मंगलवार, 19 जुलाई 2011

अपनापन

रेणु ने जब बचपन के अपने अकेलेपन व असुरक्षा भाव को समझा तो मन ही मन वह फैसला कर चुकी थी कि शायद उसके किसी से हमदर्दी व अपनेपन के कारण ही वह भी उसकी एवज़ में अपना खालीपन भर पायेंगी। धीरे-धीरे समय गुजरता गया रेणु की बेचैनी भी उसके साथ दुगुनी हुई। अब स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी का आधा-अधूरा ज्ञान उसे अपने को समझने के लिए दुस्साहसी बनाने लगा। लेकिन उसके उस दुस्साहस में भी काफी भोलापन, ईमानदारी थी। जब कोई बिना दिमाग का इस्तेमाल करे केवल दिल ही की सुनता है तो बहुत से ख़तरे बढ़ जाते है। रेणु के साथ भी ऐसा ही हुआ, जब जाने-अनजाने उसने अपनी सीमा रेखा पार की तो फिर क्या था एक के बाद एक वह सभी सीमाएँ पार करती चली गई। आख़िर में उसे जो हासिल हुआ उसे दुनिया का वह इंसान तो कतई नहीं समझ सकता, जो कुछ भी करने से पहले उसके परिणाम को सोच लेता है। सच इस अपनेपन की कहानी ने रेणु को जाने-अनजाने दुनिया के एक रहस्यमय चेहरे से रू-ब-रू कर दिया।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

अज्ञेय के उपन्यासों में अस्मिता, जिजीविषा और मृत्यु बोध-

भारतीय समाज में अस्तित्त्ववाद की यद्यपि कोई प्रभावी परिवर्तनकारी भूमिका नहीं है फिर भी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में ही 'भारतीय मनुष्य' में अकेलेपन और आत्मपरायापन की अस्तित्वपरक चिंताएँ, उद्वेलन और उत्तेजनाएँ उभरी थी। इन चिंताओं में अनेक रचनाकारों ने सृजनशीलता का स्त्रोत देखा। इस अस्तित्वपरक परिस्थितियों, समस्याओं और द्वन्द्वों के भीतर कथानुभव और काव्यानुभव के नए और विशेष रचनाविन्यास निहित थे। ऐसे में हिंदी साहित्य क्षेत्र में भी कई अस्तित्त्ववाद संबंधी तत्त्वों को आधार बना कर साहित्य सृजन किया जाने लगा। ऐसे रचनाकारों में अज्ञेय का नाम अग्रणिय हैं।

व्यक्ति अस्तित्त्व में पहले आता है और अपनी वैचारिकता का सृजन वह बाद में करता है, अस्तित्ववाद की इस परिकल्पना ने पुराने समस्त चिंतन को चुनौती दी और कहा, 'सिर के बल नहीं, पैर के बल खड़े होकर देखों। इस स्थिति से आकाश का शून्य नहीं, पृथ्वी का यथार्थ दिखाई पड़ेगा। अस्तित्ववाद के उदय से पूर्व देकार्त के प्रसिद्ध कथन-" मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ' को मान्यता प्राप्त थी। अस्तित्त्ववादी चिंतकों ने इसे "मैं हूँ, इसलिए मैं सोचता हूँ, के कथन में इसे परिवर्तित कर दिया।

अस्तित्ववाद के अनुसार मानव मूल्य न शाश्वत होते है और न सार्वभौम। उसने मान्यता दी कि मनुष्य को उन मूल्यों को मानने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए, जिनका चयन उसने स्वयं न किया हो।

अस्तित्ववाद ने यह प्रतिपाद्यत किया कि सत्य के अनेक रूप होने के कारण उसे धारणाबद्ध नहीं किया जा सकता तथा सच्चाई की समझ को भी बँधे-बँधाए मूल्यों में निरुपित नहीं किया जा सकता। परिणामतः अस्तित्ववाद के उभाव के साथ ही तत्वमीमांसीय दर्शन का तिरोभाव होना प्रारम्भ हुआ। अस्तित्ववाद ने तत्वमीमांसीय दर्शन और धर्म की जकड़बंदी से मानव को मुक्त करने का प्रयास किया। इसने मानवीय स्थितियों को समझने का एक सार्थक तरीका सुझाया और अनुभवों की सच्चाई पर बल दिया। साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अस्तित्ववाद ने अपने समकालीन चिंतकों व उनके द्वारा उद्भूत साहित्य को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित किया।

