शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

संवेदनहीनता

क्या मनुष्य होने कि....
शर्त हैं- 'संवैदनशीलता' ?
शायद-'हाँ'...!
इसी में रम कर वे औरों से जुड़ता....
इसी के बगैर सब कुछ छोड़ता...
हमारी संस्कृति जहाँ जानवरों....
पेड़-पौधें, फूल-पत्तियों तक को संवेदनशील
हो देखती थीं...!
लेकिन आज मनुष्य,
यहाँ तक की आत्मियों के प्रति भी...
संवेदनहीन होता जा रहा हैं !
उसका किसी के रूदन से कलेजा नहीं काम्पता !
जहाँ फिल्मों, नाटकों में ऐसे दृश्य से
आँखें भर-भर आती थीं
आज उसकी हकिकत पर भी दो आँसू नहीं बहाता !
ये बड़े संकट का दौर है !
अब भी नहीं संभले तो...
सब कुछ खत्म हो जायेंगा !
रोनेवाला आदमी बम बरसाएँगा !

1 टिप्पणी:

वाणी गीत ने कहा…

फिल्मों में दृश्य देख कर रोया जा सकता है ...मगर अनजाने ही वास्तविक जीवन में हम सब कठोर हो जाते हैं ...
बढती हिंसा , भ्रष्टाचार , अनैतिकता हमें संवेदनहीन बनाती जा रही है ..गनीमत है कि अभी तक कुछ लोग इसके बारे में सोचते तो हैं ...!