गुरुवार, 3 नवंबर 2011

गर्भ में आना-2


 जिसका चुपके से इंतज़ार,
उसी के आने से बेख़बर
जब उसका आना, जाना !
तो अपने को पहचाना !
पर मेरी ख़ुशी किसका अफ़साना ?
क्योंकि मुझे तो अपने को बिसराना !
फिर मेरी ख़ुशी का क्या ?
बात सुन सहम गई  !
फिर ज़िद में आगे हुई  !
बहुत से सवाल-ज़वाब के साथ !
पर डर हर पल बढ़ता गया !
कि जिसने अपने को न जाना
दूसरे को पहचान देगा-क्या ?
इसी द्वन्द्व में खड़ी हूँ !
फिर भी डर-डर लड़ी हूँ !

गर्भ में वह-1


न जाने कौन है वह !
न मुझे उसकी पहचान !
बातें करते डरती हूँ
पता नहीं क्या माँग ले ?
कैसे रहता होगा-वह ?
असल बरदाश्त का पुतला है !
कभी इस बात को सोच सहम जाती हूँ !
कितना अपना-सा लगते हुए...
एक ही पल में पराया लगे !
मैंने कोई सपना नहीं संजोया !
उसके आने के लिए....!
शायद ये ज़ायदती है !
ये जानकर भी अंजान होना होगा !
क्योंकि वह बहुत बड़ा रहस्य है !
मेरे गर्भ में जो पल रहा है !
उसके आदि-अंत से बेख़बर
मैं सब कुछ को विस्मृत कर देती हूँ !
इसी में शायद सुकून है !

कुछ मुक्तक


 जिंदगी में आना
  दो वक्त का ख़ाना
 फिर सब भूलाना
  वापस चले जाना।

तेलंगाना का होना
ये है कैसा रोना
राजनीति का खिलौना
जनता का कभी न  होना।

दर्द का आना
जैसे हो फसाना
कभी इधर आना
कभी उधर जाना
और कभी न हो ठिकाना !

आँखों का मोल बड़ा
जो न कहा वह गढ़ा
न कहकर कुछ मढ़ा
जिसे ले तू अढ़ा!

पानी न होता
तो फिर कैसा गोता !
कपड़े कैसे धोता
इंसान कैसे होता !

फूल का खिलना 
जैसे तुमसे मिलना
कली का टूटना
जैसे तुम्हारा रूठना !

दूर से मुसाफ़िर आया
आँखों में कई सपने लाया
हमने उसे बडा शताया
पर आख़िर में वह बड़ा भाया !

शब्दों के बिम्ब 
क्यूँ हो गए पलछिन
जो रहते थे शब्दों से अभिन्न
आज है छिन्न-भिन्न !

साक्षात्कार !
किसका-किससे ? 
मेरा जिंदगी से, 
या जिंदगी का मुझसे ?
आख़िर में क्या फ़र्क पड़ता ?
दोनों तरफ से तो मैं केन्द्र में अड़ता ....!

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

अपनापन

रेणु ने जब बचपन के अपने अकेलेपन व असुरक्षा भाव को समझा तो मन ही मन वह फैसला कर चुकी थी कि शायद उसके किसी से हमदर्दी व अपनेपन के कारण ही वह भी उसकी एवज़ में अपना खालीपन भर पायेंगी। धीरे-धीरे समय गुजरता गया रेणु की बेचैनी भी उसके साथ दुगुनी हुई। अब स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी का आधा-अधूरा ज्ञान उसे अपने को समझने के लिए दुस्साहसी बनाने लगा। लेकिन उसके उस दुस्साहस में भी काफी भोलापन, ईमानदारी थी। जब कोई बिना दिमाग का इस्तेमाल करे केवल दिल ही की सुनता है तो बहुत से ख़तरे बढ़ जाते है। रेणु के साथ भी ऐसा ही हुआ, जब जाने-अनजाने उसने अपनी सीमा रेखा पार की तो फिर क्या था एक के बाद एक वह सभी सीमाएँ पार करती चली गई। आख़िर में उसे जो हासिल हुआ उसे दुनिया का वह इंसान तो कतई नहीं समझ सकता, जो कुछ भी करने से पहले उसके परिणाम को सोच लेता है। सच इस अपनेपन की कहानी ने रेणु को जाने-अनजाने दुनिया के एक रहस्यमय चेहरे से रू-ब-रू कर दिया।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

अज्ञेय के उपन्यासों में अस्मिता, जिजीविषा और मृत्यु बोध-

भारतीय समाज में अस्तित्त्ववाद की यद्यपि कोई प्रभावी परिवर्तनकारी भूमिका नहीं है फिर भी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में ही 'भारतीय मनुष्य' में अकेलेपन और आत्मपरायापन की अस्तित्वपरक चिंताएँ, उद्वेलन और उत्तेजनाएँ उभरी थी। इन चिंताओं में अनेक रचनाकारों ने सृजनशीलता का स्त्रोत देखा। इस अस्तित्वपरक परिस्थितियों, समस्याओं और द्वन्द्वों के भीतर कथानुभव और काव्यानुभव के नए और विशेष रचनाविन्यास निहित थे। ऐसे में हिंदी साहित्य क्षेत्र में भी कई अस्तित्त्ववाद संबंधी तत्त्वों को आधार बना कर साहित्य सृजन किया जाने लगा। ऐसे रचनाकारों में अज्ञेय का नाम अग्रणिय हैं।

व्यक्ति अस्तित्त्व में पहले आता है और अपनी वैचारिकता का सृजन वह बाद में करता है, अस्तित्ववाद की इस परिकल्पना ने पुराने समस्त चिंतन को चुनौती दी और कहा, 'सिर के बल नहीं, पैर के बल खड़े होकर देखों। इस स्थिति से आकाश का शून्य नहीं, पृथ्वी का यथार्थ दिखाई पड़ेगा। अस्तित्ववाद के उदय से पूर्व देकार्त के प्रसिद्ध कथन-" मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ' को मान्यता प्राप्त थी। अस्तित्त्ववादी चिंतकों ने इसे "मैं हूँ, इसलिए मैं सोचता हूँ, के कथन में इसे परिवर्तित कर दिया।

अस्तित्ववाद के अनुसार मानव मूल्य न शाश्वत होते है और न सार्वभौम। उसने मान्यता दी कि मनुष्य को उन मूल्यों को मानने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए, जिनका चयन उसने स्वयं न किया हो।

अस्तित्ववाद ने यह प्रतिपाद्यत किया कि सत्य के अनेक रूप होने के कारण उसे धारणाबद्ध नहीं किया जा सकता तथा सच्चाई की समझ को भी बँधे-बँधाए मूल्यों में निरुपित नहीं किया जा सकता। परिणामतः अस्तित्ववाद के उभाव के साथ ही तत्वमीमांसीय दर्शन का तिरोभाव होना प्रारम्भ हुआ। अस्तित्ववाद ने तत्वमीमांसीय दर्शन और धर्म की जकड़बंदी से मानव को मुक्त करने का प्रयास किया। इसने मानवीय स्थितियों को समझने का एक सार्थक तरीका सुझाया और अनुभवों की सच्चाई पर बल दिया। साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अस्तित्ववाद ने अपने समकालीन चिंतकों व उनके द्वारा उद्भूत साहित्य को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित किया।

निस्संदेह अस्तित्ववाद ने व्यक्तिगत भावावेशमूलक पद्धति द्वारा चिंतनपरक उपलब्धियाँ अर्जित की। उसने निश्चित परिपाटियों, मतवादों, विचारों और पूर्वाग्रहों को नकारकर जीवन की पारदर्शिता को उजागर किया। 1946 में ज्यां पाल सार्त्र ने 'अस्तित्ववाद और मानववाद' पर भाषाण देते हुए व्यक्ति के महत्व, उसकी स्वतंत्रता, उत्तरदायित्व, स्वावलंबन, चयन की गरिमा और गुणों का समर्थन किया। यही कारण है कि इस चिंतन को तत्कालीन आलोचकों ने मानवतावाद की संज्ञा दी। ऐसा मानवतावाद जिसमें व्यक्तिगत धर्म की संस्थागत धर्म के प्रति, व्यक्तिगत चेतना का समूह योजना के प्रति, मानव स्वातंत्र्य का भौतिक नियति के प्रति सबल विद्रोह है। सूक्ष्म रूप से कहा जाए तो यह चिंतन विशिष्ट का सामान्य के प्रति विद्रोह है।

अतः यह कहना समीचीन होगा कि अस्तित्ववाद एक ऐसी विचार पद्धति है जो वास्तविक अनुभूतियों और उनके चित्रण में सहायक होती हैं। अस्तित्ववाद में संत्रास, मृत्युबोध, क्षण, परायापन (एलियनेशन), अजनबीपन, विसंगति (एब्र्सड) वैयक्तिक-स्वातंत्र्य आदि प्रमुख तत्वों का व्यक्ति संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। इस पद्धति में मनोविज्ञान के तत्त्व दर्शन की ओर अग्रसर होते है।

पश्चिम में आधुनिक विचारधारा के परिणामस्वरूप अस्तित्ववाद अस्तित्व में आया, परन्तु कालांतर में इस चिंतन में अकेलापन, आत्मपरायापन व अस्तित्व संकट की भावना घर करने लगी। कीर्केगार्द को अस्तित्ववाद का जनक माना जाता है। इस विचारधारा के प्रमुख कीर्केगार्द, नीत्शे और स्पेंगलर आस्था व मर्म, सिद्धांत व व्यवहार, बौद्धिक सत्य व वास्तविक सत्य के मध्य बनी खाई को मिटाना चाहते थे। इन्हीं सब विचारधाराओं के बीच श्रमिकों ने अपनी रक्षा हेतु पूँजीपति के विरूद्ध विद्रोह किया। वैयक्तिकता की इसी भावना ने धीरे-धीरे अस्तित्ववादी चिंतन को बल दिया। अतः वह सुरक्षित मूल्यों के स्थान पर जीवंत मूल्यों की ओर बढ़ने लगा। परंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में अस्तित्त्ववाद की संकल्पना कुछ भिन्न और पारम्परिक है। भारतीय समाज में अस्तित्ववाद को उस अर्थ में ग्रहण नहीं किया गया जिस अर्थ में पश्चिमी देशों में। पश्चिम में अस्तित्व की समस्या बुनियादी समस्या बनकर उभरी। लेकिन भारत में आरम्भ में ऐसी स्थिति नहीं थी।

