राजनीतिक उथल-पुथल के अंतर्गत सन् 1977 में जब सत्ता में आमूल परिवर्तन हुआ और देश में पहली बार विरोधी पक्ष को सत्तारूढ़ होने का अवसर मिला तो शासकीय नीतियों-रीतियों में बदलाव स्वाभाविक था और इस बदलाव से लघुकथा भी अप्रभावित नहीं रही। पारिवारिक लघुकथाओं से लेकर के सामाजिक, राजनीतिक, प्रतीकात्मक, विचारप्रधान, हास्य-पैरोडीपरक, धार्मिक, ऐतिहासिक-पौराणिक लघुकथाएँ पूरे आठवें दशक में सामाजिक कथ्य को लेकर लिखी गई।
 
आठवें दशक की हिंदी लघुकथाओं में विशेषकर सामान्य मानवीय पात्र ही अधिक मिलते हैं, असामान्य, काल्पनिक, अति-आदर्शवादी, त्यागी, सिद्ध, चमत्कारी एवं अति-मानवीय पात्र बहुत कम संख्या में दिखाई देते है। प्रतीकात्मक लघुकथाओं के पात्र प्रकृति, पशु-पक्षी, भाव, विचार एवं अन्य जड़ पदार्थ आदि भी रहे हैं। ये पात्र चाहे किसी भी वर्ग से संबंधित रहे हों, अपने माध्यम से वर्तमान युगबोध-सापेक्ष जन-सामान्य की मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व करते हैं तथा पाठक के समक्ष खड़े होकर अपने अंतर के छल-छद्म को बिना लाग-लपेट के सीधे उजागर कर देते हैं। इन लघुकथा-पात्रों की कुछ प्रमुख विशेषताएँ है-"अपने अंतर के सच को उजागर करना, जुझारुपन, परम्परागत जीवन-मूल्यों का अस्वीकार, साहसिकता, आदर्शपरकता से दूर, निर्भीकता, स्वाभिमान-विद्रोहात्मक प्रवृत्ति, स्वार्थपरता, अर्थ लोलुपता, मक्कारी आदि।"(पृ-256) इस प्रकार हिंदी लघुकथाओं में चित्रित जीवन मूल्यों का भी लघुकथाओं के उदाहरण सहित ब्यौरा प्रस्तुत करने का सफल प्रयास लेखिका ने किया है। उन्होंने यह भी दर्शाया है कि लघुकथाओं में परम्परागत जीवन-मूल्यों का अस्वीकार मिलता है। लघुकथाकारों ने उन्हीं क्षणों को चित्रित किया है, जो उनका देखा-भोगा हुआ है तथा जिन मूल्यों में वह जीता है, जिन्हें भोगता है। "लघुकथा ने जहाँ एक ओर पारम्परिक मूल्यों पर आघात किया है उनका उपहास उड़ाया है वहीं दूसरी और नए जीवन-मूल्यों के लिए भूमि भी तैयार की है।"(पृ-267)
 
कुलमिलाकर इसमें संदेह नहीं कि डॉ. शकुंतला किरण ने आठवें दशक की 'लघुकथाओं' के बहाने लघुकथा के विधागत स्वरूप से लेकर उसकी सैद्धांतिकी के रचनात्मक प्रतिफलन तक समग्र एवं स्वतः पूर्ण विमर्श प्रस्तुत किया है। निश्चय ही यह ग्रंथ सुधी पाठकों और शोधार्थियों के लिए अत्यंत रोचक एवं उपयोगी बन पड़ा है।         

पुस्तक - हिंदी लघुकथा
लेखिका-डॉ.शकुन्तला 'किरण'
प्रकाशक-संकेत प्रकाशन
मूल्य-395
                                                                                      समीक्षा - डॉ. बलविंदर कौर
                                                             प्राध्यापक,दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
                                                             खैरताबाद, हैदराबाद-500004

मंगलवार, 1 मार्च 2011

दूरस्थ शिक्षा पिछड़े, वंचितों व गृहिणियों तक सीमित नहीं - डॉ. भारत भूषण


धारवाड में ‘दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ पर 
राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कार्यशाला

- प्रो. दिलीप सिंह,
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई - 600 017 .

