शमशेर बहादुर सिंह की रचनाओं में निजी व वैश्विक संदर्भों के दो भिन्न छोरों को देखा जा सकता है। असल में जहाँ वे एक ओर अत्यंत आत्मकेन्द्रित हैं तो वहीं दूसरी ओर अत्यंत वैश्विक संदर्भों से भी सहज में जुड़ जाते हैं। उनके काव्य व्यक्तित्व का यह विरोधाभास स्वयं ही उन्हें अद्वैत की सिद्धि प्रदान कर देता है। कवि का निजपन इतना सूक्ष्म व गहरा है कि बाहर आते ही एक विराट रूप धारण कर लेता है। शमशेर को समझने के लिए किसी विचार, वाद को जानने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उनकी भाषा में पिरोए गए शब्दों की जड़ों और उसके प्रस्तुतिकरण शिल्प को सहज ढंग से लोक-संस्कृति व परम्परा से जोड़कर देखने की जरूरत है।
शमशेर बहादुर सिंह ने कई स्तरों पर बिंबों व रंगों की गहनतम अर्थ छटाओं से हिंदी और उर्दू साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। जीवन के कटुतम संघर्षों को लेकर उन्हें कविता में एकदम तरल बना सकना शमशेर के ही काव्य-व्यक्तित्व की पहचान है। शमशेर की कविताओं में संगीत की मनः स्थिति बराबर चलती रहती है। एक ओर चित्रकला की मूर्तता उभरती है और फिर वह संगीत की अमूर्तता में डूब जाती है। गद्य में उन्होंने बोलचाल के लहजे को अपनाया व कविता की लय में संगीत के चरम अमूर्तन को। अतः वे दोनों परस्पर विरोधी मनः स्थितियों को कला रूप में साधते है। यही कारण है कि शमशेर में एक संपूर्ण रचना संसार दिखाई देता है।
शमशेर में वातावरण संवेदन में संक्रमित हो जाता है। इस संदर्भ में 'राग' कविता का पहला अंश द्रष्टव्य है-
"मैंने शाम से पूछा
या शाम ने मुझसे पूछा :
इन बातों का मतलब ?
मैंने कहा :
शाम ने मुझसे कहा :
राग अपना है।"
यहाँ प्रतीकात्मक रूप से मनुष्य और प्रकृति के बीच में यथार्थ की खोज है। यहाँ 'राग' के अंतर्गत मनोभाव, व्यक्तित्व, संगीतात्मक आकर्षण, रंग की विविध अर्थ-छायाएँ संश्लिष्ट हैं। 'राग' का कोई एक निश्चित अर्थ नहीं, वह अपने में समूचा संवेदन है। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-10)। यहाँ ऐसा जान पड़ता है कि 'मैं' और 'शाम' के बीच में संवाद नहीं, बल्कि यह तो कवि का गहराता आत्मालाप है। प्रकृति और प्रेम दोनों कवि-व्यक्तित्व में डूबते जाते हैं। यह डूबते जाना कविता की मनः स्थिति है, तो डूब जाना दर्शन की अनुभूति। शमशेर ने अपनी कविता की प्रक्रिया के बारे में कहा है-
"तुमने अपनी यादों की पुस्तक खोली है ?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्पष्ट हो गई हों ?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो ?
वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
जब तुम मुझे क्या कहोगे ?"