भारत का पुनर्जन्म का सिद्धांत मृत्यु को इतनी दुर्बोध कष्ट कल्पना नहीं बनने देता जितना कि पश्चिम में। भारतीय चिंतन इस दिशा में आशावादी है। अस्तित्व की समाप्ति यहाँ शरीर की समाप्ति का पर्याय नहीं। पश्चिम में मृत्यु की भयंकरता का बोध अस्तित्व के प्रति एक जबरदस्त लगाव पैदा करता है, जिसके कारण वहाँ के जनमानस में अस्तित्वपरक प्रवृत्तियाँ अधिक तीव्रता से उभरी। भारत में इन परिस्थितियों का निर्माण न हो सकने के पीछे जन-जीवन में पुनर्जन्म की आशावादिता हैं। यहीं आकर भारतीय और पाश्चात्य चिंतन दार्शनिक मान्यताओं के स्तर पर भी भिन्न दिखलाई देते है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्वातंत्र्योत्तर भारत के धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में चेतना के बिंब अवश्य प्रस्फुटित हुए। जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में चेतना एक निश्चित स्वरूप पाने लगी, परंतु समाज के भीतर ही। फिर भी स्वतंत्र इकाई के अर्थ में वैयक्तिक चेतना का अस्तित्व दूर ही रहा।

अस्तित्ववाद वह चिंतनधारा है जिसे संसार के पूँजीवादी देश मार्क्सवाद के विरोध के लिए प्रयुक्त करते रहे हैं। वे वास्तविक सामाजिक संघर्ष की बात नहीं करते। एक विकासशील देश के लिए व्यक्ति प्रधान विचारधारा दुर्भाग्यपूर्ण है। हालांकि अज्ञेय अपनी रचनाओं के संबंध को पश्चिमी अस्तित्ववादी चिंतन से बिलकुल प्रभावित नहीं मानते। असल में जब अज्ञेय के उपन्यासों को अस्तित्ववादी कहा जाने लगा, तब कहीं जाकर उन्होंने पश्चिमी अस्तित्ववादी साहित्यकारों को पढ़ा। तो उन पर उनका कोई अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ा, उनकी चिंतन पद्धति उनसे भिन्न रही है। यहाँ पश्चिमी अस्तित्ववादी चिंतन से कुछ भिन्न दार्शनिक मान्यताओं को अज्ञेय के दो उपन्यासों 'नदी के द्वीप' और 'अपने-अपने अजनबी' में देखने का प्रयास किया जा रहा है।

'नदी के द्वीप' उपन्यास में स्वयं अज्ञेय कहते है, "मेरी रूचि व्यक्ति में रही है और है, 'नदी के द्वीप' व्यक्ति चरित्र का उपन्यास है। घटना उसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से काफी है, पर घटना प्रधान उपन्यास वह नहीं है....व्यक्ति चरित्र का...चरित्र के उद्धारन का उपन्यास है।" (आत्मनेपद-72)। अज्ञेय की स्पष्ट मान्यता थी कि जैसा "मैं हूँ लोगों को उसकी पहचान कराऊँ। लोगों को उस यथार्थ की पहचान हो जिसे मैंने और केवल मैंने देखा है उसी के बहाने मेरी भी पहचान हो !

'नदी के द्वीप' उपन्यास में भुवन, रेखा, चन्द्रमाधव और गौरा एक ही वर्ग के प्राणी हैं। यह एक व्यक्तिगत तथा निजी अनुभूतियों की गाथा है, जिसकी भाववस्तु-तीव्रता, गहनता और एकाग्रता में अनूठी है और सघनता में लगभग काव्यात्मक है। यहाँ पर प्रेम की उपलब्धि, उसकी प्रौढ़ और प्रबल अनुभूति का उसके माध्यम से व्यक्तित्व प्रस्फुटन और परिपूर्णता को इसमें चित्रित किया गया है। यहाँ पर चित्रित पुरूष और स्त्री का प्रेम असामाजिक होते हुए भी व्यक्तित्व को विकृत नहीं करता, यही प्रौढ़ता इस उपन्यास की विशेषता भी है।

इस उपन्यास के लगभग सभी पात्र एक मध्य वर्ग के है, और अपने व्यक्तिगत जीवन की मानसिक-आध्यात्मिक समस्याएँ लेकर आते हैं। इनकी संवेदनाएँ इनके मनः स्ताप, पीड़ाएँ उनके सामाजिक स्तर पर सच्ची और विश्वसनीय हैं।

रेखा बार-बार भुवन से कहती है, " ऊब आने के पहले ही हट जाऊँगी।" दरअसल ये सभी पात्र देना चाहते हैं, लेने में घोर संकोच करते हैं, जबकि देते समय मुक्ति का आनंद पाते हैं। ये सभी उत्कट रूप से अस्मितावादी हैं। वेदना और करूणा को वरदान समझकर अपनाते हैं और उसी से उनके अंदर का मन निखर-निखर जाता है। भुवन एक पत्र में लिखता है, " जिसका व्यक्तित्व प्रतिभा के सहज तेज से नहीं दुःख की आँच से निखरा है। दुःख तोड़ता भी है, पर जब नहीं तोड़ता या तोड़ सकता तब व्यक्ति को मुक्त करता है।" अर्थात् अज्ञेय वेदना, पीड़ा, को व्यक्ति के अस्मिता बोध से जोड़ने का प्रयास करते है। काफ्का मानता है कि परिस्थितियाँ ही कर्ता है और निर्णायक भी। अज्ञेय के उपन्यास में इस तथ्य को बखूबी देखा जा सकता है।

वैसे 'नदी के द्वीप'(1951) एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है जिसमें एक तरह से यौन संबंधों को केन्द्र बनाकर जीवन की परिक्रमा की गई है। यहाँ ज्यादातार पात्र आत्ममंथन या आत्मालाप कर रहे होते है। ये पात्र भीतर ही भीतर लंबी विचार सरणि बना लेते है परन्तु एक दूसरे के प्रति अपने भावों को अभिव्यक्त नहीं कर पाते। इस उपन्यास में व्यक्ति 'नदी के द्वीप' की तरह है। चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र। यहाँ पात्र समाज से भिन्न होकर अपने भीतर जीते है बाहर नहीं।

अज्ञेय के लिए अनुभव की अद्वितीयता, व्यक्तित्व का वैशिष्ट¬ और सर्जनात्मक क्षमता-मानवीय अस्तित्व और उसकी सार्थकता के मूल उपादान हैं। मृत्यु के आधुनिक अस्तित्ववादी आतंक और तज्जन्य अनर्थकता से सर्जनात्मक होकर ही उबरा जा सकता है। (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ-196) इसीलिए तो वे कहते है कि मेरा पूरा प्रयत्न साधरण तत्व की एक निजत्व की खोज है।

हालांकि अज्ञेय ने पश्चिमी अस्तित्ववाद से कुछ बौद्धिक उत्तेजना पाई, पर अपने उत्तरकालीन कृतित्व में लेखक का यत्न यही रहा है कि भारतीय परिस्थितियों में अस्तित्ववाद से भिन्न और अधिक संगत दृष्टि विकसित की जाए।

'नदी के द्वीप' में रेखा और गौरा दोनों नारी जीवन का चरित्र, अपने में अनोखा और विशिष्ट है विशेष रूप से रेखा जो हर क्षण को प्राप्त कर लेने में विश्वास करती है। वह एक भिन्न तरह से अपनी अस्मिता और जिजीविषा को रूप प्रदान करती है। उपन्यास में मानवीय व्यक्तित्व की परिपूर्णता की ओर क्रमिक यात्रा लेखक की चेतना का केन्द्रीय तत्व है।

'शेखर एक जीवनी' और 'नदी के द्वीप' दोनों में वेदना और प्रेम के माध्यम से, उनसे उत्पन्न सर्जनात्मक ऊर्जा के बीच से व्यक्तित्व की परिपूर्णता को स्वायत्त करने की चेष्टा हुई है। 'शेखर' चतुर्मुखी विद्रोह का आख्यान है, पर 'नदी के द्वीप' सबसे पहले एक 'प्रणय-कथा है अत्यंत सुकुमार, संवेदनशील, विशिष्ट पर उदार। वेदना और प्रेम व्यक्तित्व को कैसे उन्मुख और स्वाधीन बनाते हैं, यही उपन्यासकार की जिज्ञासा का मुख्य क्षेत्र है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने 'नदी के द्वीप' को 'शेखर' की एक विशिष्ट संवेदना का प्रसार माना है। रेखा सब कुछ जानते हुए समझते हुए कुछ ही क्षणों के लिए सही, भुवन के साथ तदाकार होना चाहती है। उसकी माँग स्थायित्व की नहीं है वे क्षण में जीने वाली असामान्य पात्र है। 'नदी के द्वीप' एक ऐसी अनुभूति की भट्ठी है जिसकी आँच में पक कर प्रत्येक पाठक की कठोर चेतना की पर्ते अधिक कोमल, अधिक तन्य एवं अधिक अर्थवती हो जाती है। रेखा के माध्यम से लेखक अपने विचारों को उपन्यास में कई जगह व्यक्त करता है-"जब तक जो है, उसे सुन्दर होने दो भुवन, जब वह न हो, तो उसका न होना भी सुन्दर है...." जो छिन जा सकता है, पर जब है तब सर्वोपरि है, वही आनन्द है।"

