(Photos by dr.neeraja, dr.balaji & radhakrishna)
मौलाना आजाद विश्वविद्यालय में संपन्न शमशेर शताब्दी समारोह में दो दिन उपस्थित रहकर बड़ा ही सुखद महसूस हुआ| ३०- ३१ के समारोह से पहले मुझे दो दिन हैदराबाद विश्वविद्यालय में द्विदिवसीय संगोष्ठी में भाग लेने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ तो कुल मिलाकर दो अलग अलग संगोष्ठियों के चार दिन| दोनों का अपना अपना विशेष महत्त्व रहा| एक हिंदी भाषा पर थी तो दूसरी हिंदी-उर्दू के महान रचनाकार शमशेर बहादुर सिंह पर|
जब दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में यह कार्यक्रम तैयार किया जा रहा था तो केवल इतनी ही सूचना प्राप्त हुई थी कि यह कार्यक्रम दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और मौलाना आजाद विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया जाएगा परंतु जब आयोजन स्थल पर पहुँची तो सारी व्यवस्थाएँ देखकर आश्चर्यचकित होती रही क्योंकि आयोजन से दो दिन पहले ही सभा से गायब रहने के बावजूद मुझे कोई अतिरिक्त कार्य नहीं सौंपा गया था|
उद्घाटन सत्र में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नामवर जी के बीज व्याख्यान को सुनकर यह भ्रांति दिमाग से निकल गई कि नामवर जी अब संगोष्ठियों में अधिक नहीं बोल पाते| गंगा प्रसाद विमल जी का संस्मरण काफी रोचक रहा| उन से जब भोजन के समय मुलाक़ात हुई असल में उन्होंने ही किसी से कहकर जब मुझे बुलाया तब उन्होंने पहला प्रश्न किया - क्या पंजाबी बोल लेती हो? उनके इस प्रश्न ने ही मुझे अप्रत्यक्ष रूप से इस बात की और इशारा कर दिया कि अपनी जड़ों से जुड़े रहना कितना महत्वपूर्ण है|
डॉ. ऋषभदेव जी ने इस तरह से वक्ताओं व कार्यक्रम के क्रम को तैयार किया कि कहीं से भी सुनने में बोरियत का एहसास नहीं हुआ| बीच बीच में उनकी हँसी तथा हाथ खड़े करके ताली बजाना पूरे कक्ष में असीम उल्हास भर देता था| शायद लोगों को पता नहीं है कि इस आयोजन के पीछे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र के डॉ.ऋषभदेव शर्मा, के.नागेश्वर राव, डॉ.जी.नीरजा का सब से महतवपूर्ण योगदान रहा| हम तो शादी में मेहमान बनकर आए, खाए - पीए, मौझ मस्ती की और चल दिए| सच में आयोजन कई तरह से लाभदायक और ज्ञानवर्धक रहा| शमशेर , हिंदी - उर्दू के बहाने दो समूहों को एक करने की सहज कोशिश वहां बड़े जोरों से नजर आई| कमाल है एक शख्शियत के बहाने इतने सारे मिलाप| बहुत ही अद्भुत अनुभव रहा|
भविष्य में जरूर इस संगोष्ठी से निकले संकल्पों को कार्यांवित करने का प्रयास करूँगी और आशा करूँगी कि आगे भी इस तरह के और और आयोजन होते रहेंगे|
समारोह की विस्तृत रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है.
जब दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में यह कार्यक्रम तैयार किया जा रहा था तो केवल इतनी ही सूचना प्राप्त हुई थी कि यह कार्यक्रम दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और मौलाना आजाद विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया जाएगा परंतु जब आयोजन स्थल पर पहुँची तो सारी व्यवस्थाएँ देखकर आश्चर्यचकित होती रही क्योंकि आयोजन से दो दिन पहले ही सभा से गायब रहने के बावजूद मुझे कोई अतिरिक्त कार्य नहीं सौंपा गया था|
उद्घाटन सत्र में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक नामवर जी के बीज व्याख्यान को सुनकर यह भ्रांति दिमाग से निकल गई कि नामवर जी अब संगोष्ठियों में अधिक नहीं बोल पाते| गंगा प्रसाद विमल जी का संस्मरण काफी रोचक रहा| उन से जब भोजन के समय मुलाक़ात हुई असल में उन्होंने ही किसी से कहकर जब मुझे बुलाया तब उन्होंने पहला प्रश्न किया - क्या पंजाबी बोल लेती हो? उनके इस प्रश्न ने ही मुझे अप्रत्यक्ष रूप से इस बात की और इशारा कर दिया कि अपनी जड़ों से जुड़े रहना कितना महत्वपूर्ण है|
डॉ. ऋषभदेव जी ने इस तरह से वक्ताओं व कार्यक्रम के क्रम को तैयार किया कि कहीं से भी सुनने में बोरियत का एहसास नहीं हुआ| बीच बीच में उनकी हँसी तथा हाथ खड़े करके ताली बजाना पूरे कक्ष में असीम उल्हास भर देता था| शायद लोगों को पता नहीं है कि इस आयोजन के पीछे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र के डॉ.ऋषभदेव शर्मा, के.नागेश्वर राव, डॉ.जी.नीरजा का सब से महतवपूर्ण योगदान रहा| हम तो शादी में मेहमान बनकर आए, खाए - पीए, मौझ मस्ती की और चल दिए| सच में आयोजन कई तरह से लाभदायक और ज्ञानवर्धक रहा| शमशेर , हिंदी - उर्दू के बहाने दो समूहों को एक करने की सहज कोशिश वहां बड़े जोरों से नजर आई| कमाल है एक शख्शियत के बहाने इतने सारे मिलाप| बहुत ही अद्भुत अनुभव रहा|
भविष्य में जरूर इस संगोष्ठी से निकले संकल्पों को कार्यांवित करने का प्रयास करूँगी और आशा करूँगी कि आगे भी इस तरह के और और आयोजन होते रहेंगे|
समारोह की विस्तृत रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है.
2 टिप्पणियां:
वो कवि जो हल्दी की चाय पीता हो, वो कवि जो अपने फटे कुर्ते को अपने हाथों से सी कर पहता हो, अपने मोटे चश्मे से दुनिया देखता हो, उसे सौंदर्य का कवि ही कहा जाएगा!!
हिंदी उर्दू को एक करने का प्रयास स्तुतीय है क्योंकि भाषा तो एक है पर लिपि अलग होने से साम्प्रदायिक छाप अलग दिखाई देती है॥
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