शमशेर की कविताओं की कोटि यही है, वे मिटती हुई एकाएक स्पष्ट हो जाती हैं। यथा-
" एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
अब गिरा
अब गिरा
वह अटका हुआ
आँसू
सांध्य तारक-सा
अतल में।"
शमशेर ने रंगों की कई छटाओं का अपने मन के भावों की लय को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग किया है। जैसे उपर्युक्त पंक्ति में एक विशेषण 'पीली' का बिंब पतझर, कृशता, अवसाद, थकान की न जाने कितनी ही रंगीन भंगिमाओं के साथ उभर कर आया है। शमशेर की समूची काव्य-प्रकृति उनके वण्र्य, बिंब और लय से जुदा नहीं है। शमशेर ने जो कुछ लिखा वह सीधे उन्हें ही खोलता है। उनके वण्र्य सामान्य-अकिंचन हैं, भाषा बोलचाल की है, बिंब आत्मीय हैं, लय असीम है। उनकी कविता जीवन-मात्र के प्रति कृतज्ञता है। उनकी रचना के खुलेपन का एक कारण और प्रमाण यह है कि उनकी काव्यभाषा में संज्ञा शब्दों से कुछ अधिक ही महत्व सर्वनामों, क्रियापदों और अव्ययों का है। उनके प्रकृति-चित्रण में अतियथार्थवाद की झलक भी बार-बार मिलती है। प्रकृति जितनी उनके बाहर है उतनी ही भीतर भी। एक चित्रण यथार्थ है तो दूसरा अतियथार्थ। शमशेर के लिए वर्णन देश का होता है और अनुभव काल का। वेदना के विस्तार को कवि ने अपने एक शेर में यों बाँधा है-
"इश्क की इंतहा तो होती है
दर्द की इंतहा नहीं होती "
मलयज शमशेर को 'मूड्स' का कवि मानते है 'विजन' का नहीं। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-19)। परंतु सच यह है कि उनके भावसंवेदन ही संपुंजित होकर उनकी जीवन दृष्टि बन जाते है। ये भावसंवेदन छोटी-छोटी मनः स्थितियाँ हैं, किसी दर्शन या जीवन दृष्टि को रचने का प्रयत्न नहीं। यह वस्तुतः नयी कविता का एक मूल स्वर है-सामान्य घटनाओं में सोए हुए या स्थापित जीवन की पहचान। उदात्त तो स्वयं ही काव्य है, अपने से जीने योग्य है ; अनुदात्त को रचना और उसे जीने योग्य बनाना यह नये कवि का वैशिष्टय है, जीवन के अंदर के जनतंत्र को बढ़ाना है। शमशेर में इसकी अच्छी पहल हुई है। दिन के चौबीस घंटों, और वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिनों की छोटी-बड़ी घटनाओं में जीवनअबाध गति से प्रवाहित हो रहा है, यह 'विज़न' शमशेर के अनेक 'मूड्स' में से उभरता है और नयी कविता के समूचे परिदृश्य में धीमे से घुल जाता है।
शमशेर का समूचा काव्य हिंदी कविता के पद-समूह में अव्यय है-सरल, निरीह और अर्थवान, पर अपनी प्रक्रिया में जटिल। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-21) जो नहीं है उसका गम क्या, और जो है उसे ही संजोना यह कवि का मूल मंत्र है। शमशेर मानते थे कि कविता वैज्ञानिक तथ्यों का निषेध नहीं करती। उनकी कविता आधुनिकवादियों और प्रगतिवादियों-दोनों के लिए एक चुनौती रही है। वे जनसंघर्ष के नहीं, बल्कि संघर्षों के बाद की मुक्ति के आनंद के कवि है। प्रो.मैनेजर पांडेय ने कहा है कि शमशेर की कविताएँ विद्वानों के लेखों या शब्दकोशों के जरिए कम समझ में आती हैं, जीवन-जगत के व्यापक बोध में उनकी कविताएँ समझ में आ सकती है। इसी संदर्भ में मुक्तिबोध ने लिखा है कि-" शमशेर की आस्था ने अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली महल अपने हाथों तैयार किया है। उस भवन में जाने से डर लगता है-उसकी गंभीर, प्रयत्नसाध्य गम्भीरता के कारण।" मुक्तिबोध ने 'आत्मा का भूगोल' और 'आत्मा का इतिहास' को उनके शिल्प के विकास का कारण माना और उनके काव्य-व्यक्तित्व और शिल्प के अटूट जुड़ाव को रेखांकित किया।
शमशेर को विचारधारा के सौन्दर्यबोधी रूप को साहित्य और कला में ढालने में महारत हासिल है। 'अमन का राग' (1945) में कवि की सौन्दर्य दृष्टि स्पष्ट लक्षित होती है-
" ये पूरब-पच्छिम मेरी आत्मा के ताने बाने है
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द
लपेट लिया है
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आंच की धूप छांव पर
बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर है
क्योंकि मैं ह्यदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव हम
एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे है
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह "
अतः एक ऐसे विश्व की कामना कर रहा है कवि जिसमें एक नया इंसान धर्म, जाति, देश की चहारदीवारियों से आजाद हो शांति, सुख और प्यार को रोजमर्रा की जिंदगी में ही पा जाएगा। कवि शमशेर में विचार और यथार्थ बहुत छनने के बाद कविता में ढलता है, या फिर यों कहे कि उनके ज्ञानात्मक संवेदन की विशेषता यह है कि वे अनुभूत वास्तविकता को काफी गलाते और संघनित करके कविता में फिर से मूर्त करते हैं, अपनी ही कल्पना में फिर-फिर उसे सिरजते हैं। अर्थात् वे अपनी कविताओं पर सहज में काफी श्रम भी करते है या फिर कहे कि उनकी कविता की परिपक्कवता में काफी कुछ छन कर आता है।
प्रगतिशील कविता में अगर त्रिलोचन और नागार्जुन में देशज, स्थानीय, ग्रामीण संदर्भ अधिक मुखर है, तो शमशेर में नितांत वैयक्तिक संदर्भ वैश्विकता और अंतरराष्ट्रीयता का रूप ग्रहण करते नज़र आते हैं। अज्ञेय ने शमशेर के बारे में लिखा " वह प्रगतिवादी आंदोलन के साथ रहे, लेकिन उसके सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले कभी नहीं रहे....उन्होंने मान लिया कि हम उस आंदोलन के साथ हैं, और स्वयं उनकी कविता है, उसका जो बुनियादी संवेदन है, वह लगातार उसके बाहर और उसके विरुद्ध भी जाता रहा और अब भी है....हम चाहें तो उन्हें रूमानी और बिम्बवादी कवि भी कह सकते है।" शमशेर ने स्वयं अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में कहा है कि " बच्चे अपनी सब बातें समझा लेते है-बावजूद इसके कि वो शब्द बहुत से नहीं इस्तेमाल करते लेकिन इतनी अच्छी तरह से समझा लेते हैं, नन्हें-नन्हें बच्चे, कि उनकी बात सब स्पष्ट होती है। ठीक इसी तरह से मेरी भी बहुत सी कविताएँ बच्चों जैसी अटपटी हैं। बहुत अटपटी हैं। लेकिन उसमें वो फोर्स बच्चों जैसी है। यानी कोई बात मैं कहना चाहता हूँ और वो उन इमेजेस के जरिए आती है जो मेरे सामने आ जाते हैं।" साफ है कि शमशेर की कविताएँ किसी राजनीतिक विचारधारा से बंधी हुई नहीं है। वास्तव में उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता को वादों से ऊपर रखा। रचना के स्तर पर वे ठेठ लोक की ज़मीन से जुड़े हुए कवि हैं। उनकी कविताओं में राजनीति सहज में ही देश, काल, वातावरण के परिप्रेक्ष्य में उभर कर आ जाती है। 1948 में शमशेर ने निज़ामशाही के खिलाफ भी एक छोटी सी नज्म लिखी थी-' ये चालबाज हुकूमत फिरंगियों का गढ़ / बनी हुई है अभी तक फिरंगियों का गढ़ / लगे अवाम की ठोकर निज़ामशाही को।" शमशेर आरंभ में जिसे माक्र्सवाद कहते थे, उसके लिए दस वर्ष बाद कुछ अधिक-ढीली शब्दावली 'समाज सत्य' या उससे भी अधिक ढीली शब्दावली 'समाज-सत्य का मर्म', 'इतिहास की धड़कन' आदि का प्रयोग करते हैं। अतः वे जीवन के सौंदर्य को समझने के लिए माक्र्सवाद से आगे जाने की ओर इशारा करते है। उनकी प्रकृति हमेशा वस्तुपरकता को उसके शुद्ध रूप या उन्हीं के शब्दों में उसके 'मर्म-रूप' में पकड़ने की रही है। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-34-35)।
शमशेर ने कविता के छंद, लय, शब्दावली सबमें बहुत से नये प्रयोग किये हैं। उन्होंने ऐसे नये प्रतीकों और बिम्बों का सृजन किया है जो कविता के अभ्यस्त पाठकों और श्रोताओं को अक्सर चुनौती की तरह लग सकते हैं। शमशेर की एक कविता है जिसका शीर्षक है-' एक पीली शाम !'
"एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शांत
मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल
का शिल म्लान हारा-सा
(कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कही ?)
वासन डूबी
शिथिल काजल में
लिये अद्भूत रूप-कोमलता
अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्ध्य तारक-सा
अतल में। "
यहाँ आँसू निजी है भी और नहीं भी है। पराया है भी और नहीं भी है। न तो वह बिलकुल आत्मपरक है, और न बिलकुल वस्तुपरक वह अभिव्यक्ति भी है और संकोच भी है। (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-25)। छायावाद के बाद हिंदी कविता के सौंदर्य के दामन को पकड़ने का कार्य एकलौते कवि शमशेर ने किया। उनकी 'सौन्दर्य' कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-
" काश कि मैं न होऊँ
न होऊँ
तो कितना अधिक विस्तार
किसी पावन विशेष सौन्दर्य का
अवतरित हो !
