शनिवार, 4 मई 2013

दलदल

समतल नदी में दलदल !
शायद आप भी अचंभित हो जाएँ !
पर ऐसा सच में है !
ये दलदल आपको लिल लेगा !
इसकी ख़बर भी न होगी !
जितना आप दूर भागों...
ये और भी करीब-गहराता आएँ !
ये बड़ी आत्मियता से शिकार बनाता !
और शिकार कर फिर यथास्थित
कोई शक भी न कर पाएँगा
इतना बुद्धिमानी...!
शायद हम इस कला में निपुण नहीं...
इसलिए तो इसकी आलोचना...
नहीं नहीं आम आदमी नहीं बोल सकता
अपनी पीड़ा का दर्द नहीं खोल सकता !
भला सुनेगा कौन ?
बहुमत की राजनीति है भई !
बहुमत किसका ?
गुंगे, बेहरे, अनदेखे का...!
अकेला आदमी पागल

अरस्तु ने सही कहा था...!

रिश्ते

फिर द्वन्द्व में झुझलाया मन !
रिश्ते समर्पण चाहते है ?
मैं कब पीछे थी इसमें ?
पर द्वन्द्व किस बात का...
असल में रिश्ता होते ही कुछ...
बँधने-सा लगता...
रिश्ते भी सीमा में जकड़ने लगते 
ऐसे में जो पूरे डूबते 
या फिर स्तह पर ही रहते ...
उनका क्या ?
उन्हें मिलती - असुरक्षा और...
और निराह द्वन्द्व !
तो अब समझ आया
सभी कुछ नहीं निभ सकता
ईमानदारी से !
कुछ न कुछ छूट ही जाता है
वे लोग और है जो निभा जाते है...
हर रिश्ते को...
पर कैसे...?
इसी द्वन्द्व में हूँ ...
शायद कभी उत्तर मिलें !