रेखा प्यार का कोई प्रतिवान नहीं चाहती। अपने जीवन में अतृप्त, निराशा और जड़ता रेखा के मन में कहीं भी कोई कुंठा, आशंका, भविष्य की चिंता, धर्म या नीति का डर अथवा लोकनिन्दा का भय नहीं पैदा करती। अपनी भावना के प्रति वह पूरी तरह से ईमानदार, उन्मुक्त और समर्पित है। वह क्षणों में, क्षण से क्षण तक, जीती है, क्षण के प्रति समर्पित है, क्षण को ही विराट मानती है।

अपने-अपने अजनबी (1961)- अज्ञेय के 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास में पश्चिमी पृष्ठभूमि और परिप्रेक्ष्य है परन्तु उसकी मान्यता मूलतः भारतीय अस्मितावाद से प्रभावित है। वैसे पश्चिमी आलोचकों ने इसे सात्र्र, किर्केगार्ड, हाइडेगर के पश्चिमी अस्तित्ववादी दर्शन पर आधारित उपन्यास माना है जिसमें सेल्मा और योके दो मुख्य पात्र हैं। 'शेखर एक जीवनी', 'नदी के द्वीप' जहाँ व्यक्ति स्वतंत्रता की अनुभूति और अभिव्यक्ति की एक मार्मिक यथार्थवादी अभिव्यक्ति है वही 'अपने-अपने अजनबी' मृत्यु के आतंक के बीच जीवन जीने की कला का यथार्थवादी दस्तावेज़ कहा जा सकता है।

इस उपन्यास का कथानक बेहद छोटा है। सेल्मा मृत्यु के निकट खड़ी कैंसर से पीड़ित एक वृद्ध महिला है और योके एक नवयुवती। दोनों को बर्फ से ठके एक घर में साथ रहने को मजबूर होना पड़ता है जहाँ जीवन पूरी तरह स्थगित है।

इस उपन्यास में स्थिर जीवन के बीच दो इंसानों की बातचीत के जरिए उपन्यासकार ने ये समझाने की कोशिश की है कि व्यक्ति के पास वरण की स्वतंत्रता नहीं होती। न तो वो जीवन अपने मुताबिक चुन सकता है और न ही मृत्यु। अतः इस संदर्भ में उपन्यासकार भारतीय मान्यता को स्वीकार करता है।

सेल्मा मृत्यु के करीब है और वो चाहती थी कि उस बर्फ घर में अकेले रहते हुए उसकी मृत्यु हो जाए, लेकिन संयोगवश योके वहाँ पहुँच जाती है और उसे योके जैसी अजनबी के साथ वो सब कुछ बांटना पड़ता है जो वो अपने सगों के साथ भी नहीं बाँटना चाहती थी। वरण की स्वतंत्रता और जीवन के विविध सत्यों को लेकर दोनों ही पात्र एक-दूसरे से जो बातचीत करते है उसी के ज़रिए अस्तित्ववादी दर्शन को अज्ञेय ने पूरी तरह स्पष्ट करने की कोशिश की है, लेकिन उसे साथ ही एक नई भारतीय व्याख्या भी दी है।

सेल्मा मृत्यु के करीब है लेकिन फिर भी जीवन से भरी हुई है जबकि योके युवती है, जीवन में उसे बहुत कुछ देखना बाकी है लेकिन मृत्यु के भय से वो इतनी आक्रांत है कि जीते हुए भी उसका आचरण मृत के समान है। वो घोर-निराशा के अंधेरे में डूब जाती है। योके बार-बार सेल्मा से कहती है-"व्यक्ति चुनने के लिए स्वतंत्र होता है।"

मृत्यु और जीवन संबंधी कई बहसों को लेकर उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है। लेकिन उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते सेल्मा की मौत हो जाती है। और इसी बीच तूफान के थमते ही योके बर्फ के घर से बाहर निकल जाती है लेकिन उस स्थगित जीवन में जिंदगी का जैसा क्रूर चेहरा उसने देखा था उसे भुला नहीं पाती। वरण की स्वतंत्रता की तलाश में अंत में वो ये कहते हुए ज़हर खाकर अपने जीवन का अंत कर देती है कि उसने जो चाहा वो चुन लिया। अतः बेहद छोटे कथानक के जरिए अज्ञेय ने इस उपन्यास में अस्तित्ववाद की पश्चिमी निराशावादी व्याख्या में भारतीय आस्थावादी व्याख्या को जोड़ने का प्रयास किया है।

व्यक्तित्व की परिपूर्णता के यत्न को खंडित करने वाला सबसे बड़ा तत्व मृत्यु या उसका त्रास माना गया है। आधुनिक काल में पश्चिम के कई दर्शनों ने विशेषतः अस्तित्ववाद ने माना है कि मृत्यु समूचे जीवन को अनर्थक बनाती है। इसके विपरीत अपने तीसरे उपन्यास 'अपने-अपने अजनबी' में अज्ञेय की उपपत्ति है कि नश्वरता का भाव ही जीवन को सर्जनात्मक रसमय और अर्थवान् बनाता है, और इस तरह मृत्यु व्यक्तित्व की परिपूर्णता में बाधक नहीं, वरन् उसे निष्पन्न करने में सहायक है। जहाँ 'शेखर' और 'नदी के द्वीप' में व्यक्ति और समाज के बीच दोनों को जोड़ने वाले व्यक्तित्व का रूप विकसित हुआ है। 'अपने-अपने अजनबी' में लेखक उस स्तर पर पहुँच जाता है, जहाँ व्यक्ति, समाज और व्यक्तित्व के भेद नहीं रह जाते-जहाँ जीवन अपनी समग्रता में है।

विषय और वस्तु दोनों दृष्टियों से 'अपने-अपने अजनबी' मृत्यु से साक्षात्कार का आख्यान है। रचनाकार की दृष्टि में मृत्यु जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है ; क्योंकि जीवन को रसमयता और अर्थवत्ता वही देती है-" साँस की बाधा ही जीवन बोध है, क्योंकि उसी में हमारा चित्त पहचानता है कि कितनी व्यग्र ललक से हम जीवन को चिपट रहे हैं। इस प्रकार डर ही समय की चरम माप है-प्राणों का डर...." (पृ-81)। मृत्यु के घटित होने से जीवन की सार्थकता है, पर मृत्यु के प्रति सजगता जीवन की सार्थकता को कम करेगी, बढ़ाएगी तो नहीं ही।

भारतीय पद्धति में मृत्यु को इतना, अस्तित्ववाद जैसा, असाधारण महत्व कभी नहीं मिला, शायद इसलिए कि हम जीवन को एक प्रवाहमान और अनंत धारा के रूप में मानते रहे हैं। हमारी काल-दृष्टि वृत्तात्मक है-इसलिए जीवन का आत्यांतिक महत्व नहीं है-और फिर मृत्यु भी उतनी ही कम महत्वपूर्ण है। पश्चिम की काल दृष्टि रेखात्मक है-इसलिए जीवन की अवधि का आत्यंतिक महत्व है और उस अनुपात में मृत्यु का त्रास भी उतना ही अधिक है।

अज्ञेय के पिछले उपन्यासों में जो 'व्यक्तित्व की खोज' आरंभ हुई थी-'अपने-अपने अजनबी' में उनकी एक ढंग की निष्पत्ति है, जो शायद फिर आगे की खोज के लिए प्रेरणा है। मृत्यु के माध्यम से जीवन की सार्थकता का सिद्ध होना। स्वयं उपन्यासकार के अतिरिक्त पहले खंड की बुढ़िया सेल्मा भी इसका आख्यान करती है :

"बल्कि शायद मन से ईश्वर को तब तक पहचान ही नहीं सकते जब तक कि मृत्यु में ही उसे न पहचान लें....इसीलिए मौत ही तो ईश्वर का एक मात्र पहचाना जा सकने वाला रूप है।" (पृ-53-54)। बुढ़िया यह भी अनुभव करती है कि-"भगवान के सिवा मेरे पास कुछ नहीं ओढ़ने को ! " (पृ-43)

सेल्मा और योके के दृष्टि बिंदुओं में अंतर योके की डायरी के निम्न उल्लेख से भी मिलता है : "और ठीक यहीं पर फर्क है। वह जानती है और जानकर मरती हुई भी जिये जा रही है। और मैं हूँ कि जीती हुई भी मर रही हूँ और मरना चाह रही हूँ...."(पृ-38)

कुलमिलाकर अज्ञेय की चिन्तनशीलता और विचार पर सार्त्र, अल्बेयर कामू, काफ्का आदि के वैचारिक चिंतन का कुछ प्रभाव भिन्न स्तर पर रहा, फिर भी अज्ञेय उतने ही परम्परावान है जितने कि आधुनिक। यही अन्तर्विरोध उनके व्यक्तित्व को सम्मोहक और रहस्यमय बनाता रहा। अज्ञेय ने जब 'शेखर एक जीवनी' लिखी, उस समय हिंदी उपन्यास घटना और कथानक बहुलता से ऊपर उठ कर चरित्रांकन को महत्व दे रहा था। अज्ञेय ने चरित्र को समझने के लिए उसके संवेदन को समझने का उपक्रम शुरू किया। लेखक का मानना है कि 'तोड़ना ही धर्म है, बनता तो अपने-आप है।' फिर इसी कड़ी में 'नदी के द्वीप' और 'अपने-अपने अजनबी' में ये निजत्व भिन्न रूप में उभरता हैं।

अज्ञेय के उपन्यासों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि उनके उपन्यासों के नारी-पात्र को अपनी अस्मिता के लिए सचेत करते हुए उन्होंने 'शेखर एक जीवनी' और 'नदी के द्वीप' की रेखा, गौरा और अपने-अपने अजनबी की सेल्मा और योके को आधार बनाकर एक नये विर्मश का सूत्रपात किया था। दोनों उपन्यास बड़े प्रतीकात्मक हैं।

'अपने-अपने अजनबी' में यह प्रतीक ध्वनियात्मक रूप से उद्भूत होता है कि पहले तो व्यक्ति स्वयं अपने आप से अजनबी है और ऐसे में मृत्युबोध, वेदना, पीड़ा, जिजीविषा उसे जीवन की सार्थकता से जोड़ते हैं।

अंततः अज्ञेय के तीनों उपन्यास में व्यक्ति की अस्मिता, जिजीविषा व मृत्यु बोध के समग्र भाव को बड़े ही सृजनात्मक रूप से देख जा सकता हैं।

"तूफान ने मुझे भी मंथा,


और वह लय मैंने भी पहचानी है


छोटी ही है पर सागर मेरी भी एक कहानी हैं।"


"रात होगी या तूफान फिर मथेगा


जब ऊपर और नीचे


ठोस और तरल,


आग और पानी


बनने और मिटने के भेद लय हो जायेंगे


तो क्या हुआ वहीं तो अस्तित्व है !"