निस्संदेह अस्तित्ववाद ने व्यक्तिगत भावावेशमूलक पद्धति द्वारा चिंतनपरक उपलब्धियाँ अर्जित की। उसने निश्चित परिपाटियों, मतवादों, विचारों और पूर्वाग्रहों को नकारकर जीवन की पारदर्शिता को उजागर किया। 1946 में ज्यां पाल सार्त्र ने 'अस्तित्ववाद और मानववाद' पर भाषाण देते हुए व्यक्ति के महत्व, उसकी स्वतंत्रता, उत्तरदायित्व, स्वावलंबन, चयन की गरिमा और गुणों का समर्थन किया। यही कारण है कि इस चिंतन को तत्कालीन आलोचकों ने मानवतावाद की संज्ञा दी। ऐसा मानवतावाद जिसमें व्यक्तिगत धर्म की संस्थागत धर्म के प्रति, व्यक्तिगत चेतना का समूह योजना के प्रति, मानव स्वातंत्र्य का भौतिक नियति के प्रति सबल विद्रोह है। सूक्ष्म रूप से कहा जाए तो यह चिंतन विशिष्ट का सामान्य के प्रति विद्रोह है।

अतः यह कहना समीचीन होगा कि अस्तित्ववाद एक ऐसी विचार पद्धति है जो वास्तविक अनुभूतियों और उनके चित्रण में सहायक होती हैं। अस्तित्ववाद में संत्रास, मृत्युबोध, क्षण, परायापन (एलियनेशन), अजनबीपन, विसंगति (एब्र्सड) वैयक्तिक-स्वातंत्र्य आदि प्रमुख तत्वों का व्यक्ति संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। इस पद्धति में मनोविज्ञान के तत्त्व दर्शन की ओर अग्रसर होते है।

पश्चिम में आधुनिक विचारधारा के परिणामस्वरूप अस्तित्ववाद अस्तित्व में आया, परन्तु कालांतर में इस चिंतन में अकेलापन, आत्मपरायापन व अस्तित्व संकट की भावना घर करने लगी। कीर्केगार्द को अस्तित्ववाद का जनक माना जाता है। इस विचारधारा के प्रमुख कीर्केगार्द, नीत्शे और स्पेंगलर आस्था व मर्म, सिद्धांत व व्यवहार, बौद्धिक सत्य व वास्तविक सत्य के मध्य बनी खाई को मिटाना चाहते थे। इन्हीं सब विचारधाराओं के बीच श्रमिकों ने अपनी रक्षा हेतु पूँजीपति के विरूद्ध विद्रोह किया। वैयक्तिकता की इसी भावना ने धीरे-धीरे अस्तित्ववादी चिंतन को बल दिया। अतः वह सुरक्षित मूल्यों के स्थान पर जीवंत मूल्यों की ओर बढ़ने लगा। परंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में अस्तित्त्ववाद की संकल्पना कुछ भिन्न और पारम्परिक है। भारतीय समाज में अस्तित्ववाद को उस अर्थ में ग्रहण नहीं किया गया जिस अर्थ में पश्चिमी देशों में। पश्चिम में अस्तित्व की समस्या बुनियादी समस्या बनकर उभरी। लेकिन भारत में आरम्भ में ऐसी स्थिति नहीं थी।