दक्षिण भारत में दूरस्थ माध्यम की शिक्षा  पर हिंदी में विचार-विमर्श  का यह पहला मौका था। देशभर में उच्चशिक्षा  को सर्वसुलभ बनाने में इस माध्यम की धाक जम चुकी है। अंग्रेजी में दूरस्थ शिक्षा की बढ़ती चुनौतियों-दिशाओं और संभावनाओं पर बातें भी होती रही हैं पर हिंदी में इन पर धारदार चर्चा धारवाड में दो दिनों की इस संगोष्ठी में 21-22 जनवरी, 2011 को की गई।


दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की ओर से आयोजित इस संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए डेक (डिस्टेंस एजुकेशन काउंसिल ) के निदेशक डॉ. भारत भूषण ने गोष्ठी की इस खासियत पर खुशी  जाहिर करते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि दक्षिण भारत के इस सुदूर स्थान पर भारत भर के इतने विद्वान जुटेंगे और हिंदी तथा हिंदुस्तान के नज़रिए से दूरस्थ शिक्षा माध्यम की परख करेंगे। भारत भूषण जी की सराहना से अभिभूत होते हुए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग के सम-कुलपति आर.एफ. नीरलकट्टी ने कहा कि ‘‘दक्षिण भारत में दूरस्थ शिक्षा माध्यम की शिक्षा  की नींव वास्तव में महात्मा गांधी ने रखी थी। गांधी जी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण के चारों राज्यों में हिंदी शिक्षण  की ‘मुक्त परंपरा’ कायम की जिसमें धर्म, जाति, आयु और लिंग का कोई स्थान नहीं था।’’ वे यह कहने में भी नहीं हिचके कि अगर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को प्रोत्साहन और सहयोग मिले तो वह दूरस्थ शिक्षा  को एक सार्थक विस्तार देने में पूरी तरह समर्थ है क्योंकि सभा के पास एक बहुत बड़ा और ‘वैलनिट’ मानव-संसाधन मौजूद है।

'दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ संगोष्ठी के आगाज़ से ही इन दोनों महानुभावों के वक्तव्यों ने उत्साह बढ़ाने वाले टॉनिक का काम किया। देश के कई हिस्सों से पधारे हिंदी विद्वानों की मौजूदगी से संगोष्ठी को आगे के सत्रों में ठोस ऊँचाई हासिल हुई। ये सभी विद्वान  कहीं-न-कहीं दूरस्थ शिक्षा के सरोकारों से जुड़े हुए हैं। इन्हें संबोधित करते हुए डॉ. भारत भूषण ने एक पते की बात और कही कि विश्वविद्यालयों  में अब दूरस्थ माध्यम शिक्षा को दूसरे दर्जे की अथवा नियमित शिक्षा से कमतर स्तर की शिक्षा समझने वाली धारणा में भारी बदलाव आया है।


स्वागत भाषण देते हुए संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने इस ओर भी इशारा  किया कि दूरस्थ शिक्षा एक प्रकार की सु-नियोजित शिक्षा है जिसमें सामग्री और तकनीक के इस्तेमाल से गुणवत्ता सिद्ध की जाती है। उन्होंने भारत में दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में इग्नू की भूमिका की सराहना करते हुए आम जन में इसकी स्वीकार्यता और बढ़ती हुई लोकप्रियता को रेखांकित किया। डॉ. भारत भूषण की यह टिप्पणी दोनों दिन बहस का मुद्दा बनी रही कि - ‘दूरस्थ माध्यम की शिक्षा  सिर्फ़ पिछड़ों, वंचितों या घरेलू स्त्रियों तक सीमित नहीं है। आज इसने वह मुकाम हासिल कर लिया है कि देश भर के युवक और युवतियाँ इसे नियमित शिक्षा  का एक बढ़िया विकल्प मानकर बड़ी संख्या में पूरे विश्वास  के साथ अपना रहे हैं। इतना ही नहीं कौशल  तथा दक्षता युक्त यह शिक्षा  पूरी करने के बाद वे पूरे आत्मविश्वास  के साथ समाज में अपनी ख़ास जगह भी बनाने लगे हैं।