पावन विशेष सौन्दर्य का
कितना अधिक विस्तार
अवतरित हो
यदि मैं न होऊँ।"
अतः शमशेर पल-छिन अवतार लेते हुए सौन्दर्य के गवाह हैं-ऐसे गवाह जिसने इस अवतार के हर-रंग और हर विस्तार को उसके 'अनंत लीला' रूप में अभिव्यक्त करने की शपथ ली है।
शमशेर की यूटोपियन कविताओं में उनके बिंब सघन ठोस और अपारदर्शी लगते हैं। नामवर सिंह को भी उनकी कविताओं में सिर्फ बिंब और काव्य-शिल्प और प्रतीक ही मिले....विचार नहीं। शमशेर स्वयं अपनी रचनाओं के बारे में कहते है कि " कविता के माध्यम से मैंने प्यार करना -अधिक से अधिक चीजों को प्यार करना-सीखा है। मैं उसके द्वारा सौंदर्य तक पहुँचा हूँ। मेरी चेतना इतनी, कह लो कि कंडीशंड हो चुकी है, कि हर चीज में मुझे एक अतःसौंदर्य दिखायी देता है, बिना किसी अतिरिक्त कांशस प्रयत्न के, सौंदर्य का पूरा एक कम्पोजीशन...दृश्य जगत पहले मेरी नज़र में सौंदर्य के एक कम्पोजीशन के रूप में ही आता है....मैं उससे प्रभावित होता हूँ.....काव्य की कुछ उपलब्धियाँ निगेटिव मूल्य के रूप में होती हैं, समझ लो कि यह बरबस सौंदर्य के एक खाके में अपने को अनायास महसूस कर लेना मेरी कविता की वही निगेटिव उपलब्धि है।" (ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ-50) इसीलिए वे अंततः कोई सियासी कवि नहीं, सौंदर्य के चितेरे कवि सिद्ध होते हैं।
शमशेर की प्रायः सभी कविताएँ एकालाप हैं-आन्तरिक एकालाप। "बक रहा हूँ जुनूँ में क्या कुछ / कुछ न समझे खुदा करे कोई " के अन्दाज में । " उसने मुझसे पूछा, इन शब्दों का क्या। मतलब है ? मैंने कहा : शब्द। कहाँ हैं ? " राग। (शमशेर की शमशेरियत, डॉ.नामवर सिंह)। नामवर सिंह ने शमशेर पर अपने लेख में शमशेर को सिर्फ कवि माना है। "न 'शुद्ध कविता' का कवि, न 'कवियों का कवि', न प्रयोग का कवि और न प्रगति का ही कवि ! कुछ कवि ऐसे होते हैं जिन्हें हर विशेषण छोटा कर देता है। (27 जुलाई 1990, 'शमशेर : प्रतिनिधि कविताएँ' की भूमिका)
शमशेर अच्छे गद्यकार भी रहे हैं। उनका अच्छा गद्य उनकी डायरी और लेखों में मिलता है। अपने अच्छे गद्य में शमशेर खूब खुलते हैं। न वाक्यों की बनावट से उनके विचार अधूरे रह जाते हैं, न अधूरे वाक्यों से उनका चिंतन गड्ड-मड्ड होता है। उनका गद्य अमूर्तन से मूर्तन की ओर बढ़नेवाला गद्य है जिसमें उनका चिंतन और अनुचिंतन समाहित है। कविता हो, या कहानी या फिर संस्मरण जैसी अकाल्पनिक गद्य विधा ही हो-तीनों में शमशेर के व्यक्तित्व की निश्छलता, भावप्रवणता, अध्ययनशीलता और सौंदर्य दृष्टि के वैशिष्ट¬ को साफ-साफ पहचाना जा सकता है। उनका गद्य खुद से उलझता है, खुद को उधेड़ता भी है, खुद की 'खबर' भी लेता है यानी एकांत में शमशेर गद्य में आत्मालाप करते हैं। 'दोआब' शमशेर की पहली गद्य कृति है, उसके गद्य को आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने अच्छा गद्य माना है। शमशेर की दूसरी कृति है, 'कुछ और गद्य रचनाएँ "। इस की रचनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि उनके अच्छे गद्य में घनत्व और प्रसार दोनों शैलियाँ विद्यमान हैं। उनके गद्य में ठोस जमीन और स्वदेशी गहराई है। प्रसार में वह खुद को खोलते हैं, संस्मरण सुनाकर, अपनी मान्यता को पुष्ट करते हैं। कैफी आज़मी, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, गालिब, इक़बाल और रहीम पर लिखी उनकी समीक्षाओं में उनकी साहित्यिक सुरुचि यानी श्रेष्ठ स्तर की कसौटी मिलती है। उनका गद्य बातचीत की शैली का संवाद है। वह जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते है। लिखते समय भी वह खुलापन लाते है।