भारत का पुनर्जन्म का सिद्धांत मृत्यु को इतनी दुर्बोध कष्ट कल्पना नहीं बनने देता जितना कि पश्चिम में। भारतीय चिंतन इस दिशा में आशावादी है। अस्तित्व की समाप्ति यहाँ शरीर की समाप्ति का पर्याय नहीं। पश्चिम में मृत्यु की भयंकरता का बोध अस्तित्व के प्रति एक जबरदस्त लगाव पैदा करता है, जिसके कारण वहाँ के जनमानस में अस्तित्वपरक प्रवृत्तियाँ अधिक तीव्रता से उभरी। भारत में इन परिस्थितियों का निर्माण न हो सकने के पीछे जन-जीवन में पुनर्जन्म की आशावादिता हैं। यहीं आकर भारतीय और पाश्चात्य चिंतन दार्शनिक मान्यताओं के स्तर पर भी भिन्न दिखलाई देते है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्वातंत्र्योत्तर भारत के धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में चेतना के बिंब अवश्य प्रस्फुटित हुए। जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में चेतना एक निश्चित स्वरूप पाने लगी, परंतु समाज के भीतर ही। फिर भी स्वतंत्र इकाई के अर्थ में वैयक्तिक चेतना का अस्तित्व दूर ही रहा।

अस्तित्ववाद वह चिंतनधारा है जिसे संसार के पूँजीवादी देश मार्क्सवाद के विरोध के लिए प्रयुक्त करते रहे हैं। वे वास्तविक सामाजिक संघर्ष की बात नहीं करते। एक विकासशील देश के लिए व्यक्ति प्रधान विचारधारा दुर्भाग्यपूर्ण है। हालांकि अज्ञेय अपनी रचनाओं के संबंध को पश्चिमी अस्तित्ववादी चिंतन से बिलकुल प्रभावित नहीं मानते। असल में जब अज्ञेय के उपन्यासों को अस्तित्ववादी कहा जाने लगा, तब कहीं जाकर उन्होंने पश्चिमी अस्तित्ववादी साहित्यकारों को पढ़ा। तो उन पर उनका कोई अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ा, उनकी चिंतन पद्धति उनसे भिन्न रही है। यहाँ पश्चिमी अस्तित्ववादी चिंतन से कुछ भिन्न दार्शनिक मान्यताओं को अज्ञेय के दो उपन्यासों 'नदी के द्वीप' और 'अपने-अपने अजनबी' में देखने का प्रयास किया जा रहा है।

'नदी के द्वीप' उपन्यास में स्वयं अज्ञेय कहते है, "मेरी रूचि व्यक्ति में रही है और है, 'नदी के द्वीप' व्यक्ति चरित्र का उपन्यास है। घटना उसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से काफी है, पर घटना प्रधान उपन्यास वह नहीं है....व्यक्ति चरित्र का...चरित्र के उद्धारन का उपन्यास है।" (आत्मनेपद-72)। अज्ञेय की स्पष्ट मान्यता थी कि जैसा "मैं हूँ लोगों को उसकी पहचान कराऊँ। लोगों को उस यथार्थ की पहचान हो जिसे मैंने और केवल मैंने देखा है उसी के बहाने मेरी भी पहचान हो !

'नदी के द्वीप' उपन्यास में भुवन, रेखा, चन्द्रमाधव और गौरा एक ही वर्ग के प्राणी हैं। यह एक व्यक्तिगत तथा निजी अनुभूतियों की गाथा है, जिसकी भाववस्तु-तीव्रता, गहनता और एकाग्रता में अनूठी है और सघनता में लगभग काव्यात्मक है। यहाँ पर प्रेम की उपलब्धि, उसकी प्रौढ़ और प्रबल अनुभूति का उसके माध्यम से व्यक्तित्व प्रस्फुटन और परिपूर्णता को इसमें चित्रित किया गया है। यहाँ पर चित्रित पुरूष और स्त्री का प्रेम असामाजिक होते हुए भी व्यक्तित्व को विकृत नहीं करता, यही प्रौढ़ता इस उपन्यास की विशेषता भी है।

इस उपन्यास के लगभग सभी पात्र एक मध्य वर्ग के है, और अपने व्यक्तिगत जीवन की मानसिक-आध्यात्मिक समस्याएँ लेकर आते हैं। इनकी संवेदनाएँ इनके मनः स्ताप, पीड़ाएँ उनके सामाजिक स्तर पर सच्ची और विश्वसनीय हैं।