दीप-प्रज्वलन, प्रार्थना, स्वागत-सत्कार की औपचारिकता से शुरू उदघाटन  सत्र का संचालन प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अपने ख़ास अंदाज में किया। धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों की प्रगति और दक्षिण भारत के हिंदी प्रेमियों की मांग को देखते हुए यह विश्वास  के साथ कहा जा सकता है कि दक्षिण में  हिंदी भाषा तथा हिंदी माध्यम की उच्च शिक्षा  की सरपरस्ती आगे आनेवाले सालों में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा ही की जाएगी।
21 जनवरी के दोनों सत्र दूरस्थ शिक्षा  माध्यम के मूलभूत आयामों पर केंद्रित थे। आज के युवा-भारत की ज़रूरतों, आकांक्षाओं और उनके सपनों को पूरा करने के लिए किन-किन दिशाओं में अपने को अग्रसर करें, कहाँ-कहाँ खुद को बदलें और किस विधि से सर्वजन सुलभ और संप्रेषणीय बनें - आदि इन दोनों सत्रों की मूल चिंताएँ थीं। भारत के कोने-कोने में दूरस्थ शिक्षा  की पहुँच हो गई हैं। ‘ड्राप आउट्स’ के लिए यह माध्यम एक वरदान है।


दूरस्थ शिक्षा  की भूमिका पर बात करते हुए डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने यह भी चेताया कि जब लोगों का विश्वास  हमें मिलता है तब हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। ‘मुक्त शिक्षा’ ने इस बात को समझा भी है और अमली जामा भी पहनाया है। वह निरंतर ‘इन्नोवेटिव’ बनी रही है। शिक्षक  और कक्षा की सीमा को इसने असीम साधनों से जोड़ कर नव्य बना दिया है। डॉ. विमल ने कहा कि जब हमारे यहाँ दूरस्थ शिक्षा  आंध्र प्रदेश, राजस्थान और इग्नू में शुरू हुई थी तो हम सोचते थे कि यह चल नहीं पाएगी; पर धीरे-धीरे हमारे जैसे लोग भी इसे उत्सुकता से देखने लगे। सच में इस शिक्षा पद्धति ने मीडिया, इन्टरनेट, कंप्यूटर, सेटेलाइट और न जाने कितने उपकरणों का उपयोग करके अपनी भूमिका को विस्तार दे दिया है। उन्होंने इस शिक्षा  की रोजगारपक प्रकृति तथा यंत्र-साधित शिक्षण  पद्धति की भूरि-भूरि सराहना करते हुए कहा कि भारतवर्ष की एक बड़ी आबादी को उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा  देने का काम करके दूरस्थ शिक्षा  ने यह उजागर कर दिया है कि उसकी भूमिकाएँ बहुमुखी हैं और जता दिया है कि यह ज्ञान प्रदान करने वाली निष्क्रिय शिक्षा  प्रणाली नहीं बल्कि बोध और कौशल  पैदा करने वाली सक्रिय शिक्षा पद्धति है।

