महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों व हिंसा का इतिहास काफी पुराना है। जब पित्तृसत्तात्मक व्यवस्था ने किन्हीं कारणों के परिणामस्वरूप स्त्री को अपने से कमजोर, निर्बल पाया, तभी से शायद स्त्री पर हिंसा की कहानी आरम्भ हुई। इस हिंसा का मूल कारण था- स्त्री को मानवी न समझना तथा उस पर किसी भी तरह के अधिकार लादने की स्वतंत्रता पाना। स्त्री का पुरूष की निजी संपत्ति बनना ही उसकी परतंत्रता, गुलामी की शुरूआत थी। प्राचीन काल से लेकर आज तक कई रूपों में स्त्री पर हिंसा का तांडव बदस्तूर जारी हैं। यदि हम इस बात पर विचार करें कि आखिर स्त्रियों पर इतनी हिंसा क्यों बढ़ रही है ? तो इसके कई भौतिक, सामाजिक-आर्थिक- सांस्कृतिक कारणों के अतिरिक्त राजनीतिक कारण भी रहें हैं।
स्त्री पर हो रही हिंसा का मूल कारण उसके शरीर का पुरूष के शरीर से कुछ हद तक भिन्न होना हैं। समाज ने जाने-अनजाने स्त्री-पुरूष के बीच जब से भेद करना आरम्भ किया. उसी दिन से दोनों के मध्य एक असंतुलित असमानता निर्मित हो गई। स्त्री पर हो रहे अत्याचारों का मूल कारण उसकी देह है। स्त्री की 'देह' के भिन्न आयामों को समझने में कई देशी-विदेशी महिलाओं व पुरूषों ने जमकर शोध किए। 'सीमॉन बाउवा' , की पुस्तक ' दि सेकेंड सेक्स' और केट मिलट की 'दि सेक्सुयल पॉलिटिक्स' ऐसी आरम्भिक पुस्तकें थी जिन्होंने स्त्री को एक मानव का दर्जा प्रदान करवाने के प्रयत्न किए। इस उत्तर-आधुनिक समय में ऐसी अनेकों पुस्तकें, फिल्में व संस्थाएँ आदि विकसित हो चुकीं है, जो स्त्री की देह से जुड़ें कई मुद्दों को तर्क के साथ सामने लाती हैं। इस संदर्भ में सैंकड़ों किस्म का स्त्री साहित्य विश्व की लगभग कई भाषाओं में भिन्न-भिन्न मुद्दों को लेकर लिखा जा रहा हैं।
महिलाओं पर बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए अब तक कई महिला आन्दोलनों के साथ-साथ आयोगों व संगठनों की भी स्थापना हुई, लेकिन फिर भी भिन्न स्तरों व वर्गों की महिलाओं को कई तरह की हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। समाज में किसी भी वर्ग की महिला की स्थिति अधिक बेहतर नहीं है। स्त्री की खुद की 'देह' उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है और कमजोरी भी, इसलिए उस पर स्त्री का ही अधिकार होना चाहिए, क्योंकि पुरूष उस पर आधिपत्य जमाकर स्त्री को कई तरह की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक यातना दे सकता हैं। वैसे तो महिलाओं पर हो रही हिंसा को नियंत्रित करने के लिए इतने कानूनी अधिनियम (एक्ट) बने है कि उसकी तुलना में पुरूष के लिए शायद ही कोई कानून बना हों। उदाहरण के लिए घरेलु हिंसा अधिनियम 2005, संपत्ति अधिकार अधिनियम आदि-आदि। लेकिन विडम्बना की बात तो यह है कि स्त्रियों के लिए जितने अधिक कानून बने हिंसा भी उसी मात्रा में बढ़ी है। ऐसे में समस्या की मूल जड़ को पकड़ना होगा।
इन सबके अतिरिक्त भी भिन्न-भिन्न धर्मों की महिलाओं के साथ हिंसा की कुछ विशिष्ट समस्याएँ रही जैसे-हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि धर्मों की स्त्रियों पर हिंसा का तांडव कुल मिलाकर एक सा रहा हैं। ऐसे में समाज को यह जानना जरूरी है कि ये धर्म के ठेकेदारों की राजनीति व दोहरेपन का ही परिणाम है क्योंकि धर्म के सामने सभी समान हैं। निम्न वर्ग की स्त्री के साथ तो हर तरह का शोषण अपनी अंतिम अवस्था पा लेता है। हिंदी में ऐसी कईयों फिल्में है जिसमें निम्न जाति की महिलाओं के साथ सभी वर्ग के पुरूष अमानवीय व्यवहार का परिचय देते हैं- बैंडिट क्कुयिन , बवंडर जैसी कई