रेखा बार-बार भुवन से कहती है, " ऊब आने के पहले ही हट जाऊँगी।" दरअसल ये सभी पात्र देना चाहते हैं, लेने में घोर संकोच करते हैं, जबकि देते समय मुक्ति का आनंद पाते हैं। ये सभी उत्कट रूप से अस्मितावादी हैं। वेदना और करूणा को वरदान समझकर अपनाते हैं और उसी से उनके अंदर का मन निखर-निखर जाता है। भुवन एक पत्र में लिखता है, " जिसका व्यक्तित्व प्रतिभा के सहज तेज से नहीं दुःख की आँच से निखरा है। दुःख तोड़ता भी है, पर जब नहीं तोड़ता या तोड़ सकता तब व्यक्ति को मुक्त करता है।" अर्थात् अज्ञेय वेदना, पीड़ा, को व्यक्ति के अस्मिता बोध से जोड़ने का प्रयास करते है। काफ्का मानता है कि परिस्थितियाँ ही कर्ता है और निर्णायक भी। अज्ञेय के उपन्यास में इस तथ्य को बखूबी देखा जा सकता है।

वैसे 'नदी के द्वीप'(1951) एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है जिसमें एक तरह से यौन संबंधों को केन्द्र बनाकर जीवन की परिक्रमा की गई है। यहाँ ज्यादातार पात्र आत्ममंथन या आत्मालाप कर रहे होते है। ये पात्र भीतर ही भीतर लंबी विचार सरणि बना लेते है परन्तु एक दूसरे के प्रति अपने भावों को अभिव्यक्त नहीं कर पाते। इस उपन्यास में व्यक्ति 'नदी के द्वीप' की तरह है। चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र। यहाँ पात्र समाज से भिन्न होकर अपने भीतर जीते है बाहर नहीं।

अज्ञेय के लिए अनुभव की अद्वितीयता, व्यक्तित्व का वैशिष्ट¬ और सर्जनात्मक क्षमता-मानवीय अस्तित्व और उसकी सार्थकता के मूल उपादान हैं। मृत्यु के आधुनिक अस्तित्ववादी आतंक और तज्जन्य अनर्थकता से सर्जनात्मक होकर ही उबरा जा सकता है। (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ-196) इसीलिए तो वे कहते है कि मेरा पूरा प्रयत्न साधरण तत्व की एक निजत्व की खोज है।

हालांकि अज्ञेय ने पश्चिमी अस्तित्ववाद से कुछ बौद्धिक उत्तेजना पाई, पर अपने उत्तरकालीन कृतित्व में लेखक का यत्न यही रहा है कि भारतीय परिस्थितियों में अस्तित्ववाद से भिन्न और अधिक संगत दृष्टि विकसित की जाए।

'नदी के द्वीप' में रेखा और गौरा दोनों नारी जीवन का चरित्र, अपने में अनोखा और विशिष्ट है विशेष रूप से रेखा जो हर क्षण को प्राप्त कर लेने में विश्वास करती है। वह एक भिन्न तरह से अपनी अस्मिता और जिजीविषा को रूप प्रदान करती है। उपन्यास में मानवीय व्यक्तित्व की परिपूर्णता की ओर क्रमिक यात्रा लेखक की चेतना का केन्द्रीय तत्व है।