'दूरस्थ शिक्षा : निर्बाध शिक्षा का अवसर' के नजरिए से डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा  को ‘बाधा-विहीन शिक्षा' कहा क्योंकि इसे बिना किसी रुकावट के अपनाया जा सकता है - न कहीं आने-जाने की समस्या, न हाजिरी-क्लास का बंधन। खेती, मजदूरी, नौकरी, गृहस्थी के साथ यह शिक्षा जारी रखी जा सकती है। इसकी पाठ्य-सामग्री और सहायक-सामग्री अनेक तरह के शोध-संधान के बाद खास और वैज्ञानिक प्रक्रिया से इतनी संप्रेषणीय और बोधगम्य बनाई जाती है कि शिक्षार्थी की समझ भी निर्बाध गति से सही दिशा  में विकास पा सके। डॉ. शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय के आँकड़े देकर यह तथ्य सामने रखा कि इन पाठ्यक्रमों में गृहिणियों, ऑफिस कर्मचारियों, अध्यापकों की संख्या अनुपाततः कम नहीं है। उनके शब्दों में दूरस्थ शिक्षा स्वयं में निर्बाध होने के साथ-साथ किन्हीं कारणों से बाधित हो चुकी शिक्षा को जारी रख पाने का एक सुनहरा मौका भी है।


इसी क्रम में ‘हिंदी शिक्षण में दूरस्थ शिक्षा  की भूमिका' का मसला भी कम जरूरी नहीं था क्योंकि जिस संस्था के मंच पर यह विचार-मंथन आकार ले रहा था वह दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने वाली राष्ट्रीय महत्व की संस्था का मंच था। दक्षिण भारत और विशेष रूप से केरल प्रांत में हिंदी की उच्च शिक्षा  और शोध के जो गवाक्ष दूरस्थ शिक्षा  ने खोले हैं, उनका आकलन करते हुए प्रो. सुनीता मंजनबैल ने इस बात पर विशेष  बल दिया कि दक्षिण भारत के लिए तैयार हिंदी ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) को अलग ढंग से तैयार किया जाय जैसा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय ने किया है। उन्होंने यह भी बताया कि दूरस्थ माध्यम के प्रसार से दक्षिण भारत में हिंदी अध्येताओं की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है।

पहले सत्र के आखिरी पर्चे में बी.बी. खोत ने दूरस्थ शिक्षा  के माध्यम से 'कौशल विकास' की संभावनाओं और घटकों का परिचय दिया। उनके मत में दूरस्थ शिक्षा  ‘कौशलयुक्त शिक्षा’ का सार्थक उदाहरण है। कौशल  विकास में सहायक ‘सिम लेखन की विशेष  पद्धति’, ‘प्रश्न-पत्र निर्माण’, ‘बोध-विस्तार’ आदि के उदाहरणों द्वारा श्री खोत ने यह प्रतिपादित किया कि शिक्षार्थी में कौशल  दक्षता उत्पन्न और स्थापित करना ही दूरस्थ शिक्षा का पहला और आखिरी उद्देश्य है।

दूसरा सत्र सही मायने में व्यावहारिक था क्योंकि यह सत्र पहले सत्र की प्रतिपत्तियों की परख करने वाला था। अगर दूरस्थ शिक्षा की भूमिकाओं, उसके उत्तरदायित्वों और लक्ष्यों को सर्वस्वीकार्य आयाम देने हैं तो निश्चित ही सामग्री-निर्माण, प्रश्न -निर्माण, मूल्यांकन पद्धति और परीक्षा संबंधी छात्र सुविधाओं को त्रुटिहीन, आदर्श और गुणवत्ता पुष्ट बनाना अनिवार्य होगा। ये और ऐसे ही कई मुद्दे दोपहर बाद की इस चर्चा-विमर्श  में उठे।


