शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

परिवार

छः बहनों और दो भाईयों में बड़ी सोना जैसे ही अठाहरहा वर्ष की हुई त्यों ही घरवालों ने उसका विवाह एक सरकारी मुलाज़िम से कर दिया। वैसे तो सोना बहुत हिम्मतवाली थी, पर अपने पति के रोज़-रोज़ शराब पीकर आने और लड़ाई-झगड़ा करने की आदत से बहुत परेशान हो हिम्मत हार चुकी थी। इसी तामझाम में जीवन की नय्या डांवाढोल होते-होते एक बेटे की आशा में सोना छः लड़कियों और एक पुत्र की माँ बन गई। सोना जब तक जिंदा रही उसने परिवार के विकास में पूरी तरह अपने को ख़प्पा दिया, पर वे चाहकर भी अपने बच्चों में प्यार-मोहब्बत और विश्वास के संस्कार मजबूत न कर सकी ! खैर ! पिता को तो इन सब झंझटों से कुछ लेना देना ही न था। धीरे-धीरे माँ का रुझान भी बेटे की ओर अधिक होने लगा, जिसका नतीज़ा आज वह भुगत रहा है। अब पढ़-लिखकर उनमें से कुछ बच्चें अपने को व्यवस्थित कर पाएँ, पर सवाल अब भी रह जाता है कि माता-पिता का आखिर क्या ये ही दायित्व है ? और क्या पढ़-लिखकर भी व्यक्ति के संस्कार नहीं बदलते ?

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