'शेखर एक जीवनी' और 'नदी के द्वीप' दोनों में वेदना और प्रेम के माध्यम से, उनसे उत्पन्न सर्जनात्मक ऊर्जा के बीच से व्यक्तित्व की परिपूर्णता को स्वायत्त करने की चेष्टा हुई है। 'शेखर' चतुर्मुखी विद्रोह का आख्यान है, पर 'नदी के द्वीप' सबसे पहले एक 'प्रणय-कथा है अत्यंत सुकुमार, संवेदनशील, विशिष्ट पर उदार। वेदना और प्रेम व्यक्तित्व को कैसे उन्मुख और स्वाधीन बनाते हैं, यही उपन्यासकार की जिज्ञासा का मुख्य क्षेत्र है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने 'नदी के द्वीप' को 'शेखर' की एक विशिष्ट संवेदना का प्रसार माना है। रेखा सब कुछ जानते हुए समझते हुए कुछ ही क्षणों के लिए सही, भुवन के साथ तदाकार होना चाहती है। उसकी माँग स्थायित्व की नहीं है वे क्षण में जीने वाली असामान्य पात्र है। 'नदी के द्वीप' एक ऐसी अनुभूति की भट्ठी है जिसकी आँच में पक कर प्रत्येक पाठक की कठोर चेतना की पर्ते अधिक कोमल, अधिक तन्य एवं अधिक अर्थवती हो जाती है। रेखा के माध्यम से लेखक अपने विचारों को उपन्यास में कई जगह व्यक्त करता है-"जब तक जो है, उसे सुन्दर होने दो भुवन, जब वह न हो, तो उसका न होना भी सुन्दर है...." जो छिन जा सकता है, पर जब है तब सर्वोपरि है, वही आनन्द है।"

रेखा प्यार का कोई प्रतिवान नहीं चाहती। अपने जीवन में अतृप्त, निराशा और जड़ता रेखा के मन में कहीं भी कोई कुंठा, आशंका, भविष्य की चिंता, धर्म या नीति का डर अथवा लोकनिन्दा का भय नहीं पैदा करती। अपनी भावना के प्रति वह पूरी तरह से ईमानदार, उन्मुक्त और समर्पित है। वह क्षणों में, क्षण से क्षण तक, जीती है, क्षण के प्रति समर्पित है, क्षण को ही विराट मानती है।

अपने-अपने अजनबी (1961)- अज्ञेय के 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास में पश्चिमी पृष्ठभूमि और परिप्रेक्ष्य है परन्तु उसकी मान्यता मूलतः भारतीय अस्मितावाद से प्रभावित है। वैसे पश्चिमी आलोचकों ने इसे सात्र्र, किर्केगार्ड, हाइडेगर के पश्चिमी अस्तित्ववादी दर्शन पर आधारित उपन्यास माना है जिसमें सेल्मा और योके दो मुख्य पात्र हैं। 'शेखर एक जीवनी', 'नदी के द्वीप' जहाँ व्यक्ति स्वतंत्रता की अनुभूति और अभिव्यक्ति की एक मार्मिक यथार्थवादी अभिव्यक्ति है वही 'अपने-अपने अजनबी' मृत्यु के आतंक के बीच जीवन जीने की कला का यथार्थवादी दस्तावेज़ कहा जा सकता है।

इस उपन्यास का कथानक बेहद छोटा है। सेल्मा मृत्यु के निकट खड़ी कैंसर से पीड़ित एक वृद्ध महिला है और योके एक नवयुवती। दोनों को बर्फ से ठके एक घर में साथ रहने को मजबूर होना पड़ता है जहाँ जीवन पूरी तरह स्थगित है।

इस उपन्यास में स्थिर जीवन के बीच दो इंसानों की बातचीत के जरिए उपन्यासकार ने ये समझाने की कोशिश की है कि व्यक्ति के पास वरण की स्वतंत्रता नहीं होती। न तो वो जीवन अपने मुताबिक चुन सकता है और न ही मृत्यु। अतः इस संदर्भ में उपन्यासकार भारतीय मान्यता को स्वीकार करता है।

सेल्मा मृत्यु के करीब है और वो चाहती थी कि उस बर्फ घर में अकेले रहते हुए उसकी मृत्यु हो जाए, लेकिन संयोगवश योके वहाँ पहुँच जाती है और उसे योके जैसी अजनबी के साथ वो सब कुछ बांटना पड़ता है जो वो अपने सगों के साथ भी नहीं बाँटना चाहती थी। वरण की स्वतंत्रता और जीवन के विविध सत्यों को लेकर दोनों ही पात्र एक-दूसरे से जो बातचीत करते है उसी के ज़रिए अस्तित्ववादी दर्शन को अज्ञेय ने पूरी तरह स्पष्ट करने की कोशिश की है, लेकिन उसे साथ ही एक नई भारतीय व्याख्या भी दी है।