दूरस्थ शिक्षा  माध्यम के लिए सामग्री-निर्माण की प्रक्रिया की विशिष्टता और अधिगम संबंधी सूक्ष्मताओं की अनुकूलता पर प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने विचार किया। सामग्री परीक्षा और मूल्यांकन - इन तीनों के अंतस्संबंध को बनाए रखने को भी उन्होंने दूरस्थ शिक्षा प्रणाली की सफलता का मूलाधार बताया। बी.ए. और एम.ए. स्तर की हिंदी के ‘सिम’ निर्माण में समेटे जाने वाले सामयिक-विमर्शों  की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि नियमित पद्धति से दी जानेवाली हिंदी की उच्च शिक्षा  सामयिक संदर्भों, सभ्यता-विमर्श  तथा उत्तर आधुनिक चिंतन को स्थान देने में हिचकती है जबकि दूरस्थ शिक्षा की मुक्तता हिंदी पाठ्यक्रम को भी मुक्त और समीचीन बनाने का काम कर रही है।
अनुदेशन  सामग्री और ‘सिम’ के भेदोपभेदों को डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों धरातलों पर प्रस्तुत किया। उन्होंने इस बात की सराहना की कि दूरस्थ शिक्षा में खासकर इग्नू ने ‘सिम’ के लिखित पाठ को अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों से सप्लीमेंट करने का अथवा फ़ेस-टु-फेस शिक्षण  को सहायक बना कर इस्तेमाल करने का जो काम किया है उसने कौशलपरक शिक्षा को एकदम नया और अनूठा आयाम प्रदान कर दिया है।


डॉ. माधव सोनटक्के ने नियमित हिंदी पाठ्यक्रमों की परंपरागत प्रश्न-निर्माण एवं मूल्यांकन पद्धति पर चुटकी लेते हुए कहा कि परीक्षा और मूल्यांकन की रूढ़िबद्धता को दूरस्थ शिक्षा  ने एक हद तक तोड़ा है। प्रश्न-पत्र निर्माण और मूल्यांकन को बोध और दक्षता के विकास में सहयोगी बनाने की अपील करते हुए उन्होंने कई उपयोगी मॉडल्स सामने रखे।


इस संदर्भ में दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विद्यार्थियों को परीक्षा संबंधी जो सुविधाएँ दी जाती हैं उनका पारदर्शी  विवेचन श्रीमती गीता वर्मा ने किया। उन्होंने बताया कि निदेशालय की ‘सिम’ के निर्माण में देशभर के विद्वान विशेषज्ञों की मदद ली गई है । इन सबने ‘सिम’ में ही सतत मूल्यांकन के बिंदु निर्धारित कर दिए हैं  जिनको दत्त कार्य तथा प्रश्नपत्र में भी सम्मिलित करके दृढ़ीकरण की माप की जाती है। प्रश्नों  के ‘विषयपरक’ और ‘बोधपरक’ प्रकारों की भी उन्होंने चर्चा की तथा निदेशालय  के बी.ए., एम.ए., डिप्लोमा पाठ्यक्रमों के प्रश्नपत्रों से इनके उदाहरण दिए।

22 जनवरी को तीसरे सत्र में दूरस्थ शिक्षा  प्रणाली के सर्वथा नवीन आयामों पर बातचीत हुई। पहले दोनों सत्रों की अनुगूंज भी इस सत्र में सुनाई देती रही। प्रो. टी.मोहन सिंह ने कौशल  आधारित शिक्षा  के परिप्रेक्ष्य में दूरस्थ शिक्षा  का अवगाहन करते हुए ‘कौशल’ को शिक्षा और सही मायनों में शिक्षित  करने, होने का मानदंड माना। उन्होंने अर्जन, अधिगम और बोधन की अनुकूल प्राप्यता को ‘कौशल’ की कसौटी कहा तथा  आंध्र प्रदेश में हिंदी भाषा कौशल उत्पन्न करने के बीच आनेवाली समस्याओं पर विचार करते हुए इन्हें  समतल करने वाले  रास्तों की भी चर्चा की। व्यावहारिक हिंदी अर्जन पर उन्होंने हिंदी व्याकरण की जटिलता के मद्देनजर प्रकाश  डाला तथा हिंदी की शैलियों के अधिगम को ‘भाषा कौशल' के लिए जरूरी स्वीकार किया।