शुक्रवार, 13 मई 2011

दरिया


एक प्रेम का दरिया बहता है !
न जाने कब से !
उसे रोकने के सारे प्रयास
आखिर में विफल रहे !
जैसे एक छोटी-सी झनकार
न जाने इतने कठोर बंद कमरे में
कहाँ से चली आई !
लाख़ बहाने बनाए,
पर तार तो छू गया था
अब भला कहाँ  संभलता !
दरिया से मिला और
और दरिया हुआ !
ये कैसी अजीब दीवानगी है ?
शायद इस दुनिया को इसकी
ज्यादा ज़रूरत हैं !

सोमवार, 9 मई 2011

जिंदगी का एक सुखद दिन

9 मई।
पहले से ही तय था कि सर प्रो.ऋषभदेव जी के घर हम सात प्राध्यापकों को संगोष्ठी की सफलता को सेलिब्रोट करने के लिए आमंत्रित किया गया हैं। सबसे एक हफ्ते पहले ही स्वीकृति प्राप्त कर ली गयीथीं। देखते-देखते 9 मई का दिन आ ही गया। सर घर रह सकते थे, परन्तु उनकी भलमनसाहत कि वे हमें लेने सभा आये। पता नहीं शायद सोचा हो कि कहीं हम टाल न जाएँ, अपने वादे के बहुत पक्के हैं सर जी। खैर पहली बार पी.जी विभाग ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की गाड़ी ली।
12 बजे दोपहर को सभा से चलने का तय हुआ था तो ठीक 12 बजे हम सब निकले। गाड़ी के चालक लेस्ली जी ने  मनोरंजन  के लिए गाड़ी में गाने लगाए। पहले गाने तेलुगु में थे; मैंने उनसे निवेदन किया कि भई कुछ गाने हिंदी में भी लगा दें। खैर ! हिंदी में गाने शुरू हुए तो बस फिर क्या ! सर शुरू हो गए एक-एक गाने का विश्लेषण करने के लिए, बहुत ही मज़ा आ रहा था। मैं और डॉ. जी नीरजा सर के विश्लेषण को सुन-सुन कर आपस में फुसफुसाते  हुए अपनी टिप्पणी  भी जोड़-जोड़कर मज़ा ले रहें थें। बाकी तीनों प्राध्यापक डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ.गोरखनाथ तिवारी और डॉ. श्रीनिवास राव भी बाद में हमारे साथ शामिल हो गए। बहुत मज़ा आया।

सर के घर पहुँचते ही हमारे स्वागत के लिए एक स्नेहिल मुस्कान के साथ खड़ी थीं  डॉ. पूर्णिमा शर्मा जी ! सभी ने उन्हें प्रणाम किया और फिर हमें थके हारे समझकर तुरन्त ही मैडम स्प्राइट ले आई। अभी हमने स्प्राइट खत्म भी नहीं किया था कि सर ने इसरार  किया कि- भई भूख लगी है जल्दी खाना खिला दो ! वैसे तो तय हुआ था कि हम सब घर पहुँचकर ही कुछ-न-कुछ मदद करते हुए खाना बना लेंगे । परन्तु मैडम ने  तो सब कुछ तैयार रखा था। हमें बिलकुल कुछ भी नहीं करने दिया गया। छोले की सब्जी, पनीर , काजू  आदि से बनाए खूबसूरत चावल, अचार, पुदीने की चटनी, पापड़, दही, रोटी, पूरी, आईसक्रीम  और न जाने क्या-क्या। मैंने तो भई भरपेट खाया, सच में खाना बहुत बढ़िया  था। मेरे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि किसे  सबसे बढ़िया कहूँ । शायद यह  मैडम और सर के प्रेम-स्नेह का ही परिणाम था। सच में कितने अजीब लोग हैं । उनका निर्दोष मन हम लोगों को खाते देख कर बहुत प्रफुल्लित हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि कोई साधना सफल हो गई हो। इतने सहज और आत्मीय  लोग आज भी दुनिया में हैं; देखकर आँखें थोड़ी नम होने लगीं। खैर ! खाने के बाद पुरुषों  ने बैठकर सर के सेल्फ से कुछ किताबे निकालनी शुरू कीं  तो मज़ाक में ही सर ने अपनी पोल खोल दी कि उन लोगों की नज़रों और हाथों से बचाने के लिए ही आज सवेरे सर ने सारी किताबें मेज और सोफे से उठाकर अलमारी में रख दी थी!

खाने के बाद हम महिलाएँ दूसरे कमरे में जाकर गप्पबाज़ी करने लगीं। सच मैडम से बात कर ऐसा बिलकुल नहीं लगा कि वे हमसे कुछ साल बड़ी हैं। इतना भोलापन और बातों में इतनी स्पष्टता देखकर बहुत अच्छा लगा। उनकी बातें सुनकर ऐसा लगा कि बहुत समय से शायद हम उन्हें जानते हैं ! हमारी बातें चल ही रही थीं कि सर ने दूसरे कमरे से मैडम को फोन कर चाय बनाने का अनुरोध किया। हमारी बातें बीच में ही रह गईं। खैर चाय बहुत स्वादिष्ट  थी, हम सभी ने खूब चुस्कियाँ ले लेकर  पी। चाय के बाद जाने का समय आ गया, परन्तु मन नहीं भरा था। बहुत कुछ मन को छू गया था। उसे बयान करना मुश्किल है, पर अभी भी वे  पल बार-बार आँखों के सामने तरंग की  तरह बह रहे हैं। घर में मैडम ने जो अपना पुराना एलबम दिखाया - शादी का, तो यकीन ही नहीं हुआ कि एलबम की मैडम और आज हमारे साथ बातें कर रही मैडम एक ही हैं। एलबम की फोटो को लेकर बहुत सी चर्चाएँ हुईं। सच हमारी जिन्दगी में ये एलबम एक सुगंध की तरह हमें अपने उस अतीत में ले जाते है जहाँ से हम आज से उसकी तुलना कर आनंदित होते रहते हैं।

खाने के दौरान बार-बार सर  यह मलाल जता रहे थे कि उन्होंने खाने के आइटमों के बनाने में मैडम की कोई मदद नहीं की। आखिर मैडम को खुश करने के लिए सर ने उन्हें 'हे मेरी तुम !' व 'आपके सामने बन्दा  हाजिर है; आपके लिए क्या लाये?' जैसे आकर्षक वाक्यों का प्रयोग कर मैडम को जैसे एक तरह से  सम्मान और धन्यवाद दोनों दे दिए।  

घर से विदा लेते हुए मन में बहुत कुछ था। बार-बार मन बहुत सी चीज़ों का विश्लेषण कर रहा था। मन से बहुत सी सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी। खैर मैडम को प्रणाम कर बाहर निकले और फिर गाड़ी में गीत बजने लगे। हम सभा तक पहुँचने वाले ही थे कि लेस्ली जी ने गाड़ी एक ऐसी जगह जाकर रोकी, जहाँ एक ऐसी तरबूज की बंडी है जहाँ सुबह से शाम तक जाने कितने लोग आकर तरबूज खाते हैं। हमने भी तरबूज खाया और  सभा लौट आए। हम सबको घर पर भोजन के लिए आमंत्रित करने से लेकर वापस लाने तक सर में इतना उत्साह और खुशी थी कि बस ! मैं तो क्या कहूँ। एक सुन्दर दिन देने के लिए  केवल मैं तो मैडम और सर जी को धन्यवाद ही दे सकती हूँ। तो मैडम जी और सर जी मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। नमस्कार ! कोई त्रुटि हो गई हो  या अतिरिक्त बोल पड़ी होऊँ तो क्षमाप्रार्थी हूँ। 


ऐसा बहुत कुछ है जो महसूस किया गया, पर शब्द नहीं है कहने को कि आखिर कैसे कहूँ ......      

मंगलवार, 3 मई 2011

अज्ञेय जन्म शती समारोह के चित्र



30 अप्रैल को हमारे विभाग [उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा] में अज्ञेय जन्म शती  समारोह मनाया गया. इस अवसर पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के साथसाथ अज्ञेय की रचनाओं की पोस्टर प्रदर्शनी भी हम प्राध्यापकों और विद्यार्थियों-शोधार्थियों ने मिलकर लगाई.  श्रीमती चन्दन कुमारी ने इस आयोजन के कुछ चित्र भेजे हैं जो ऊपर प्रदर्शित हैं.

पूरी रिपोर्ट यहाँ पर है.

केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी

  


केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में 21 अप्रैल 2011 को आन्ध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के तत्त्ववधान में प्रो.ऋषभदेव शर्मा जी का व्याख्यान 'केदारनाथ अग्रवाल की कविता में प्रेम' अत्यधिक ज्ञानवर्धक और एक कवि की गहनतम संवेदना का प्रतिबिम्ब रूप साबित हुआ।
इस समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में प्रो.ऋषभदेव शर्मा और गोपाल शर्मा मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे तथा दैनिक समाचार पत्र 'स्वतंत्र वार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने केदारनाथ अग्रवाल के पूरे कृतित्व का संक्षेप में परिचय देते हुए उनकी रचनाओं में प्रेम पक्ष पर बोलने को ही मुख्य आधार बनाया। वैसे केदारनाथ अग्रवाल को प्रगतिशील कवि कहा जाता है परन्तु 'प्रेम' पर, और वह भी पत्नी प्रेम पर लिखी कविता के कारण भले ही प्रगतिवादी उनसे चिढ़ते रहें हो, लेकिन पारिवारिक स्तर पर उन्होंने ऐसी कविताओं के माध्यम से अपनी जीवन संगीनी को सम्मान प्रदान कर अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह किया है। ये बड़ी विडम्बना है कि भारत की प्रगतिशीलता में प्रेम का कोई स्थान नहीं है जबकि माक्र्स, लेनिन, एंगेल्स और चेगवारा ने भी प्रेम कविताएँ लिखीं। प्रो.शर्मा की यह मान्यता है कि शोषित और मजदूर भी प्रेम करता हैं। 'प्रेम' तो मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धी हैं।
केदारनाथ जी के काव्य संग्रहों में 'हे मेरी तुम' शीर्षक से संकलित कविताओं में उन्होंने अपनी पत्नी पार्वती देवी को लक्ष्य बनाकर काव्य रचना की हैं। केदार के लिए तो उनकी पत्नी ही उनकी रचना की प्रेरणा, प्रियसी आदि-आदि रहीं हैं।
केदारनाथ ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रेम को मानवीय जीवन की एक अनिवार्य मूल प्रवृत्ति माना। उनका प्रेम मांसलता से उत्पन्न है वह  केवल भावना का व्यापार नहीं हैं।
प्रेम की उनकी छोटी-छोटी कविताओं में उनकी प्रेम संबंधी मान्यताओं की स्पष्ट झलक मिलती हैं। प्रेम के संबंध में उनकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

मेरे गीतों को तब पढ़ना
बार-बार पढ़कर फिर रटना
सीखो जब तुम प्रेम समझना
प्रेम पिए बस पागल रहना।

केदार की कविताओं में प्रयुक्त 'तुम' सर्वनाम का प्रतीक नहीं है बल्कि वे उनकी पत्नी  को संबोधित 'तुम' है जिससे उनके गहन संबंधों का पता चलता है। उन्होंने अपनी पत्नी को ही अपनी प्रियसी घोषित कर पत्नी प्रेम को बासी और ठंडा होने की मान्यता को खण्डित किया। संकेतों में  केदारनाथ ने 'प्रेम' के विस्तृत रूप को भी प्रकृति, पत्नी, पुत्र, पुत्री, नाती-नातिन आदि के माध्यम से भी बिम्बित किया।
'प्रेम' की कविताओं के अंतर्गत ही अपनी पत्नी से वृद्धावस्था की दशा के संबंध में बातचीत करते हुए कवि  कहता हैं-


मैं पौधों से, फूलों से करोटन से भी बात कर लेता हूँ पत्नी भी ऐसा ही करती है।
ये ही सह्यदय  उदार कुटुम्बी रह गए है।
पत्नी ही बच जाती है जो एक मात्र श्रोता हो जाती है
घरु जीवन झलमला उठा है...

साथ ही एक और किसी अन्य कविता में सुबह की  धूप को बछड़े की तरह पालने पर बल देते है।
अतः एक तरह से कवि इन पंक्तियों के माध्यम से वृद्धावस्था विमर्श करते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन में आखिर उस पत्नी के बलिदान, प्रेम, सम्मान को याद करते हुए उसकी उपयोगिता को समझता हैं। उन्होंने परकीय आकर्षण को सामाजिक दायित्व से हीन कविताएँ मानते हुए उसे अस्वीकार किया है।
इसी संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार नामवर सिंह जी की बात को जोड़ा जा सकता है कि उन्होंने भी इस वर्ष के चार प्रमुख कवियों के जन्मशताब्दी वर्ष में केदारनाथ के विशिष्ट महत्व को उजागर किया है। एक प्रगतिशील कवि व साथ ही भारतीय मूल्य दृष्टि, नैतिक मान्यताओं का इतना बड़ा समर्थक विरला ही कोई होगा।
इस गोष्ठी की सबसे बड़ी विशेषता  यह रही कि इसमें प्रो. ऋषभदेव जी ने केदारनाथ जी की ठेरों कविताओं की लड़ी लगा दीं। जिससे आलोचनाओं व समीक्षाओं से भिन्न कविताएँ सुनकर एक नयी दृष्टि निर्मित होती हैं।
अंत में गोष्ठी के सारगर्भित व्याख्यान ने निश्चित रूप से केदारनाथ अग्रवाल पर सूई की नोक जितनी जानकारी को विस्तार दिया, जिसके लिए हम सभी प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी के आभारी हैं।
इसी गोष्ठी में प्रो. गोपाल शर्मा जी ने प्रकारांतर से शेक्सपीयर के प्रेम प्रसंगों की तुलना में केदार को श्रेष्ठ साबित किया। डॉ. राधेश्याम शुक्ल जी ने तो बड़े ही खुले विचार से प्रेम को किसी परिधि में बाँधने का विरोध किया। समारोह में इन सब वक्तव्यों के अतिरिक्त कई लोगों से भेंट और आत्मिय संबंध के बन जाने की प्रक्रिया ने भविष्य में पुनः पुनः इस तरह की गोष्ठियों में भाग लेने के लिए खूब प्रेरित किया है। पुनः इस गोष्ठी के आयोजकों के साथ-साथ जिन लोगों ने इसमें भाग लेकर इसे सफल बनाया, उन सबका पुनः धन्यवाद।  

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मनोरंजन, विज्ञापन और हिंदी



मनोरंजन, विज्ञापन और हिंदी


संपूर्ण जीवन और जगत  संप्रेषण और भाषा का व्यापक प्रयोग क्षेत्र है। भाषा के प्रकार्य तेज़ी से बढ़ रहे  है। भूमंडलीकरण और अंतर्राष्ट्रीय संचार के इस युग में मनोरंजन व्यवसाय और वाणिज्य  का विकास बड़ी तीव्र गति से हुआ है। और इससे भाषा के सामने नई चुनौतियाँ भी खड़ी हो  रहीं हैं। वर्तमान समय पूँजीवादी भूमंडलीकृत बाज़ार का समय है जिसके अंतर्गत  प्रत्येक वस्तु बाज़ार का हिस्सा बन रहीं हैं। ऐसे में यहाँ इसी अत्याधुनिक  भूमंडलीय, बाज़ारवादी संदर्भों को दृष्टि में रखकर हिंदी के मनोरंजन व्यवसाय और  विज्ञापन की प्रयोजनपरक भाषा पर कुछ विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा  हैं।
   
सर्वप्रथम इस वर्तमान व्यवस्था के मनोरंजन व्यवसाय व विज्ञापन के 'डायमेंशन' के समझने के लिए खाड़ी युद्ध के बाद जिस तरह से मीडिया का टेबलाइटकरण हुआ  है उसे समझना बहुत ज़रूरी है। इसी संदर्भ में मीडिया आलोचक फ्रेंक एसर ने 19 वीं  शताब्दी के अंत और 20 वीं शताब्दी के आरम्भ को टेबलाइटकरण की प्रक्रिया की शुरुआत  माना। इसी समय 
खेलों और मनोरंजन ने भी प्रिंट  मीडिया में अपनी जगह बनाना शुरु  किया। 
विज्ञापनकर्ताओं ने समाचारों के माध्यम से एक ऐसी मीडिया संस्कृति का निर्माण  किया जहाँ पाठक उपभोक्ता बनने लगा। और ऐसे में मीडिया राजनैतिक स्तर पर जनता की  रूचि का निर्णायक भी बन गया।

इसी संदर्भ में हॉर्वेड कर्ज़ का कहना है कि इस मीडिया टेबलाइटकरण ने 'हार्ड न्यूज़'-राजनैतिक, आर्थिक आदि की गुणात्मकता को कम कर 'सॉफ्ट न्यूज़' -सनसनी(सनशेंसनल) , सकेंडल और मनोरंजन को अधिक प्रधानता दी। सामाजिक और व्यक्ति जीवन की त्रासदियों को मनोरंजक व नाट्कीय ढंग से परोसा जाने लगा। अतः परम्परागत सत्य,मीडिया द्वारा निर्मित सत्य व विज्ञापन के माध्यम से निर्मित सत्य में दूसरी और तीसरी श्रेणी के सत्य ने समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करना आरम्भ कर  दिया।
  
मनोरंजन एक ऐसी क्रिया है जिसमें सम्मिलित होने वाले को आनन्द आता है एवं मन  को शान्ति मिलती है। तो ऐसे में टेलिविज़न, सिनेमा, रेडियो, नाटक, संगीत नृत्य,डिस्को, हास्य रस, गोष्ठी, सर्कस, मेला, खेल आदि मनोरंजन के अंतर्गत ही समाविष्ट हैं। Entertainment consists of any activity which provides a diversion or permits people to amuse themselves in their leisure time. Entertainment may also provide fun, enjoyment and laughter. the Industry that provides Entertainment is  called the Entertainment Industry.  परन्तु विज्ञापन कम्पनियों ने अपने उत्पाद की बिक्री के लिए आज इन मनोरंजन उद्योग पर अपना आधिपत्य ज़मा लिया हैं। विज्ञापन आज मनोरंजन का प्रतीक बनते जा रहे है।

वैसे प्रिंट मीडिया में भी मनोरंजन के लिए  स्पेस है। और इंटरनेट की बदौलत ऑनलाइन रेडियो ने तो कई-कई भाषाओं में विशिष्ट  समूहों का मनोरंजन शुरु कर दिया हैं। यहाँ मनोरंजन व्यवसाय के मुख्य दो बड़े क्षेत्र  फिल्म और टी.वी पर संक्षिप्त चर्चा की जा रही है। वैसे इंटरनेट भी मनोरंजन और  विज्ञापन का एक बहुत बड़ा क्षेत्र बन कर उभर रहा  हैं।