सेल्मा मृत्यु के करीब है लेकिन फिर भी जीवन से भरी हुई है जबकि योके युवती है, जीवन में उसे बहुत कुछ देखना बाकी है लेकिन मृत्यु के भय से वो इतनी आक्रांत है कि जीते हुए भी उसका आचरण मृत के समान है। वो घोर-निराशा के अंधेरे में डूब जाती है। योके बार-बार सेल्मा से कहती है-"व्यक्ति चुनने के लिए स्वतंत्र होता है।"

मृत्यु और जीवन संबंधी कई बहसों को लेकर उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है। लेकिन उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते सेल्मा की मौत हो जाती है। और इसी बीच तूफान के थमते ही योके बर्फ के घर से बाहर निकल जाती है लेकिन उस स्थगित जीवन में जिंदगी का जैसा क्रूर चेहरा उसने देखा था उसे भुला नहीं पाती। वरण की स्वतंत्रता की तलाश में अंत में वो ये कहते हुए ज़हर खाकर अपने जीवन का अंत कर देती है कि उसने जो चाहा वो चुन लिया। अतः बेहद छोटे कथानक के जरिए अज्ञेय ने इस उपन्यास में अस्तित्ववाद की पश्चिमी निराशावादी व्याख्या में भारतीय आस्थावादी व्याख्या को जोड़ने का प्रयास किया है।

व्यक्तित्व की परिपूर्णता के यत्न को खंडित करने वाला सबसे बड़ा तत्व मृत्यु या उसका त्रास माना गया है। आधुनिक काल में पश्चिम के कई दर्शनों ने विशेषतः अस्तित्ववाद ने माना है कि मृत्यु समूचे जीवन को अनर्थक बनाती है। इसके विपरीत अपने तीसरे उपन्यास 'अपने-अपने अजनबी' में अज्ञेय की उपपत्ति है कि नश्वरता का भाव ही जीवन को सर्जनात्मक रसमय और अर्थवान् बनाता है, और इस तरह मृत्यु व्यक्तित्व की परिपूर्णता में बाधक नहीं, वरन् उसे निष्पन्न करने में सहायक है। जहाँ 'शेखर' और 'नदी के द्वीप' में व्यक्ति और समाज के बीच दोनों को जोड़ने वाले व्यक्तित्व का रूप विकसित हुआ है। 'अपने-अपने अजनबी' में लेखक उस स्तर पर पहुँच जाता है, जहाँ व्यक्ति, समाज और व्यक्तित्व के भेद नहीं रह जाते-जहाँ जीवन अपनी समग्रता में है।

विषय और वस्तु दोनों दृष्टियों से 'अपने-अपने अजनबी' मृत्यु से साक्षात्कार का आख्यान है। रचनाकार की दृष्टि में मृत्यु जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है ; क्योंकि जीवन को रसमयता और अर्थवत्ता वही देती है-" साँस की बाधा ही जीवन बोध है, क्योंकि उसी में हमारा चित्त पहचानता है कि कितनी व्यग्र ललक से हम जीवन को चिपट रहे हैं। इस प्रकार डर ही समय की चरम माप है-प्राणों का डर...." (पृ-81)। मृत्यु के घटित होने से जीवन की सार्थकता है, पर मृत्यु के प्रति सजगता जीवन की सार्थकता को कम करेगी, बढ़ाएगी तो नहीं ही।

भारतीय पद्धति में मृत्यु को इतना, अस्तित्ववाद जैसा, असाधारण महत्व कभी नहीं मिला, शायद इसलिए कि हम जीवन को एक प्रवाहमान और अनंत धारा के रूप में मानते रहे हैं। हमारी काल-दृष्टि वृत्तात्मक है-इसलिए जीवन का आत्यांतिक महत्व नहीं है-और फिर मृत्यु भी उतनी ही कम महत्वपूर्ण है। पश्चिम की काल दृष्टि रेखात्मक है-इसलिए जीवन की अवधि का आत्यंतिक महत्व है और उस अनुपात में मृत्यु का त्रास भी उतना ही अधिक है।

