अनुवादनीयता-
किसी भी भाषा में कुछ ऐसे तत्व अवश्य होते हैं, जो किसी भी अन्य भाषा में अनूदित होने के लिए अनुवादक को प्रेरित करते रहते हैं। इसलिए किसी भी तरह के अनुवाद में अनुवादनीयता का बड़ा महत्व होता है।
अनूदित हो सकने की स्थिति अनूद्यता है और यह मूल भाषा पाठ का गुण है। अनूद्यता का निर्धारक तत्व है सममूल्यता-द्विभाषिक समूल्यता या अनुवाद सममूल्यता। अनुवाद सममूल्यता स्थापित हो सकने की वास्तविक और संभाव्य स्थिति ही अनूद्यता हैं। भाषाओं के बीच अननूद्यता की बात की जाती है। वह वास्तव में किन्ही दो विशेष भाषाओं के बीच अननूद्यता की स्थिति के विषय में किया गया सामान्य कथन है। इसे सामान्य तथा सांस्कृतिक संरचनात्मक प्ररूपगत दृष्टियों से दूरस्थ भाषाओं के कतिपय विशिष्ट अंगों-निश्चित कोटि के शब्द, व्याकरणिक कोटियाँ आदि के बीच सम-मूल्यता स्थापति न हो सकने की स्थिति का निर्देश समझना चाहिए। आधुनिक सभ्यता से अति दूर किसी जनजातीय सांस्कृतिक समुदाय की भाषा के किसी आधुनिक भाषा में काफी बड़ी सीमा तक अनूदित न हो सकने के कारण उस भाषा को अननूद्य कहना इसके अन्तर्गत है। भाषायी संरचना के अतिरिक्त दार्शनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पौराणिक शब्दावली भी अनुवादनीयता के स्तर पर अपना अलग संदर्भ बनाए हुए है।
अनुवादनीयता की समस्याएँ-
अन्य अनुवादों की अपेक्षा काव्यानुवाद प्रक्रिया के संदर्भ में अनुवादनीयता और उससे संबंधित समस्याओं का पक्ष आज अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। क्योंकि साहित्यिक अनुवाद की दृष्टि से दो भाषाओं की भाषिक संरचना ही नहीं बल्कि समाज-सांस्कृतिक, सम्प्रेषणपरक पक्ष भी महत्वपूर्ण होते हैं। जबकि सामान्य रूप से अनुवाद के संदर्भ में भाषा (1) और भाषा (2) के संरचनात्मक पक्ष पर ही बल दिया जाता रहा है।
साहित्यिक पाठ में मूल भाषा समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक व भाषागत प्राकार्यात्मक सम्प्रेषणपरक विभेद और अनेक अन्य स्तर इतने गहरे सम्बद्ध होते हैं कि इनमें से कुछ अनुवादनीय होते ही नहीं, कुछ आंशिक रूप से ही अनुवादनीय हो पाते है और कुछ मात्र शाब्दिक स्तर पर।
अनुवादनीयता के संदर्भ में दो पाठों (मूल और अनूदित) की समतुल्यता को कई मापकों पर देखते हुए उनकी मात्रा (Degree) में होने वाले भेद पर भी ध्यान दिया जाता है और इसके मात्र भाषिक ही नहीं, अन्य बिंदुओं पर भी विचार किया जाता है, यथा-
1. संदर्भगत (Degree)
2. अर्थगत (Sementeric)
3. व्याकरणिक (Grammatical)
4. शब्द समूहगत (Lexical)
5. सम्प्रेषणपरक (Communicative)
6. संज्ञात्मक (Congnalise)
7. प्रैगमेटिक (Pragmatic)
8. भाषेतर (Extra linguistic) 1
अनुवादनीयता की दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण यह प्रश्न है कि 'अनुवाद कैसे किया जाय' उतना ही महत्वपूर्ण यह प्रश्न भी है कि 'किस का अनुवाद न किया जाय' अथवा 'किसका अनुवाद कर पाना सम्भव नहीं है'। इन प्रश्नों के संदर्भ में मात्र संरचना को समतुल्यता के परिप्रेक्ष्य में देखना ही पर्याप्त नहीं है। अतः अनुवाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य में भी और विशेष कर साहित्यिक अनुवाद के संदर्भ में यह स्वीकार करना होगा कि भाषा एक औपचारिक संरचना या 'कोड' तो है पर उसमें भाव, अपने आसपास की दुनिया की सम्बद्ध अनुभूतियाँ तथा मनोदशाएँ भी निहित होती हैं जो भाषा में सम्प्रेषणपरक मूल्य के रूप में सुरक्षित रहती है। 2
अतः अनुवाद में अनुवादनीयता का पक्ष आज अर्थ के गहरे संदर्भों, भाषा की समाज-सांस्कृतिक विविधताओं तथा उसकी संप्रेषणपरक सरणियों तक विस्तृत हो चुका है।
अनुवादनीयता के संदर्भ में अनुवाद-पद्धति के निम्नलिखित धरातल निर्धारित होते है :
