शनिवार, 4 मई 2013

रिश्ते

फिर द्वन्द्व में झुझलाया मन !
रिश्ते समर्पण चाहते है ?
मैं कब पीछे थी इसमें ?
पर द्वन्द्व किस बात का...
असल में रिश्ता होते ही कुछ...
बँधने-सा लगता...
रिश्ते भी सीमा में जकड़ने लगते 
ऐसे में जो पूरे डूबते 
या फिर स्तह पर ही रहते ...
उनका क्या ?
उन्हें मिलती - असुरक्षा और...
और निराह द्वन्द्व !
तो अब समझ आया
सभी कुछ नहीं निभ सकता
ईमानदारी से !
कुछ न कुछ छूट ही जाता है
वे लोग और है जो निभा जाते है...
हर रिश्ते को...
पर कैसे...?
इसी द्वन्द्व में हूँ ...
शायद कभी उत्तर मिलें !


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