अज्ञेय के पिछले उपन्यासों में जो 'व्यक्तित्व की खोज' आरंभ हुई थी-'अपने-अपने अजनबी' में उनकी एक ढंग की निष्पत्ति है, जो शायद फिर आगे की खोज के लिए प्रेरणा है। मृत्यु के माध्यम से जीवन की सार्थकता का सिद्ध होना। स्वयं उपन्यासकार के अतिरिक्त पहले खंड की बुढ़िया सेल्मा भी इसका आख्यान करती है :

"बल्कि शायद मन से ईश्वर को तब तक पहचान ही नहीं सकते जब तक कि मृत्यु में ही उसे न पहचान लें....इसीलिए मौत ही तो ईश्वर का एक मात्र पहचाना जा सकने वाला रूप है।" (पृ-53-54)। बुढ़िया यह भी अनुभव करती है कि-"भगवान के सिवा मेरे पास कुछ नहीं ओढ़ने को ! " (पृ-43)

सेल्मा और योके के दृष्टि बिंदुओं में अंतर योके की डायरी के निम्न उल्लेख से भी मिलता है : "और ठीक यहीं पर फर्क है। वह जानती है और जानकर मरती हुई भी जिये जा रही है। और मैं हूँ कि जीती हुई भी मर रही हूँ और मरना चाह रही हूँ...."(पृ-38)

कुलमिलाकर अज्ञेय की चिन्तनशीलता और विचार पर सार्त्र, अल्बेयर कामू, काफ्का आदि के वैचारिक चिंतन का कुछ प्रभाव भिन्न स्तर पर रहा, फिर भी अज्ञेय उतने ही परम्परावान है जितने कि आधुनिक। यही अन्तर्विरोध उनके व्यक्तित्व को सम्मोहक और रहस्यमय बनाता रहा। अज्ञेय ने जब 'शेखर एक जीवनी' लिखी, उस समय हिंदी उपन्यास घटना और कथानक बहुलता से ऊपर उठ कर चरित्रांकन को महत्व दे रहा था। अज्ञेय ने चरित्र को समझने के लिए उसके संवेदन को समझने का उपक्रम शुरू किया। लेखक का मानना है कि 'तोड़ना ही धर्म है, बनता तो अपने-आप है।' फिर इसी कड़ी में 'नदी के द्वीप' और 'अपने-अपने अजनबी' में ये निजत्व भिन्न रूप में उभरता हैं।

अज्ञेय के उपन्यासों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि उनके उपन्यासों के नारी-पात्र को अपनी अस्मिता के लिए सचेत करते हुए उन्होंने 'शेखर एक जीवनी' और 'नदी के द्वीप' की रेखा, गौरा और अपने-अपने अजनबी की सेल्मा और योके को आधार बनाकर एक नये विर्मश का सूत्रपात किया था। दोनों उपन्यास बड़े प्रतीकात्मक हैं।

'अपने-अपने अजनबी' में यह प्रतीक ध्वनियात्मक रूप से उद्भूत होता है कि पहले तो व्यक्ति स्वयं अपने आप से अजनबी है और ऐसे में मृत्युबोध, वेदना, पीड़ा, जिजीविषा उसे जीवन की सार्थकता से जोड़ते हैं।

अंततः अज्ञेय के तीनों उपन्यास में व्यक्ति की अस्मिता, जिजीविषा व मृत्यु बोध के समग्र भाव को बड़े ही सृजनात्मक रूप से देख जा सकता हैं।

"तूफान ने मुझे भी मंथा,


और वह लय मैंने भी पहचानी है


छोटी ही है पर सागर मेरी भी एक कहानी हैं।"


"रात होगी या तूफान फिर मथेगा


जब ऊपर और नीचे


ठोस और तरल,


आग और पानी


बनने और मिटने के भेद लय हो जायेंगे


तो क्या हुआ वहीं तो अस्तित्व है !"