तकनीकी आधारित शिक्षा को दूरस्थ शिक्षा  की धुरी के रूप में व्याख्यायित करते हुए श्रीमती निधि सिंह ने तकनीकी साधित शिक्षण सामग्री निर्माण की प्रविधियों की चर्चा की। उन्होंने तकनीकी माध्यमों/उपकरणों की संभावनाओं और सीमाओं की पहचान को भी रेखांकित किया और कहा  कि इस पहचान के आलोक में ही दूरस्थ माध्यम शिक्षा के विद्यार्थियों को सहज-संप्रेषणीय शिक्षा  से जोड़ा जा सकता है। साहित्यिक एवं साहित्येतर पाठों को तकनीकीबद्ध करने की प्रचलित और अद्यतन पद्धतियों के इस्तेमाल को भी उन्होंने विविध तकनीकी उपकरणों के उपयोग से संबद्ध करके दिखाया।


इसी क्रम में डॉ. अर्जुन चव्हाण ने दूरस्थ शिक्षा  में संचार माध्यमों की उपयोगिता स्थापित की। भारत में शिक्षा संबंधी सुविधाओं के अभाव पर रोष प्रकट करते हुए प्रो. चव्हाण ने संचार माध्यमों के व्यावसायीकरण पर भी चिंता व्यक्त की। उच्च शिक्षा और संचार माध्यमों की उपादेयता की अनदेखी करनेवाली नियमित शिक्षा पद्धति को अधूरा मानते हुए उन्होंने दूरस्थ शिक्षा की इसलिए सराहना की कि यह प्रणाली संचार माध्यमों की शैक्षिक शक्ति को पहचानने वाली है और इसने ‘मीडिया’ को मनोरंजन की सीमा से निकाल कर शिक्षा-प्रसार के महत् उद्देश्य से ला जोड़ा है।

चौथा सत्र दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय  की ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) के आकलन पर केंद्रित था। हिंदी की सामग्री का श्रीमती एन. लक्ष्मी, अंग्रेजी की सामग्री का श्रीमती गीता वर्मा तथा शिक्षाशास्त्र की सामग्री का आकलन प्रो. अरविंद पांडेय ने किया। इस सत्र में प्रस्तुत विवेचन भी अत्यंत पारदर्शी थे। इस सत्र में प्रस्तुत आकलन की सफलता डॉ. भारत भूषण की समापन-सत्र में दी गई इस टिप्पणी से पुष्ट हो जाती है कि ‘मुझे प्रसन्नता है कि निदेशालय  की सामग्री दूरस्थ शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बहुत सोच-समझकर और मेहनत से बनाई गई है। सामग्री के आकलन से यह भी पता चलता है कि आपका विज़न एकदम क्लियर है और आपकी मंशा स्टूडेंट फ्रेंडली।’

22 जनवरी की शाम। समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ. भारत भूषण ने की। संगोष्ठी की रपट प्रो. दिलीप सिंह ने प्रस्तुत की। टिप्पणीकार थे - डॉ. गंगा प्रसाद विमल, डॉ. टी.वी.कट्टीमनी, डॉ. टी. मोहन सिंह, डॉ. अर्जुन चव्हाण, डॉ.ऋषभ देव शर्मा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया। सभी टिप्पणीकारों ने इस बात की सराहना की कि ‘दूरस्थ माध्यम शिक्षा ' पर हिंदी में और वह भी दक्षिण भारत में यह संगोष्ठी आयोजित की गई। संगोष्ठी की गंभीरता और सुगठन ने सभी को मुग्ध कर दिया था। प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि यह संगोष्ठी निदेशालय  के लिए मार्गदर्शक  का काम करेगी। और यह भी जोड़ा कि संगोष्ठी दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय के कामकाज से संबद्ध उसके आंचलिक और क्षेत्रीय केंद्रों के उपस्थित कार्यकर्ताओं, अध्यापकों, संचालकों आदि के लिए एक किस्म का प्रषिक्षण भी सिद्ध हुई है। डॉ. भारत भूषण संगोष्ठी की सुचारु व्यवस्था से अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने कहा कि ऐसा लग रहा है कि यह गोष्ठी आपकी नहीं बल्कि दूरस्थ शिक्षा परिषद, नई दिल्ली की है। उन्होंने संगोष्ठी में पढ़े गए कई आलेखों की सराहना भी की। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एकनिष्ठ और उत्साही कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘भविष्य दूरस्थ शिक्षा का ही है। सभा ने सही समय पर इस शिक्षा  प्रणाली में प्रवेश  किया है। आपकी निष्ठा और समझ को देख कर मुझे कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा बहुत जल्द ही दूरस्थ शिक्षा की एक अग्रणी संस्था बन कर उभरेगी।' उल्लेखनीय है कि समारोह के आरंभ में सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय द्वारा तैयार की गई स्वाध्याय सामग्री और दूरस्थ माध्यम से संपन्न एम.फिल. तथा पीएच. डी.के शोधप्रबंधों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसका उद्घाटन डॉ. भारत भूषण ने रिबन काटकर किया.  