फिल्म-
  
फिल्में एक ऐसे कला माध्यम के रूप में हमारे  सामने उपस्थित है, जिसमें अनेक कलाओं का पड़ाव दिखाई देता हैं। भाषा, साहित्य और  संस्कृति का गठन फिल्मों का महत्वपूर्ण अवदान माना जा सकता है। और हिंदी फिल्में भी  अपनी इस भूमिका में पीछे नहीं हैं। हिंदी फिल्में अधिकांशतः हिंदी भाषा के जीवन  सरोकारों, स्पंदन, भावात्मक संचार, आर्थिक स्थिति एवं वैचारिक बनावट को दर्शाती है।  'बॉलीवुड' हिंदी फिल्मों की क्षेत्रीय सीमाओं, भौगोलिक बाधाओं एवं भाषाई घेरेबंदी  को चटखा देता है। हिंदी फिल्मों के निर्माण व वितरण में हिंदीतर भाषा-भाषी लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। हिंदी फिल्में अन्य मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय  विमर्श केमुद्दों को भी लगातार गंभीरता और सहजता से उठा रहीं हैं।   

हिंदी  फिल्में निश्चय ही हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपनी विश्वव्यापी भूमिका का  निर्वाह कर रहीं हैं। उनकी यह प्रक्रिया अत्यंत सहज, बोधगम्य, रोचक, संप्रेषणीय और  ग्राह्र है। हिंदी इस संदर्भ में भाषा, साहित्य और जाति तीनों अर्थों में ली जा  सकती हैं। हिंदी फिल्मों की दृश्यता हिंदी भाषा के अर्थ प्रसार में सहायक रहीं हैं।  क्योंकि भाषाओं का भूगोल सीमित और दृश्यों का व्यापक होता है।
  
फिल्म एक भाषिक  कला है। जहाँ एक छोर भाषिक संरचना के रूप में सिनेमा और दूसरा शाब्दिक भाषा से इतर  भाषिक प्रयोग को साधने वाला सिनेमा है। फिल्म के संबंध में यह बात जानना ज़रूरी है  कि 'कैसे फार्मूला दर्शकों द्वारा स्वीकार्य हो जाता है ? कैसे वे बार-बार एक ही  तरह के प्लॉट और ट्रीटमेंट से उबते नहीं ? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि हम  सिर्फ फिल्म देखने नहीं जाते, हम एक ख़ास तरह की कहानी का प्रस्तुतीकरण देखने जाते  हैं। फिल्म के संदर्भ में कोई भी प्रतीक एक 'शब्द' है और कोई 'सिक्वेंस' एक वाक्य।  सिनेमा में भाषिक स्तर पर भाषिक तत्व के भी अलग-अलग पैमाने अलग-अलग फिल्में बनाती  हैं। फिल्म हर प्रकार के संप्रेषण  को सिद्ध करने वाली कला है। जहाँ कुछ फिल्में  दिखावटी, बनावटी या नाटकीय और लाउड होती है। तो कुछ बहुत ही कोमल, मुलायम और  संवेदनशील आदि-आदि होती हैं। (लेखक : फिल्म भाषा की आर्थी संरचना, दिलीप सिंह, समुच्चय पत्रिका, पृ-44)

भाषा के भीतर संस्कृति का प्रच्छन्न प्रवाह बना रहता है। हिंदुस्तानी समाज के विभिन्न मुद्दे राष्ट्रीयता, आतंकवाद, सामाजिक ढाँचा,  पारिवारिक रिश्तें, कृषि-किसान, औद्योगिकरण, बाज़ारवाद और भूमंडलीकरण, प्रवासी जीवन  आदि हिंदी फिल्मों में उठते रहें हैं। हिंदी भाषा भी नव्यतम चुनौतियों के वहन के  लिए नयी विधाओं और नए रूपों में हमारे सामने आयी है। हिंदी भाषा में फिल्म निर्माण  के साथ हिंदी ने उर्दू को प्रमुख सहायिका बनाया, गीतों और संवादों के लिए दृश्यता  का समावेश किया,भाषा और बिम्ब के अंतर संतुलन की पहचान की, नई तरह की  शैलियों-मुबंइया, हैदराबादी हिंदी जिसमें अभी तीन-चार सालों से एक नई भाषा को  फिल्मी पर्दे पर लाना शुरु किया हैं। इस हिंदी ने इन्हें मानक बनाया, नए तरह के  कोड, बिम्ब, प्रतीक, मिथ कथनों को ईज़ाद किया। पटकथा, संवाद और गीत लेखन जैसी नयी  विधाओं का सृजन किया हिंदी भाषा को तकनीकी अनुकूलन के लायक बनाया इसलिए हिंदी  फिल्मों ने हिंदी भाषा के सर्वथा नए रूप रंग और सांचे-ढांचे को गढ़ा है। हिंदी  साहित्य और भाषा पर हिंदी फिल्मों का गहरा प्रभाव पड़ा है। और यदि आगे बढ़कर यह कहा  जाए कि हिंदी फिल्मों  ने हिंदी के आलोचना शास्त्र के लिए कई मानक प्रदान किए तो  अनुचित न होगा। 

हिंदी भाषा की संरचनात्मकता, शैली वैज्ञानिक अध्ययन,जन-संप्रेषणीयता, पटकथात्मकता के निर्माण, संवाद, लेखन, दृश्यात्मकता, दृश्य भाषा,  कोडनिर्माण, संक्षिप्त कथन, बिम्बधर्मिता, प्रतीकात्मकता, भाषा-दृश्य की  अनुपातिकता आदि मानकों को हिंदी फिल्मों ने कई हद तक प्रभावित कर गढ़ा भी  हैं।

टी.वी से काफी भिन्न है सिनेमा इसलिए भाषाविद् अल्बर्ट लैफे ने फिल्म की अद्वितीयता को समझ कर ही यह कहा कि-" इतना सजीव रूप है सिनेमा यथार्थ का जितना होने की अपेक्षा किसी उपन्यास, नाटक या मूर्त पैटिंग में नहीं की जा सकता।" सिनेमा की अपनी भाषा व्यवस्था होती है होती ही भर नहीं, फिल्में भाषा व्यवस्थाओं का सृजन भी करती है। फिल्म भाषा एक सी नहीं होती। वह अनेक लचीले रूपों और आकृतियों में बोलती हैं।
  
फिल्म का सौंदर्यशास्त्र निजी है जो यथार्थ भी है और काल्पनिक भी। सिनेमा भाषा इन दोनों को ऐसा बना देती है कि ये हमें आश्वस्त भी करें और भरोसा भी दिलाएँ।  सिनेमा सूचना भी है। सूचना की अपनी भाषा और अपना अर्थतंत्र होता है। (फिल्म भाषा की  आर्थी संरचना, दिलीप सिंह, समुच्चय पत्रिका, पृ-47) एक प्रकार से सिनेमा भाषिक विन्यास सूचना सिद्धांत का व्यावहारिक रूप है जिसे फिल्म बहुत खूबसूरती के साथ  पिरोती है।

इन्हीं उपर्युक्त विशेषताओं के संदर्भ में यदि हिंदी सिनेमा को  देखें तो पिछले दो दशकों में हिंदी सिनेमा में वैविध्य की वृद्धि हुई। इस वैविध्यता  का सबसे बड़ा आधार लक्ष्य दर्शक की पहचान में निहित है। ऐसे में वर्तमान समय की  अभिरुचियों को ध्यान में रखते हुए व्यापक प्रवासी भारतीय के ज़ेब से पैसा निकालने के  लिए 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगें, हम आपके है कौन, नमस्ते लंदन, पटियाला हॉउड़,  सिंग इज़ किंग, मानसून वैडिंग, बैंडेड इट लाइक बैक्कम, पहेली, स्लम डॉग मिलिनियरआदि  फिल्में अस्तित्व में आई। कुछ फिल्में देश के प्रबुद्ध वर्ग को संबोधित है। कुछ  फिल्में विमर्श केन्द्रित है। कुछ शहरी युवा वर्ग के लिए है तो कुछ लोक संस्कृति को बेचने की ख़ातिर-जैसे लगान, स्वदेश, पिपली लाइव आदि। कुछ फिल्में विशेष बोलियों के  प्रयोक्ताओं से संबंध लिए हुए है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज की फिल्मी हिंदी अधिक यथार्थपरक हिंदी है उसमें जड़ता नहीं प्रवाह है। फिल्मों की लोकप्रियता बढ़ती जा रहीं हैं। एक ख़ास बात हिंदी फिल्म में भाषा के खिलंदडे, व्यंग्य, पैरोडी, रीमिक्सिंग रूपों की भी है। आज की फिल्में तो यथार्थ के बहुत नजदीक दिखाई दे रहीं हैं इसलिए उसके भाषाबिम्ब में ये सभी सूक्ष्म छटाएँ भी रूप पा रहीं हैं।

टी.वी-
  
विश्व के सर्वप्रथम टीवी सीरियल (धारावाहिक)'सोप ऑपेरा' की शुरुआत अमेरिका में हुई। 1930 के आसपास एक विज्ञापन कम्पनी  'प्रोक्टर एण्ड गैम्बल' ने दोपहर के समय धारावाहिक पारिवारिक नाटक प्रसारित करवाने के लिए साबुन बनाने वाली एक कम्पनी को तैयार कर लिया। साबुन बनाने वाली कम्पनी का आकर्षण यह था कि घरेलू महिलाएँ ख़ाली समय में नाटक सुनने के साथ-साथ उसके  साबुन की प्रशंसा सुन-सुनकर उसी प्रकार का प्रयोग करेंगी। इसलिए इसका नाम 'सोप  ऑपेरा' पड़ा। और तब से आज तक टी.वी कार्यक्रमों का प्रयोग मनोरंजन के रूप में कम,  परन्तु वस्तु के उत्पाद को विज्ञापित करने व बेचने के लिए अधिक किया जा रहा  है।