फिल्में इसके प्रामाणिक उदाहरण हैं। आए दिन समाचार पत्रों में जहाँ एक ओर पिछड़ी जाति की महिला को नंगा घूमाया जाता है तो कई अन्य क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, बलात्कार आदि की सैंकड़ों घटनाएँ सामने आई हैं। कुलमिलाकर विश्व की सारी महिलाओं की दशा लगभग एक जैसी ही हैं। बहरहाल अब यहाँ यह बात गौर तलब है कि ये हिंसा महिलाओं पर क्यों हो रही है ? क्या ये कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा की कमी है जिसकी वजह से हमें अभी भी ये दुर्भाग्यपूर्ण मामले देखने-सुनने पड़ रहे हैं ? क्या लड़कों को ये ही शिक्षा दी जाती है- बेटा तू जो करे सब सही है तू लड़की को छेड़े सहीं है, तू अपनी पत्नी को पीटे सही है, तुझे अधिकार है पीटने का, तू दूसरी शादी करे सही है- क्या लड़के को ही संस्कार दिए जाते है लड़कियों के प्रति अपने परिवार से। और उसकी तुलना में लड़की को कहा जाता हा हमेशा चुप रहने को सहने को, शादी के बाद उसका घर अब पति का घर है और पति की पिटाई भी। ऐसे में क्यों नहीं हम अपनी बेटियों को आवाज उठाने के लिए उत्साहित करते है, उसे इतना पढ़ाते है लेकिन अंत में सब बराबर हो जाता है।
महिलाओं पर हिंसा के मुख्यतः दो रूप देखने को मिलते हैं- शारीरिक और मानसिक। इस युग में भी शहर की महिलाएँ शिक्षा प्राप्त कर भी अपने कानूनी अधिकार को जानते-पहचानते उसका प्रयोग नहीं करती है- यह एक बड़ी विडंबनापूर्ण स्थिति हैं। क्योंकि अब तक के पितृसत्तात्मक समाज ने कई सैंकड़ों वर्षों से स्त्री को जो प्रशिक्षण संस्कार दिए दिए है उससे वह चाहकर भी नहीं उभर पाई हैं। उससे जुड़ी कई समस्याओं में उसकी देह सुचिता का प्रश्न उसमें समाज द्वारा इतना कूटकूट कर भर दिया गया है कि उसके साथ हुए बहुत से अमानवीय व्यवहारों के प्रति भी वह इसलिए खामोस रहती है कि कहीं किसी को उसकी असुचिता का पता न लग जाएँ। जहाँ तक ग्रामीण महिलाओं का प्रश्न है वे भी अब निजी संस्थाओं द्वारा अपने अधिकारों व अपने ऊपर हो रही हिंसा के प्रति जागरूक तो हो रही हैं लेकिन उनकी पहल भी शोषण के खिलाफ कोई व्यापक रूप धारण नहीं कर सकी हैं। महिलाओं पर पुरूष प्रताडनाओं का अभी हाल ही में साहित्य जगत में एक मुद्दा काफी गरमाया रहा- जब किसी उच्च अधिकारी ने महिला लेखन को पूरी तरह ख़ारिज़ ही नहीं किया बल्कि महिला लेखन को 'छिनाल प्रवाद' की संज्ञा दे दीं। ये तो सरासर स्त्रियों के प्रति सामाजिक और मानसिक उत्पीड़न हैं। इतना ही नहीं ऐसे सैंकड़ों मुद्दें है जहाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने अपना वर्चस्व स्थापित कर महिलाओं के बढ़ते कदम को रोकने के लिए असभ्य भाषा का प्रयोग कर उन्हें बदनाम व निरूत्साहित किया। इसी घटना को लेकर जब महिलाएँ एक हुई तो अधिकारी को माफी माँगनी पड़ी। इसी तरह के ढ़ेरों उदाहरण है जहाँ महिलाओं ने एकजुट होकर न्याय पाया। अतः स्त्रियों की जागरूकता, एकता ने उसे, परिस्थितियों को बदलने की शाक्ति दीं।
महिलाओं पर बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए अब तक कई महिला आन्दोलनों के साथ-साथ आयोगों व संगठनों की भी स्थापना हुई, लेकिन फिर भी भिन्न स्तरों व वर्गों की महिलाओं को कई तरह की हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। समाज में किसी भी वर्ग की महिला की स्थिति अधिक बेहतर नहीं है। स्त्री की खुद की 'देह' उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है और कमजोरी भी, इसलिए उस पर स्त्री का ही अधिकार होना चाहिए, क्योंकि पुरूष उस पर आधिपत्य जमाकर स्त्री को कई तरह की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक यातना दे सकता हैं। वैसे तो महिलाओं पर हो रही हिंसा को नियंत्रित करने के लिए इतने कानूनी अधिनियम (एक्ट) बने है कि उसकी तुलना में पुरूष के लिए शायद ही कोई कानून बना हों। उदाहरण के लिए घरेलु हिंसा अधिनियम 2005, संपत्ति अधिकार अधिनियम आदि-आदि। लेकिन विडम्बना की बात तो यह है कि स्त्रियों के लिए जितने अधिक कानून बने हिंसा भी उसी मात्रा में बढ़ी है। ऐसे में समस्या की मूल जड़ को पकड़ना होगा।
