मंगलवार, 3 मई 2011

केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी

  


केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में 21 अप्रैल 2011 को आन्ध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के तत्त्ववधान में प्रो.ऋषभदेव शर्मा जी का व्याख्यान 'केदारनाथ अग्रवाल की कविता में प्रेम' अत्यधिक ज्ञानवर्धक और एक कवि की गहनतम संवेदना का प्रतिबिम्ब रूप साबित हुआ।
इस समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में प्रो.ऋषभदेव शर्मा और गोपाल शर्मा मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे तथा दैनिक समाचार पत्र 'स्वतंत्र वार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने केदारनाथ अग्रवाल के पूरे कृतित्व का संक्षेप में परिचय देते हुए उनकी रचनाओं में प्रेम पक्ष पर बोलने को ही मुख्य आधार बनाया। वैसे केदारनाथ अग्रवाल को प्रगतिशील कवि कहा जाता है परन्तु 'प्रेम' पर, और वह भी पत्नी प्रेम पर लिखी कविता के कारण भले ही प्रगतिवादी उनसे चिढ़ते रहें हो, लेकिन पारिवारिक स्तर पर उन्होंने ऐसी कविताओं के माध्यम से अपनी जीवन संगीनी को सम्मान प्रदान कर अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह किया है। ये बड़ी विडम्बना है कि भारत की प्रगतिशीलता में प्रेम का कोई स्थान नहीं है जबकि माक्र्स, लेनिन, एंगेल्स और चेगवारा ने भी प्रेम कविताएँ लिखीं। प्रो.शर्मा की यह मान्यता है कि शोषित और मजदूर भी प्रेम करता हैं। 'प्रेम' तो मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धी हैं।
केदारनाथ जी के काव्य संग्रहों में 'हे मेरी तुम' शीर्षक से संकलित कविताओं में उन्होंने अपनी पत्नी पार्वती देवी को लक्ष्य बनाकर काव्य रचना की हैं। केदार के लिए तो उनकी पत्नी ही उनकी रचना की प्रेरणा, प्रियसी आदि-आदि रहीं हैं।
केदारनाथ ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रेम को मानवीय जीवन की एक अनिवार्य मूल प्रवृत्ति माना। उनका प्रेम मांसलता से उत्पन्न है वह  केवल भावना का व्यापार नहीं हैं।
प्रेम की उनकी छोटी-छोटी कविताओं में उनकी प्रेम संबंधी मान्यताओं की स्पष्ट झलक मिलती हैं। प्रेम के संबंध में उनकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

मेरे गीतों को तब पढ़ना
बार-बार पढ़कर फिर रटना
सीखो जब तुम प्रेम समझना
प्रेम पिए बस पागल रहना।

केदार की कविताओं में प्रयुक्त 'तुम' सर्वनाम का प्रतीक नहीं है बल्कि वे उनकी पत्नी  को संबोधित 'तुम' है जिससे उनके गहन संबंधों का पता चलता है। उन्होंने अपनी पत्नी को ही अपनी प्रियसी घोषित कर पत्नी प्रेम को बासी और ठंडा होने की मान्यता को खण्डित किया। संकेतों में  केदारनाथ ने 'प्रेम' के विस्तृत रूप को भी प्रकृति, पत्नी, पुत्र, पुत्री, नाती-नातिन आदि के माध्यम से भी बिम्बित किया।
'प्रेम' की कविताओं के अंतर्गत ही अपनी पत्नी से वृद्धावस्था की दशा के संबंध में बातचीत करते हुए कवि  कहता हैं-


मैं पौधों से, फूलों से करोटन से भी बात कर लेता हूँ पत्नी भी ऐसा ही करती है।
ये ही सह्यदय  उदार कुटुम्बी रह गए है।
पत्नी ही बच जाती है जो एक मात्र श्रोता हो जाती है
घरु जीवन झलमला उठा है...

साथ ही एक और किसी अन्य कविता में सुबह की  धूप को बछड़े की तरह पालने पर बल देते है।
अतः एक तरह से कवि इन पंक्तियों के माध्यम से वृद्धावस्था विमर्श करते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन में आखिर उस पत्नी के बलिदान, प्रेम, सम्मान को याद करते हुए उसकी उपयोगिता को समझता हैं। उन्होंने परकीय आकर्षण को सामाजिक दायित्व से हीन कविताएँ मानते हुए उसे अस्वीकार किया है।
इसी संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार नामवर सिंह जी की बात को जोड़ा जा सकता है कि उन्होंने भी इस वर्ष के चार प्रमुख कवियों के जन्मशताब्दी वर्ष में केदारनाथ के विशिष्ट महत्व को उजागर किया है। एक प्रगतिशील कवि व साथ ही भारतीय मूल्य दृष्टि, नैतिक मान्यताओं का इतना बड़ा समर्थक विरला ही कोई होगा।
इस गोष्ठी की सबसे बड़ी विशेषता  यह रही कि इसमें प्रो. ऋषभदेव जी ने केदारनाथ जी की ठेरों कविताओं की लड़ी लगा दीं। जिससे आलोचनाओं व समीक्षाओं से भिन्न कविताएँ सुनकर एक नयी दृष्टि निर्मित होती हैं।
अंत में गोष्ठी के सारगर्भित व्याख्यान ने निश्चित रूप से केदारनाथ अग्रवाल पर सूई की नोक जितनी जानकारी को विस्तार दिया, जिसके लिए हम सभी प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी के आभारी हैं।
इसी गोष्ठी में प्रो. गोपाल शर्मा जी ने प्रकारांतर से शेक्सपीयर के प्रेम प्रसंगों की तुलना में केदार को श्रेष्ठ साबित किया। डॉ. राधेश्याम शुक्ल जी ने तो बड़े ही खुले विचार से प्रेम को किसी परिधि में बाँधने का विरोध किया। समारोह में इन सब वक्तव्यों के अतिरिक्त कई लोगों से भेंट और आत्मिय संबंध के बन जाने की प्रक्रिया ने भविष्य में पुनः पुनः इस तरह की गोष्ठियों में भाग लेने के लिए खूब प्रेरित किया है। पुनः इस गोष्ठी के आयोजकों के साथ-साथ जिन लोगों ने इसमें भाग लेकर इसे सफल बनाया, उन सबका पुनः धन्यवाद।  

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