अतीत के पन्ने पलटने पर हम देखते हैं कि 80 के दशक तक टीवी का मतलब केवल दूरदर्शन ही होता था। दूरदर्शन के कार्यक्रमों का स्तर होता था। परन्तु 80 के दशक के आख़िरी सालों में टीवी में काफी 'चेंज' आया। भारत में जब सैटलाइट चैनलों की शुरुआत हुई तो विदेशी भाषा के 'सोप ऑपेरा स्टार टीवी के माध्यम से भारत के घरों में आए पर धीरे-धीरे  कई कारणों से आगे चलकर विज्ञापनों की प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी,जिसने टीवी के कई क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न उत्पादों के विज्ञापन हेतु धारावाहिकों, पौराणिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक, आंचलिक, जासूसी, बच्चों  के निमित,वैज्ञानिक (डिस्कवरी चैनल, फॉक्स हिस्ट्री, नेशनल जॉगरिफी) आदि कार्यक्रमों की एक बाढ़ सी आ गई। इन सब कार्यक्रमों से भाषा की प्रयुक्ति और प्रोक्ती निर्मित हो रहीं हैं। इस तरह के कई ढ़ेरों टीवी कार्यक्रमों में भाषा के विभिन्न प्रयुक्ति स्तर अपने को गढ़ रहे हैं।

अतः धारावाहिकों से लेकर 'लाफ्टर चैलेंज़', रियलटी शो आदि  क्षेत्रों तक में मनोरंजन इंडस्ट्री घुस गई है। लेकिन इन सब तकनीकी विकास के बावजूद  आज टीवी माध्यम हमारी वास्तविक दुनिया के समानांतर एक और दुनिया रच रहें हैं जिसके  सुख, दुःख, समाज, समस्याएँ और मनुष्य सभी कुछ अधिक अवास्तविक हैं। और आज की स्थिति  तो यह है कि उच्च मध्यवर्ग ने टीवी का सम्पूर्ण 'टेक ओवर' कर लिया है। इसे यों भी  कहा जा सकता है कि नए टीवी ने मध्यवर्ग का पूरा अधिग्रहण कर लिया है। इस दिखाई पड़ने  वाली छवियों में वह बुरी तरह आत्मकेंद्रित, लालची, पैसा खोर, चमकीला और हर दम  दनदनाता हुआ दिखता है।

इधर दूरदर्शन के परम्परागत कार्यक्रमों के विपरीत नए  प्रकार के कार्यक्रमों से सुसज्जित चैनलों ने उदारवादी  परिवेश में सम्पन्नता की  सीढ़ियाँ चढ़ते मध्यवर्ग को तेज़ी से आकर्षित किया। ऐसे में आम आदमी टीवी से गायब होने  लगा व उसके स्थान पर बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के परिवार टीवी के पर्दे और टी.आर.पी  पर राज करने लगें। 'बालिका वधू', 'बंदिनी,' 'मर्यादा', 'उतरन', 'साथिया' 'छोटी बहू'  आदि ऐसे कई धारावाहिक हैं जो साहित्यिक क्षेत्र में स्त्री संबंधी विमर्श से एक  विपरीत विमर्श प्रस्तुत करते नज़र आ रहे हैं। जिसका रूप बहुत ज्यादा अवास्तविक  प्रतीत होता हैं।  

पिछली सदी के सन् नब्बे से पहले के मध्यवर्ग में एक प्रकार  का 'ब्लेक व्हाइटपना' था। उसमें भाग-दौड़, मेहनत करना परिवार की जिम्मेदारी और  न्याय-अन्याय के कुछ परम्परागत मानकों की परवाह कुछ लाज लिहाज नज़र आता था। पर आज का  मध्यवर्ग 'सेल्फ कंज़प्शन' (आत्मोपभोग) में डूबा हुआ है। (नया मध्यवर्ग और नया टीवी,  सुधीश पचौरी, राष्टीय सहारा, 27, मार्च 2011)। हमारा  मीडिया मध्यवर्ग के दुश्चक्र से मुक्त नहीं हो पा रहा है। अब 'आम आदमी' या 'आम  जनता' शब्द कम सुनाई पड़ते हैं। और यदि मीडिया को अगर आगे विकास करना है तो  पूँजीवादी सत्ता तंत्र, बाज़ार व विज्ञापन के मनोवैज्ञानिक षडयंत्रों के कुचक्र से  अपने को बचाना होगा।  

विज्ञापन-
  
आज विज्ञापन कंपनियाँ उत्पाद बनाने से  पहले ब्रांड  (विचार) बना रहीं है और फिर उत्पाद व अंत में विज्ञापन जिनमें कई  शैलियों में उद्घोषों की एक सृजनात्मक प्रस्तुति को पिरोया जा रहा है तथा इन दोनों  के पश्चात् उपभोक्ता के विवेक को मार कर इच्छा, लोभ, लालच की प्रवृत्ति को उसमें  पैदा कर मुनाफा कमाने का साधन बनाया जा रहा है मीडिया और मनोरंजन उद्योग से साठगांठ  कर विज्ञापन कंपनियों ने बाज़ार में अपने उत्पाद को स्थापित कर लिया है। ऐसे में  विज्ञापनों की हवा पर सवार होकर उपभोक्तावाद दूर-दूर की यात्रा करने लगा है। हर  कहीं विशिष्ट वर्ग पश्चिमी सुख-साधन का सामान आयात कर रहें हैं। जिस पर कोई रोक-टोक  नहीं हैं।
व्यावसायिक और वाणिज्य विज्ञापन के अतिरिक्त कुछ ऐसे विज्ञापन भी है  जो अधिकतर सरकारी है जिनका मूल उद्देश्य व्यक्ति को सही सूचना प्रदान करना है।  लेकिन व्यावसायिक विज्ञापनों ने अपनी पूँजी के बल पर पूरे बाज़ारतंत्र, मीडिया पर  कब्ज़ा कर मनमाना मुनाफा कमाना शुरु कर दिया है। विज्ञापन की हिंदी 'जनसंचार की  हिंदी' की एक बहुप्रयुक्त और विशिष्ट उपप्रयुक्ति हैं। विज्ञापनी हिंदी के  प्रयुक्तिगत स्वरूप का निर्धारण वार्ताक्षेत्र (जनसंचार) वार्ता प्रकार  (पाठय, श्रव्य, दृश्य-श्रव्य, दृश्य-श्रव्य पठन) तथा वार्ता शैली (लक्ष्य उपभोक्ता  समाज की प्रयुक्ति के अनुसार) के आधार पर होता है। ये ही प्रयुक्ति के विवेचन के भी  आधार बनते हैं।
  
आज सरकार द्वारा व्यक्ति के विभिन्न स्वास्थ्य, अधिकार व विकास  संबंधी विज्ञापनों को भी नया रूप दिया जा रहा है जिससे की वे अधिक संप्रेषणिय हो  सकें। बाल विकास मन्त्रालय द्वारा बच्चों पर हो रहें अत्याचारों से उन्हें जागृत व  सतर्क करने के लिए सरकार अब कई विज्ञापन नये-नये अंदाज़ और भाषा शैली में विज्ञापित  कर रहीं हैं। टीवी पर एक ऐसा विज्ञापन आ रहा है जिसमें छोटे बच्चे को कई बातों से  सतर्क किया जा रहा है। ऐसे ही महिला ग्रामीण विकास संबंधी तथा वृद्धों, विधवाओं आदि  के विकास से संबंधित विज्ञापन अपने भिन्न उद्देश्य के साथ प्रसारित हो रहे है।  

फिल्मों के माध्यम से जहाँ टीवी मुनाफा कमा रहा है वहीं फिल्म उद्योग भी टीवी के  माध्यम से अपनी फिल्मों के ट्रैलर्स, प्रोमॉज़, म्युज़िक विडियों आदि का विज्ञापन कर रहें हैं। खेलों में क्रिकेट तो ख़ुद एक सबसे बड़ा विज्ञापन बन गया है। अंततः कई तरह के विज्ञापनों में भाषागत व शिल्पगत नये प्रयोग आ रहें हैं। जो केवल संप्रेषणीयता को दृष्टि में रखकर ही तैयार किए गए हैं। इन्हीं विज्ञापनों की श्रृंखला में एक  बहुत बड़ा क्षेत्र व्यावसायिक विज्ञापनों का भी है जो मूल रूप से अपने उत्पादों का  बाज़ार निर्मित करना चाहता है। यदि इस तरह के विज्ञापनों के उद्घोष वाक्यों पर हम  नज़र दौड़ाएँ तो ये उपभोक्ताओं में कई लोभ, लालच, प्रतिस्पर्धा आदि का निर्माण करते  नज़र आएंगें। यहाँ कुछ उदाहरणों को देखा जा सकता हैं-

1. गले की ख़राश का  फस्ट एड- (स्ट्रेप्सिल)2. आपकी ख़ुशियों की ज़ाबी-(टाटा नैनो)3. फास्ट  फॉरवर्ड कूल जहाँ, ख़ुशियाँ वहाँ (वर्लपूल)4. पैसों से खिलौने खरीदे जाते है  दोस्त नहीं, क्योंकि आपके पैसों से बढ़कर है 'आप'- (आई.डी.बी.आई बैंक) 5. बुलंद  भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज....(बजाज स्कूटर)6. हम आपकी ऐसी मदद करते है  जैसे हम अपने लिए घर ख़रीद रहें हों ! (आई.सी.आई.सी.आई, होम लोंस)7. जब इरादों  में हो इतनी चमक, तो कपड़ों में क्यूँ नहीं (सर्फ एक्सल)8. अमूल द टेस्ट ऑफ  इण्डिया9. कुछ बंधन अटूट होते है जैसे एयरटेल का नेटवर्क आपके साथ हमेशा चलता  हैं !10. क्योंकि आपके सपने सिर्फ आपके नहीं यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया11. एक  आयिडिया जो बदल दे आपकी दुनिया (आईडिया मोबाइल)12. कैडबरीज़ की नयी पर्क। थोड़ी सी पूजा। कभी भी, कही भी। 13. सनफीस्ट ड्रीम क्रीम लाओ। ड्रीमी, क्रीमी  दुनिया में खो जाओ। 14. बिरला सन लाइफ इंश्योरेन्स के रिटायरमेंट सोल्यूशन! ताकि मंहगाई चाहे बढ़ती रहे आप कल भी जियें आज की तरह !15. कॉलगेट एक्टिव  सॉल्ट, इसका अनोखा फार्मूला कीटाणुओं को हटाए ताकि मसूड़े बने स्वस्थ और दाँत जड़ों  से मज़बूत
       