इन सबके अतिरिक्त भी भिन्न-भिन्न धर्मों की महिलाओं के साथ हिंसा की कुछ विशिष्ट समस्याएँ रही जैसे-हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि धर्मों की स्त्रियों पर हिंसा का तांडव कुल मिलाकर एक सा रहा हैं। ऐसे में समाज को यह जानना जरूरी है कि ये धर्म के ठेकेदारों की राजनीति व दोहरेपन का ही परिणाम है क्योंकि धर्म के सामने सभी समान हैं। निम्न वर्ग की स्त्री के साथ तो हर तरह का शोषण अपनी अंतिम अवस्था पा लेता है। हिंदी में ऐसी कईयों फिल्में है जिसमें निम्न जाति की महिलाओं के साथ सभी वर्ग के पुरूष अमानवीय व्यवहार का परिचय देते हैं- बैंडिट क्कुयिन , बवंडर जैसी कई फिल्में इसके प्रामाणिक उदाहरण हैं। आए दिन समाचार पत्रों में जहाँ एक ओर पिछड़ी जाति की महिला को नंगा घूमाया जाता है तो कई अन्य क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, बलात्कार आदि की सैंकड़ों घटनाएँ सामने आई हैं। कुलमिलाकर विश्व की सारी महिलाओं की दशा लगभग एक जैसी ही हैं। बहरहाल अब यहाँ यह बात गौर तलब है कि ये हिंसा महिलाओं पर क्यों हो रही है ? क्या ये कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा की कमी है जिसकी वजह से हमें अभी भी ये दुर्भाग्यपूर्ण मामले देखने-सुनने पड़ रहे हैं ? क्या लड़कों को ये ही शिक्षा दी जाती है- बेटा तू जो करे सब सही है तू लड़की को छेड़े सहीं है, तू अपनी पत्नी को पीटे सही है, तुझे अधिकार है पीटने का, तू दूसरी शादी करे सही है- क्या लड़के को ही संस्कार दिए जाते है लड़कियों के प्रति अपने परिवार से। और उसकी तुलना में लड़की को कहा जाता हा हमेशा चुप रहने को सहने को, शादी के बाद उसका घर अब पति का घर है और पति की पिटाई भी। ऐसे में क्यों नहीं हम अपनी बेटियों को आवाज उठाने के लिए उत्साहित करते है, उसे इतना पढ़ाते है लेकिन अंत में सब बराबर हो जाता है।
महिलाओं पर हिंसा के मुख्यतः दो रूप देखने को मिलते हैं- शारीरिक और मानसिक। इस युग में भी शहर की महिलाएँ शिक्षा प्राप्त कर भी अपने कानूनी अधिकार को जानते-पहचानते उसका प्रयोग नहीं करती है- यह एक बड़ी विडंबनापूर्ण स्थिति हैं। क्योंकि अब तक के पितृसत्तात्मक समाज ने कई सैंकड़ों वर्षों से स्त्री को जो प्रशिक्षण संस्कार दिए दिए है उससे वह चाहकर भी नहीं उभर पाई हैं। उससे जुड़ी कई समस्याओं में उसकी देह सुचिता का प्रश्न उसमें समाज द्वारा इतना कूटकूट कर भर दिया गया है कि उसके साथ हुए बहुत से अमानवीय व्यवहारों के प्रति भी वह इसलिए खामोस रहती है कि कहीं किसी को उसकी असुचिता का पता न लग जाएँ। जहाँ तक ग्रामीण महिलाओं का प्रश्न है वे भी अब निजी संस्थाओं द्वारा अपने अधिकारों व अपने ऊपर हो रही हिंसा के प्रति जागरूक तो हो रही हैं लेकिन उनकी पहल भी शोषण के खिलाफ कोई व्यापक रूप धारण नहीं कर सकी हैं। महिलाओं पर पुरूष प्रताडनाओं का अभी हाल ही में साहित्य जगत में एक मुद्दा काफी गरमाया रहा- जब किसी उच्च अधिकारी ने महिला लेखन को पूरी तरह ख़ारिज़ ही नहीं किया बल्कि महिला लेखन को 'छिनाल प्रवाद' की संज्ञा दे दीं। ये तो सरासर