एक प्रेम का दरिया बहता है !
न जाने कब से !
उसे रोकने के सारे प्रयास
आखिर में विफल रहे !
जैसे एक छोटी-सी झनकार
न जाने इतने कठोर बंद कमरे में
कहाँ से चली आई !
लाख़ बहाने बनाए,
पर तार तो छू गया था
अब भला कहाँ संभलता !
दरिया से मिला और
और दरिया हुआ !
ये कैसी अजीब दीवानगी है ?
शायद इस दुनिया को इसकी
ज्यादा ज़रूरत हैं !
8 टिप्पणियां:
दरिया से मिलके दरिया....
शकील बदायूनी की ये पंक्तियां याद आ गई- फ़ानी में मिलके फ़ानी, अंजाम ये के फ़ानी। सुंदर रचना के लिए बधाई डॉ. बलविंदर कौर जी॥
आज के समय में 'प्रेम का दरिया' की चाह सभी रखते हैं, खोजते रहते हैं दुनिया भर में. और जब पता चलता है तब हैरान हो जाते हैं. अरे! यह तो मेरे मन ही बह रहा है. उसे समय पर खोज निकालने के लिए फरहाद बनने की हिम्मत कम ही लोगों में होती है.
@चन्द्रमौलेशवर जी
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय चन्द्रमौलेशवर जी आपने मेरी रचना को किसी न किसी रूप से शकील बदायूनी साहब की चंद पंक्तियों से जोड़कर एक तरह से मुझे यह प्रमाण पत्र दे दिया है कि मुझे भी कुछ लिखना आता है। पुनः इतनी सारी प्रेरणा और ऊर्जा देने के लिए ह्यदय से आपका आभार प्रकट करती हूँ।
@ डॉ. बी.बालाजी
मित्रवर डॉ. बी.बालाजी आजकल आप मेरे ब्लॉग पर नियमित आकर टिप्पणी कर मुझे अत्यधिक प्रोत्साहित कर रहे है इसके लिए पहले तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। दूसरे मेरी कविता दरिया के गूढ़ अर्थ को समझने के लिए पुनः धन्यवाद ! आपकी इतनी सुन्दर टिप्पणी पाकर मन प्रसन्न हुआ।
बहुत सुंदर। प्रेम को भावों को बहुत ही संजीदगी से आपने शब्दों में ढाला है।
आदरणीया बलबिन्दर जी , आपके ब्लाग पर पहली बार आया हूँ वह भी गुरुदेव चन्द्रमौलेशवर जी के ब्लाग से , प्रेम का बिम्ब लिए यह रचना दरिया तक पहुँच जाती है | मगर दुनिया को इसकी ज़रूरत है | सुंदर अभिव्यक्ति , बधाई की पात्र है आप...
प्रेम के दरिया में गर सब डूब जाए तो दुनिया कितनी निराली हो जए..
बहुत खूब..
पर तार तो छू गया
...
दरिया से मिला और दरिया हुआ
वाह
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