1. मूल पाठ के कोडीकरण द्वारा (चाहे वह सीमित संदर्भ हो या व्यापक) सांकेतिक पद्धति से लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करती है। जिसके अन्तर्गत भाषेतर और अर्थगत सन्दर्भों को भी महत्व दिया जाता है। अतः अनुवादनीयता का पक्ष इन धरातलों से विशेष रूप से जुड़ता है :
1.1 उपवाक्य का भाषिक स्तर :-
यहाँ अनुवादनीयता को उस प्रक्रिया से बाँधना पड़ता है, जिसमें वाक्यों के घटक किस रूप में संयोजित होकर कोई विशिष्ट अर्थ दे रहे हैं, इसका विश्लेषण हो सके।
1.2 शैली का स्तर :-
यहाँ अनुवादनीयता के पक्ष को मूल पाठ की शैली के साथ जोड़ना पड़ता है। शैली का अन्तरण अनुवादनीय कम होता है। लेकिन मूल पाठ के निरन्तर एवं गहन विश्लेषण द्वारा शैलीय उपादानों में निहित अर्थ को लक्ष्य भाषा में ला पाना ही अनुवादक की सफलता माना जाएँगा।
2. भाषा (1) और भाषा (2) के कुछ महत्वपूर्ण स्तर :
2.1 वर्ण रचना व लेखन पद्धति की समझ होना अनुवादक के लिए काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये अनुवादनीयता के कई स्तर तय करती हैं।
2.2 वाक्य रचना प्रक्रिया :- हर भाषा में एक ही भाव को विभिन्न उक्तियों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है और इनके अर्थ में सूक्ष्म भेद होता है। इसी प्रकार शब्द अर्थ और प्रोक्ति स्तर पर, जहाँ पाठ अनेक स्तरों पर कार्य करता है और एकालाप, संवाद, विवरण के रूप में अनुवादक को उपलब्ध होता है। यहाँ एक ही पाठ कई स्तर पर मिश्रित होता है इसलिए इस स्तर पर भाषा संरचना में भी पर्याप्त भेद आता है।
अतः अनुवाद पद्धति, प्रक्रिया और अनुवादनीयता की विभिन्न सीमाएँ और उसकी दक्षताएँ भाषा (1) और भाषा (2) के सन्दर्भों में बहुआयामी होती हैं। इसी के कारण अनुवाद की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद की दृष्टि से भाषा (1) में प्रस्तुत मूल पाठ का कौन-सा पक्ष (व्याकरण परक, सम्प्रेषण परक, प्रयोजनमूलक, शैलीगत आदि) किस सीमा तक अनुवादनीय हो सकता है या नहीं हो सकता।
आधुनिक भाषा विज्ञान अनुवादनीयता की दृष्टि से भाषिक इकाईयों अथवा भाषा संरचना के अतिरिक्त भाषा के प्रकार्यों (Functions) पर भी अब विचार कर रहा है। क्योंकि अपने प्रकार्य में भाषा अनेक रूपों में सामने आती हैं और बोध गम्यता (Cognation) तथा सम्प्रेषणियता (Communicability) के लक्ष्य को पूरा करती है। अनुवाद में अनुवादनीयता और समतुल्यता का संबंध भाषा के इन प्रकार्यों से भी अनिवार्यतः जुड़ा हुआ होता है।
भाषिक स्तर पर अनुवादनीयता में प्रकार्यात्मक तौर पर प्रासंगिक लक्षणों में कुछ ऐसे (लक्षण) सन्निहित होते हैं जो स्त्रोत भाषा या मूल पाठ की भाषा के तथ्यतः रूपात्मक लक्षण होते है। यदि लक्ष्य भाषा में रूपात्मक तौर पर ये अनुरूप लक्षण नहीं हैं तो वह मूल पाठ अथवा इकाई अपेक्षाकृत अनुवादनीय नहीं होती है। 3
अनुवादनीयता के संदर्भ में एक बिलकुल भिन्न समस्या तब उत्पन्न होती है जब स्त्रोत भाषा पाठ में प्रकार्यात्मक लक्षण विशिष्ट संस्कृति से सम्बद्ध हो और जो लक्ष्य भाषा में पूर्ण रूप से अनुपस्थित हों। इसके साथ ही भाषा के सामाजिक संदर्भ भी अनुवादनीयता को कई धरातलों पर प्रकाशित करते है। अतः यहाँ भी अनुवादनीयता की अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती है।
अनुवाद की दृष्टि से स्त्रोत भाषा में प्रस्तुत मूल पाठ का कौन-सा पक्ष (व्याकरण परक, सम्प्रेषण परक, प्रयोजनमूलक, शैलीगत आदि) किस सीमा तक अनुवादनीय हो सकता है या नहीं हो सकता है, इस दृष्टि से विचार जरूरी है। 'समतुल्यता' की प्राप्ति हर स्तर पर समान रूप से उपलब्ध नहीं की जा सकती। स्त्रोत भाषा के मूल पाठ की इकाइयाँ पूर्ण रूप से अनुवाद योग्य (Translatable) अथवा पूरी तरह अनुवाद अयोग्य (Untranslatable) नहीं होती बल्कि 'कम' या 'अधिक' अनुवाद योग्य होती हैं। इसीलिए समतुल्यता स्त्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा के मूल पाठों तथा स्थिति-संदर्भों के कुछ समान प्रासंगिक लक्षणों के संबंध पर निर्भर करती हैं।
मूल रचनाओं में जो अनुवाद-योग्यता निहित होती है, उसकी खोज बेंजामिन-जैसे चिंतक की चिंता का एक मुख्य विषय थी। अनुवादित होने की योग्यता अनेक रचनाओं की विशिष्ट गुणवत्ता होती हैं। बेंजामिन के अनुसार अनुवाद जितना रचना के जीवन से संबंधित होता है उतना ही उसके परवर्ती जीवन से भी, क्योंकि मूल हमेशा अनुवाद का अग्रज होता है। मूल रचना की लगातार अनेक जिन्दगियाँ होती हैं, जिनके यश को अनुवाद चिह्यित करते चलते हैं मूल की अन्तर्वस्तु के स्थानान्तरण या सम्प्रसारण से अनुवाद बहुत अधिक होते हैं। वे मूल का यशो जीवन होते हैं। अनुवादों में मूल रचना अपना कायाकल्प करती रहती है, नवजीवन, नवपरिधान, नव रूप-रस-गंध से युक्त होती रहती हैं। इसीलिए शायद अनुवाद को वाल्टर बेंजमिन ने साहित्य का परवर्ती जीवन (Afterlife of Literature) बहुत सोच समझकर कहा होगा।4 मूल रचना के सभी पक्षों में अनुवादनीयता नहीं होती और ऐसे पक्षों को अनुवादक को मानना पड़ता हैं। वाल्टर बेंजमिन का कहना था कि जितने ऊँचे स्तर की रचना होती है उसमें उतनी ही अधिक अनुवादनीयता की सम्भावना भी छिपी होती हैं। 5 काव्यानुवाद के संदर्भ में अनुवादनीयता का प्रश्न अनुवादकों के लिए सदैव से एक कठिन समस्या रहा है परन्तु अब भाषागत संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद काव्यानुवाद में अनुवादनीयता से संबंधित कई प्रश्नों के समाधान निकाले जा सकते हैं। बशर्त है कि अनुवादक को दोनों भाषाओं के संस्कारों की समान जानकारी हो !
संदर्भ-
1. दे. अनुवाद समीक्षा (1998) , डॉ. सी.अन्नपूर्णा, पृ-27
2. Language is a formal structure- a code which consists of elements which can combine to signal semantic 'sense' and at the same time a communication system which uses the forms of the code to refer to entities (in the world of the sense & the world of the mind) and create signals which possess communicative value. -Roger j.Bell : translation & translating theory and practice (1991) p.-6-7.
3. अनुवाद समीक्षा, डॉ.सी.अन्नपूर्णा, पृ-34
4. Illumination 1970 by walter Benjamin,Ed : Hannah a Rendt, Tr : Harryzohn, p-71
5. llumination 1970 by walter Benjamin, Ed : Hannah a Rendt, Tr : Harryzohn, p-81
डॉ . बलविंदर कौर
3 टिप्पणियां:
गहन जानकारी से परिपूर्ण!
आभार।
शाब्दिक अनुवाद से मूल की आत्मा भी नष्ट हो सकती है, इसलिए किसी मूल कविता का अनुवाद यदि कोई कवि करे तो अधिक उपयुक्त होगा। मूल भाषा में प्रयोग हुए मुहावरों और कहावतों का अनुवाद कठिन होता है, इसलिए उसके पर्याय अनूदित भाषा में प्रयोग हो तो अनुवाद में भी मूल का स्वाद रहता है। एक पुस्तक के अनुवाद में लिखा था- ‘सिंह कभी तृण नहीं खाता’ जब कि कोई भी हिंदी जानकार सरलता से कहता- शेर कभी घास नहीं खाता’। शाब्दिक अनुवाद कभी हास्यस्पद भी हो जाता है॥ बढिया जानकारी देता लेख- बधाई स्वीकारें॥
बहुत-बहुत धन्यवाद सर, आपने इतने संक्षिप्त में जो जानकारी दी वह सच में बड़ी प्रेरणादायक है विशेष रूप से जो सिंह का उदाहरण आपने दिया, वह तो सच में अनुवाद प्रक्रिया का एक अच्छा उदाहरण है। सर आप हम सभी युवाओं के आदर्श है ...अभी आप से बहुत कुछ सीखना बाकी है । पुनः धन्यवाद के साथ....
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