ऐसे सैंकड़ों विज्ञापन जाने-अनजाने हिंदी भाषा  की  सृजनात्मक प्रयुक्ति का निर्माण भी कर रहें हैं। लेकिन अधिकतर इन विज्ञापनों का जो  लिप्यंतरण रोमन में हो रहा है वह एक तरह से हिंदी के लिए ख़तरे की घंटी हैं। 

विज्ञापन के क्षेत्र में एक और बात ध्यान खींचने वाली है वह विज्ञापन में स्त्री छवियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल। विज्ञापन का क्षेत्र आज पूर्ण रूप से उसे  पहले से अधिक वस्तु में सीमित करता जा रहा हैं। हालांकि विज्ञापन क्षेत्र में  स्त्रियों का खुला प्रदर्शन बहुतों के लिए स्त्री स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का  द्योतक हो सकता है परन्तु सोचने की बात यह है कि असल में स्त्री का मनमाना प्रयोग  कर कंपनिया चाहती क्या है? आज विज्ञापनों के माध्यम से स्त्रियों को पुरूष के लिए अधिक आकर्षित बनाने का तामझाम ज़ोरों पर है। अतः ये विज्ञापन स्त्री वर्ग के लिए  कैसी संस्कृति निर्मित कर रहें है? इस पर भी विचारनें की ज़रूरत हैं। 

यहाँ टाटा  स्काई के दो उदाहरण देकर विज्ञापन के सूक्ष्म उद्देश्य उत्पाद को बेचने की कलाकारी  का नमूना पेश किया जा रहा है-

1. टाटा स्काई-
आमिर ख़ान सरदार जी वाला विज्ञापन-आमिर  ख़ान-ये जो टाटा स्काई वाले है, ना इन पर तो मैं केश ढ़ोक दूँगा।आई मेक  देयर लाईफ़ लिविंग ब्लैडी हेल !हद कर दी यार, क्रिकेट का बुख़ार कोई कम था, जो ले  आए अपना पिक्चर क्वॉलिटि वाला डिब्बा. मेच के एक्सपिरियंस को इतना बढ़िया बना  दिया है कि लत लगा रखी है सबके। मैय्य किय्या पूत्तर बिज़ली का बिल भर आ। वन  ओल्ड मेन बिज़ली की लाइन में भूटे की तरह सिख़ रहा है और बेटा 'टाटा स्काई' पर क्रिकेट के मज़े लूट रहा है। ब्लैडी पिक्चर क्वॉलिटि। आज दिखाता हूँ कि बाप है कौन?आमिर ख़ान-ए ले (रास्ते में चलते हुए किसी अनजान  व्यक्ति के  हाथ में अपना टाटा स्काई थमा देता है।)नेपथ्य-पापा जी सॉरी,  लाइफ-लाइक पिक्चर क्लियरिटी, जो आप को दे क्रिकेट देखने का असली मज़ा। टाटा स्काई !  इसे लगा डाला तो क्रिकेट झिंगालाला !बेटा-पापा जी अपनी टाटा  स्काई चोरी हो गई। अरे वह तो होनी ही थी, वो ए ई इतनी कमाल की चीज़ !

2. टाटा स्काई-
आमिर ख़ान  दूधवाला-ग्राहक-अरे ! ये लो भईयाआमिर  ख़ान-बाबू जी ये तो आधे महीने का है,ग्राहक- तो.. ??  हम लोग तो छुट्टी पर थे, हमने दूध लिया कहा,आमिर ख़ान-तो लिया  नहीं तो क्या हुआ, गाय ने तो दूध दिया नाऊँ जानवर है सीधा-सादा ऊँ  छुट्टी-वुट्टी क्या समझे ऊ तो..पूरा दूध रोज़ देय !आमिर  ख़ान-अरे ऊँ तो '31' का महीना था, एक दिन का 25 रुपए और दे देते तो अच्छा  होता ! (कह कर ग्राहक से '25' रुपए झटक लेता है)आमिर ख़ान-जय  राम जी की बाबू जी (कह कर अपने रस्ते चले जाता है)नेपथ्य-भई  छुट्टी के पैसे किसी को मत दो चाहे वह दूध वाला हो या टाटा स्काई इसलिए हम लाये  है-वन्स ए इयर सबस्क्रिपशन हॉलिडे प्लेनयानि छुट्टी पर जाओं और पैसे भी मत  दोइसको लगा डाला तो लाइफ झिंगालाला !
  
अतः भाषा का इतना सुन्दर सृजनात्मक  इस्तेमाल निश्चित रूप से उपभोक्ता को वस्तु 
की ओर आकर्षित करेंगा ही। यानि ग्राहक  की मनोस्थितियों को समझकर एक ऐसे भाषा व बिम्ब (दृश्य) का प्रयोग विज्ञापनकत्र्ता  कर रहें हैं जिससे कि उनका उत्पाद अधिक से अधिक बिके। उपर्युक्त दोनों विज्ञापनों  के उदाहरणों में अपने-अपने तरीके से भोक्ता को आकर्षित करने की कला है।
  
भाषा-वैज्ञानिक, शैक्षणिक, सामाजिक और ज्ञान-विज्ञान के विस्तार के साथ जीवंत भाषा हिंदी के नये-नये रूप उभरे हैं। व्यवहार के स्तर पर भी हिंदी का प्रयोग व्यापक है। फिल्म और टीवी ने हिंदी के संपर्क भाषा रूप को भारत के हिंदीत्तर क्षेत्रों में ही नहीं,विदेशों में भी लोकप्रिय बना दिया है। दूसरे देशों के लिए आज हिंदी भारत की सभ्यता  और संस्कृति को समझने की माध्यम भाषा है। ग्लोबलाइज़ेशन के साथ-साथ जैसे स्थानीयता  की प्रवृत्ति बढ़ी है, वैसे ही हिंदी-मीडिया के व्यापक प्रसार के साथ बोलियों के  मिश्रण की प्रवृत्ति और भारतीय भाषाओं से शब्द-ग्रहण की प्रवृत्ति भी बड़े ज़ोरों से  बढ़ी है और ऐसे में मीडिया ने स्वीकार कर लिया है कि भाषा का एकरूपी होना संभव नहीं  हैं। विषमरूपी हिंदी की विविध छटाएँ आज दुनिया भर के हिंदी समझने वालों को एक सूत्र  में बाँध रहीं हैं। हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता को मीडिया ने अनेक कसौटियों पर परखा  है और हिंदी ने यह साबित कर दिखाया है कि ज्ञान-विज्ञान से लेकर मनोरंजन तक हर  क्षेत्र को पूरी तरह अभिव्यक्त और संबोधित करने में हिंदी सर्वसमर्थ है। विज्ञापन  के माध्यम से भी आज हिंदी दुनिया भर में फैले हिंदी भाषी बाज़ार को संबोधित कर रहीं  हैं। हिंदी अपनी ताकत से मीडिया पर सवार हो रही है इससे एक ख़तरा है कि अपने इस तरह  के संप्रेषण में हिंदी हिंग्लिश व खिचड़ी बनती जा रहीं है, ऐसे में यदि वह आम लोगों  की भाषा बन भी जाए, लेकिन विकास की भाषा नहीं बन पायेंगी। इन्हीं सब कारणों से  हिंदी का कोश सिमटता जा रहा है। और इन सब पर विचार करने की आवश्यकता भी है।

सुधीश पचौरी का कहना है कि "हम दो तरह की भाषाओं में जीया करते हैं-एक मानक कार्य की मानक भाषा और दूसरी अनौपचारिक भाषा। और भारत के संदर्भ में मानक भाषा अंग्रेजी कहीं जा सकती है।"आगे वे कहते हैं कि "भाषा की क़ीमत के असली सवाल भाषा  द्वारा पूँजी निर्माण में सहायक होने से जुड़े है। यही भाषा की क़ीमत की शर्त है।  भाषाओं के जीवन मरण के सवाल भी इस बात से जुड़े है कि वे भाषाएँ पूँजी के संदर्भ में  कितनी प्रोडक्टिव है? क्या प्रोडूस करती हैं? क्या ब्रांड बनाती है? भाषा। और अब हमें भी हिंदी को इसी संदर्भ में देखना होगा। अब हिंदी को संप्रेषण से आगे बढ़कर  एकरूपता पाने की ओर बढ़ना होगा।

अन्त में....
कुछ विचारणीय मुद्दे.....

1. जब पूरे शिक्षण-प्रशिक्षण के माध्यम को चालाकी से अंग्रेजीनुमा बनाया जा रहा है तो हिंदी के  विशुद्ध रूप की बात कैसे की जा सकती है?2. अल्प समय में बहुत कुछ जानने-समझने की अभिलाषा में जो कुछ परोसा जा रहा है, वह निश्चित ही कई व्यवस्थाओं को बदल रहा  हैं।3. निश्चित रूप से आज भी प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा  अधिक अपेक्षाएँ हैं।4. प्रिंट मीडिया को मनोरंजन और विज्ञापन के बीच एक सशक्त भूमिका निभानी थी जो वह नहीं निभा पा रहा है। 

                                                                                                             
  डॉ. बलविंदर कौर
प्राध्यापक, 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
खैरताबाद, हैदराबाद-500004