23 जनवरी को पुनश्चर्या पाठ्यक्रम एवं कार्यशाला का आयोजन किया गया।दूरस्थ शिक्षा निदेशालय से संबंधित चारों प्रांतों (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक) के लगभग पचास पदाधिकारी, अध्यापक एवं संगोष्ठी में देश भर से पधारे सभी विद्वान  कार्यशाला में उपस्थित थे। कार्यशाला  के मुख्यतः दो उद्देश्य  थे - एक यह कि निदेशालय के कार्यकलाप से जुड़े सभी लोग विचार-विमर्श द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढें, निदेशालय के स्तरीय संचालन के लिए रचनात्मक सुझाव दें तथा एक-दूसरे से बातचीत करके कुछ नया सीखें। दूसरा उद्देश्य यह था कि निदेशालय  द्वारा निर्मित हिंदी साहित्य की शिक्षण सामग्री का पुनरवलोकन करके आवश्यक  रिवीज़न का परामर्श  दिया जाय।

कार्यशाला  के उद्घाटन में सभी अतिथि विद्वानों ने अनौपचारिक टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। प्रारंभ में प्रो. दिलीप सिंह ने कार्यशाला  के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए उपस्थित जन का स्वागत किया।


डॉ. भारत भूषण ने संकेत किया कि ज्ञान और चिंतन तथा भाषा और साहित्य के स्वरूप में आज इतनी तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं कि मानविकी और साहित्य की निर्मित सामग्री को चार-पाँच साल में एक बार परिवर्धन-परिवर्तन की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि दूरस्थ  शिक्षा  कार्यक्रम चलाने की चुनौतियाँ अलग हैं और हम सब को इसका सामना करने के लिए हमेशा  तैयार रहना चाहिए। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि - ‘मैंने 21 की सुबह निदेशालय की ‘सिम’ की प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए आपकी सामग्री देखी और कुछ सुझाव भी दिए थे। आपकी सामग्री काफी अच्छी है पर अच्छे को और-और बेहतर बनाने की ज़रूरत हमेशा रहती है। आपके पास प्रबुद्धजनों की अनुभवी टीम है। मुझे विश्वास  है कि इस चर्चा-परिचर्चा से हम सब कुछ-न-कुछ नया सीखेंगे और अपने विद्यार्थियों को भी नया और उपयोगी दे सकेंगे।’ और फिर टीम बनाकर आठ टीमों ने वरिष्ठ विद्वानों की देखरेख में पूरे दिन चर्चाएँ कीं, समाधान ढूँढ़े और सामग्री की बेहतरी के लिए लिखित सुझाव दिए जिन्हें अगली सामग्री-संशोधन  कार्यशालाओं में ध्यान में रखकर सामग्री की गुणवत्ता में वृद्धि की जाएगी।


23 जनवरी की शाम। दूरस्थ शिक्षा पर केंद्रित तीन दिन का यह समारोह जब संपन्नता को प्राप्त हुआ तो सभी प्रतिभागी अपने-आप को संपन्नतर महसूस कर रहे थे। सभी ने इस दूरदर्शितापूर्ण  और सामयिक आयोजन के लिए दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, उच्च शिक्षा  और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सराहना करते हुए परस्पर विदा ली।
प्रो. दिलीप सिंह,
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई - 600 017 .