भाषा शमशेर के लिए कविता है, सिर्फ एक माध्यम नहीं। और कविता भी कैसी ? जिसमें बहते-बहते वे संस्कृति-नहीं, संस्कृतियों के उद्गम तक पहुँचने का उपक्रम करते है। उनकी काव्य भाषा बहुत लचीली और संकेतात्मक है। डॉ. गंगा प्रसाद विमल उन्हें हिंदी की कविता भाषा को हिंदुस्तानियत के लहजे से पुष्ट करनेवाला मानते है। इसी कारण उनकी शमशेरियत लोगों से अपना लोहा मनवा लेती है। 'कुछ कविताएँ' की भूमिका में शमशेरने लिखा है, " हर भाषा की जान होता है मुहावरा। और मुहावरे हिंदी-उर्दू दोनों के बिलकुल एक हैं।" मुहावरे ही क्यों, दोनों का काफी शब्द-समूह और व्याकरण भी एक है। इसीलिए बोलचाल में दोनों प्रायः एक हैं। अतः उन्होंने हिंदी, उर्दू के विश्लेषण को नहीं संश्लेषण को ही महत्व दिया। जिसका प्रमाण उनकी रचनाएँ हैं। उनकी डायरियों, स्केचों, कहानियों, समीक्षाओं में भाषा की निजी खनक है। और यह खनक कई किस्म की है-कहीं जेस्ट उर्दू की पच्चीकारी, कहीं ग्राम्य बोलियों का संगीत, कहीं अंग्रेजी का वाक्य-विन्यास। ख़ास तौर पर उनकी ग़ज़लों को हिंदी-उर्दू के गंगा-जमुनी संस्कार अथवा हिंदुस्तानी के लहजे के लिए याद किया जा सकता है। यथा-
" आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए
ताक़ पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद "
" मेरी बातें भी तुझे खाबे-जवानी-सी है
तेरी आँखों में अभी नींद भरी है शायद !"
" कितने बादल आए, बरसे औ गए
जिनके नीचे मैं पड़ा सुलगा किया !
छिपके बैठे मेरे दिल की चोट में
आपने अच्छा किया, पर्दा किया
रुक गए हैं क्यों ज़मीनो-आसमाँ
कुछ कनखियों से इशारा-सा किया !"
अंत में यह भी कहना जरूरी है कि शमशेर की रचनाओं को समझने के लिए पाठकों को सभी कलाओं विशेष रूप से चित्रकला का पारखी होना होगा। भावनाओं की गुत्थियाँ, जब कभी शमशेर शब्दों द्वारा न ही खोल पाते तब रंगों का सहारा लेते हैं, क्योंकि शब्द एक सीमा तक ही अमूर्त हो सकते हैं, जबकि रंग प्रकृति से ही अमूर्त के माध्यम हैं। उनका सौंदर्यबोध कालचिंतन से जुड़कर उनकी कविता को काल से होड लेने वाली सृजनात्मकता का प्रतीक बना देता है-
" काल
तुझसे होड़ है मेरी अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूँ।
इसीलिए तेरे ह्दय में समा रहा हूँ
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, आनंदोपरि
मैं-तेरे भी, ओ काल ऊपर !
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !
जो मैं हूँ-
मैं कि जिसमें सब कुछ है....
क्रांतियाँ, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं
मैं, जो वह हरेक हूँ
जो, तुझसे, ओ काल, परे है।"
- डॉ. बलविंदर कौर
3 टिप्पणियां:
यह सही कहा कि शमशेर को समझने के लिए सभी कलाओं का पारखी होना चाहिए। शायद इसीलिए वे उतनी प्रसिद्धि नहीं पा सके जितनी उन्हें मिलनी चाहिए थी। शताब्दी वर्ष के बाद शायद फिर उन्हें भुला दिया गाएगा:(
आदरणीय सर जी प्रणाम ! आपकी इतनी सकारात्मक टिप्पणी को पाकर मन और भी ज्यादा प्रोत्साहित हो गया हैं। इस टिप्पणी के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। दूसरी जो आपने अपनी चिंता ज़ाहिर की है वह सच में सोचने लायक है। खैर! शमशेर के शताब्दी वर्ष के बहाने ही सही हम उन्हें कुछ जान तो पाएँ। पुनः आपकी खूबसूरत टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
हिंदी और उर्दू के विशिष्ट कवि शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में वैशिष्ट्य होगा ही. लेख अच्छा है.पढ़कर आनंद आया. उन्होंने बिंब,रंग और संकेत चिह्नों द्वारा हिंदी कविता में एक विशिष्ट शैली को इजाद किया. उनकी कविता पढ़ने और समझने की कोशिश में भी आनंद आता है. - बालाजी.
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