स्त्रियों के प्रति सामाजिक और मानसिक उत्पीड़न हैं। इतना ही नहीं ऐसे सैंकड़ों मुद्दें है जहाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने अपना वर्चस्व स्थापित कर महिलाओं के बढ़ते कदम को रोकने के लिए असभ्य भाषा का प्रयोग कर उन्हें बदनाम व निरूत्साहित किया। इसी घटना को लेकर जब महिलाएँ एक हुई तो अधिकारी को माफी माँगनी पड़ी। इसी तरह के ढ़ेरों उदाहरण है जहाँ महिलाओं ने एकजुट होकर न्याय पाया। अतः स्त्रियों की जागरूकता, एकता ने उसे, परिस्थितियों को बदलने की शाक्ति दीं।
कुछ सम्भावित समाधान-
- -सामाजिक सोच में आमूलचूल परिवर्तन- जो एक कल्पना मात्र हो सकती है लेकिन समाज को बेहतरी के लिए स्त्री के प्रति अपनी पारंपरिक सोच को बदलना होंगा।
- -महिलाओं को शिक्षित करने हेतु पितृसत्तात्मक समाज को आगे आना होगा तथा सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं को उन्हें हर तरह से शिक्षित करना होंगा।
- -स्त्रियों को हर तरह से सशक्त करना होंगा।
- -पितृसत्तात्मक सोच को उलटकर संतुलित दृष्टि विकसित करनी होंगी।
- -स्त्री-पुरूष में सामान रूप से एक-दूसरे के प्रति परस्पर वि·ाास, प्रेम, सौमनस्य और सौहार्द की भावना को विकसित करना होंगा।
- -समाज द्वारा महिला उत्पीड़न, यौन शोषण के विरूद्ध सख्त कानून बना कर स्त्री-हिंसा के मामलों को तत्काल निबटाना होंगा।
- -महिलाओं के लिए विशेष न्याय व्यवस्था का समायोजन तथा हक की लड़ाई के लिए समुचित स्त्री संसाधनों की व्यवस्था भी की जाएँ।
- -अपने पर होने वाले किसी भी तरह की हिंसा को बिना भय के समाज के सामने लाना होंगा।
- -उसे किसी तरह के लालच, कमजोरी, दुर्बलता को गले नहीं लगाना चाहिए।
- -महिलाएँ एकजुट हो हिंसा फैलाने वाले तत्वों के प्रति जागरूक रहें।
आज तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था महिलाओं पर अधिकार, हिंसा, अत्याचार को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती रही हैं, लेकिन अब उन्हें ये विचार बदलने होंगे। महिलाओं को बेहतरीन व उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्हें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर स्वावलम्बी बनाया जाएँ। आज ऐसे कई कानून बन गए हैं जहाँ परिवार में पैदा होने वाली लड़कियों के लिए विशेष अधिकार, योजनाएँ निर्मित है जिसका वे लाभ उठा सकती है। सरकार ने किसी घर में एक ही लड़की संतान होने पर उसकी पूरी शिक्षा-दीक्षा का दायत्व उठा रखा हैं। हाल ही में किरन बेदी द्वारा प्रस्तुत 'आपकी कचहरी' धारावाहिक एक तरह से महिलाओं पर बढ़ रही हिंसा को रोकने का सफल प्रयास था। इसके अलावा भी टी.वी के कई कार्यक्रमों द्वारा महिलाओं पर हो रही हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई जा रहीं हैं। आरूषि हत्याकांड के न्यायिक फैसले ने महिला सशक्तीकरण की धारणा को और मजबूत कर दिया है। अब जरूरत है तो केवल स्वयं में साहस और निडरता पैदा करने की।
कुलमिलाकर महिलाओं को भी आत्मसंयम के साथ अपने आत्मविश्वास को बनाए रखते हुए लोकतांत्रिक पद्धति से ऐसे हिंसक समाज का विरोध करना चाहिए। सरकार व निजी संस्थाओं ने महिलाओं को इन हिंसक प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए बहुत से प्रशिक्षण केन्द्र खोल रखे हैं साथ ही वे कई जगह जाकर अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की शिकायत भी दर्ज करा सकती हैं। असल में महिलाओं पर हिंसा को रोकने के लिए खुद समाज के प्रत्येक व्यक्ति को पहल करनी पढ़ेगी।
डॉ. बलविंदर कौर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें