बुधवार, 28 जुलाई 2010

रवि श्रीवास्तव के दो व्यंग्य संग्रह



पुस्तक समीक्षा
       
                                                                               - डॉ. बलविंदर कौर


        साहित्य की आधुनिक विधाओं में हास्य-व्यंग्य का अपना महत्व है, जो आधुनिक संदर्भ में और 
 भी बढ़ता जा रहा है। आज कई 'लाफ्टर क्लब व चैनल' इस विधा को पर्याप्त लोकप्रियता प्रदान कर रहे हैं। इसी विधा को अपने लेखन का केन्द्र बिन्दु बनाते हुए रवि श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक 'हमारा लीदर बल्ली संत' और 'सारे जहाँ का दर्द' में विविध समस्याओं, मुद्दों, प्रश्नों को व्यंग्यात्मक रूप से अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। पुस्तक की भूमिका के कुछ अंश विचारणीय हैं- " साहित्य की लगभग सभी विधाएँ दम तोड़ती जा रही हैं। उनके पाठक नेपथ्य में नदारद होते जा रहे हैं, ऐसे में पढ़ा जा रहा है तो सर्वाधिक व्यंग्य और सुना जा रहा है तो सर्वाधिक व्यंग्य ही सुना जा रहा है।"
      
        हालाँकि व्यंग्य लेखन की परम्परा का अपना एक अलग इतिहास है, लेकिन इसके बावजूद व्यंग्य का आलोचकों ने काफी नोटिस नहीं लिया है। इसी परम्परा को एक नये शिल्प व गद्य रूप में हैदराबाद के प्रसिद्ध रचनाकार रवि श्रीवास्तव ने भी आगे बढ़ाने का कार्य किया है। रवि श्रीवास्तव व्यंग्य के हालात की पर्त-दर-पर्त उधेड़ने की कला में माहिर हैं। उन्होंने कभी भी सायास व्यंग्य नहीं लिखे बल्कि व्यंग्य उनके विश्लेषण की स्वाभाविक शैली है।

        इस संदर्भ में उनके दो व्यंग्य संकलन 'हमारा लीडर बल्ली संत' तथा 'सारे जहाँ का दर्द' विशेष उल्लेखनीय हैं। 'एकलव्य के ठेंगे से' के क्रम में प्रकाशित 'हमारा लीदर-बल्ली संत' (2006) पुस्तक मिलाप समेत कई पत्र-पत्रिकाओं में छप-छपा चुकी उनकी नई-पुरानी रचनाओं का पुलिंदा है। ये रचनाएँ व्यंग्य के विविध पुटों को लिए हुए हैं। जैसा कि हम समझते है-व्यंग्य एक ऐसी ही चटनी है जो हर पत्तल, हर थाली में जगह पाती है, इसी तथ्य को सार्थक करता है-श्रीवास्तव का प्रस्तुत संग्रह।


        'हमारा लीदर बल्ली संत' में कुल '51' निबंध हैं। अपने इस संग्रह में उन्होंने ऐसी सरकारी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया है जो प्याज, गन्ना, कपास पैदा करने वाले किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही हैं। अपने पर हँसना या अपनों को हँसाना कोई सहज कार्य नहीं है। अपने तंत्र पर हँसने का कठिन कार्य उन्होंने 'हमारा लीदर-बल्ली संत' में बखूबी किया है। जनतंत्रिय व्यवस्था में सिरे से आई विद्रूपता, विसंगतियों को भिन्न प्रसंगों, पात्रों व घटनाओं द्वारा सफलतापूर्वक उन्होंने प्रस्तुत किया है। उनके व्यंग्य की एक और बड़ी विशिष्टता रही है कि उन्होंने वास्तविक जीवन की विड़ंबनापूर्ण स्थितियों का रोचक और वस्तुनिष्ठ चित्रण किया है। साथ वे विरोधाभासों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति, पौराणिक-ऐतिहासिक प्रसंगों, लोकोक्ति-मुहावरों आदि के प्रयोग द्वारा अपने व्यंग्य प्रहार को तेज धार भी प्रदान करते हैं। उनके व्यंग्य की मार्मिकता का कारण उनमें छिपी करूण भावना का ही प्रकटीकरण है। पुस्तक का आवरण चित्र और शीर्षक सच में उनकी भाषा व विचार के लोकवादी होने की पृष्ठभूमि की ओर इंगित करता है।

        'हमारा लीदर-बल्ली संत' शीर्षक की उपयोगित का खुलाता करते हुए उनका कहना है कि "शिक्षा-दीक्षा के साथ हुआ अन्याय सारी विसंगतियों का जनक है। कसूर, दुर्योधनी राजसत्ता और द्रोणाचारी दीक्षा का है। दाहिने हाथ का अँगूठा जिस दिन गुरू दक्षिणा में माँगा और कटवा लिया गया था, उसी दिन से वह अब तक सबको ठेंगा दिखाता आ रहा है।" अतः आधुनिक व्यवस्था में भी सतही स्तर पर थोड़ा बहुत परिवर्तन दिखाई दे सकता है, लेकिन गहरे में वहीं गंदी-सड़ांध तल तक समाई हुई है।

        राजनेताओं की भ्रष्ट धार्मिक, राजनैतिक, समाज-सांस्कृतिक दलिलों के पीछे की स्वार्थपरता व चापलूसियों का सटीक और बेजोड़ चित्र प्रस्तुत करने में रवि श्रीवास्तव का जवाब नहीं है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने सामान्य भाषा और उदाहरणों का सहज में इस्तेमाल किया है। इस संदर्भ में संग्रह में प्रस्तुत कुछ निबंधों के कथ्य व शिल्प को देखा जा सकता है।

        संग्रह का पहला निबंध 'पर्दा उतारती परियोजना ललियाँ' में प्रतीकात्मक रूप से सरकारी परियोजनाओं की तुलना प्रेमिकाओं के स्वभाव से करते हुए उसे काफी लचीली व अस्थाई बताने का शिल्प काफी जबरदस्त है। 'मन के कैनवास पर खुरची तस्वीर' निबंध में आस्था,विशवास और श्रद्धा की उपयोगिता नापने के लिए हानि और लाभ के सतही पैमाने को नकारा है- "इसीलिए हमें अपनी श्रद्धा, अपना विशवास अपनी आस्था और मान्यता की वैज्ञानिक या क्लीनिकल शल्य क्रिया कराना मजूर नहीं है। फायदे और नुकसान के बटखरे में हमें अपनी बोधगम्य तस्वीर का वजन करना अच्छा नहीं लगता और ना ही लगना चाहिए।" 'फिरौती के लिए कम जोख़मी नुस्खा' लेख में अंडरवल्र्ड में फिरौती 'रैनसम' की परम्परा को भारतीय धार्मिक मिथक से जोड़ा है। जिसमें रावण का सीता को छल से उठा ले जाना एक तरह से आधुनिक अपहरण का ही रूप बताया गया है। आगे समाज की बुराई को फिरौती के रूप में अपहरण कर लिए जाने की बात कहीं गई है। 'वह लैंड ऑफ लॉ' चाहता है... निबंध में तमाम खाकी और सफेद वर्दियों से बड़ी और ऊँची-कागज़ी वर्दी को माना गया है, इसके बावजूद भी कागज़ की वर्दी पर लिखी शिकायत कुछ भी नहीं कर पाती, क्योंकि "यार यह क्यों भूल जाते हो कि तुम 'लैंड ऑफ लॉ' के बाशिंदे नहीं हो बल्कि 'लॉ ऑफ लैंड' के बाशिंदे हो।" 'बीच में जो है, एक मिथ है, मिथ्या है' निबंध में दर्शन का सहारा लेते हुए पाप-पुण्य, जड़-चेतन अवस्था की बात कहीं गई है। 'कोई आईना सच बोलेंगा नहीं' में आईने के सामने नंगा खड़ा होकर भी आईना सच नहीं बोलता। इस तथ्य को बड़े ही कलात्मक ढंग से दर्शाया गया है। साथ ही 'रिटायरमेंट' की प्रचलित धारणा को नकारकर उसे एक सकारात्मक रूप देने का प्रयत्न भी बड़े ही व्यंग्यात्मक रूप में हुआ है। महिला हेल्थ क्लबों की वास्तविकता का पर्दा फाश भी यहाँ किया गया है। इसके अतिरिक्त डॉक्टर और दवाओं में चक्कर खाते इन्सान की हालत पर एक भावात्मक दृश्य भी प्रस्तुत हुआ है। कबीरदास के हवाले से धार्मिक उन्माद और वैमनस्य के तथ्य को उजागर किया गया है। 'ही इज़ आल इन वन टू हर' लेख में संस्कृत के श्लोकों के हवाले से पागलख़ाने को सम्पूर्णता में व्यक्ति को अपनाने वाला तथा उसकी तुलना में संसार को स्वार्थी करार दिया गया है। कहीं-कहीं भारतीय संस्कृति की परम्परागत मान्यताओं को मानते हुए उसके संरक्षण की हिमायत की गई है। 'थाने का कुत्ता और थानेदार की बछिया फरार' में कुत्ते और बछिया के प्रेम विवाह से सरकारी लाभ की बात कहीं गई है। "आदर्श विवाह और संकर उत्पत्ति के लिए कुत्ता और बछिया सोशल वेलफेयर का अवार्ड पाएँगे और उनकी भावी संतानें यही अफेयर जारी रखने के लिए आइन्दा बछेड़ी और गधे के बीच प्रेमपींग बढ़ाकर खच्चर का उत्पादन बढ़ाएँगें।"

   

    'साम्प्रदायिकत जी पर चढ़ी जवानी' में एक चंचल लौंडिया से साम्प्रदायिकता की तुलना कर सरकारी तंत्र पर कटाक्ष किए गए है। इसके अतिरिक्त विश्व में भारत की उपलब्धियों को गिनाते हुए, उसी की व्यवस्था के द्वारा उसके पतन की बात कहीं गई है। और प्रैक्टिकल राजनीति शास्त्र में रटन की प्रवृत्ति का निषेधकर व्यावहारिकता को भारतीय लोकतंत्र में ज्यादा सफल दिखाया गया है। 'वरदान पाया भस्मासुर' में सरकार को भोलेनाथ और समस्याओं को भस्मासुर के प्रतीक से रूपायित करते हुए राजनीतिक सत्य की पर्तों को खोला गया है। भारत में जातिवाद की गहरी जड़ों को बार्किंग डॉग्स आर नाट अलॉउड के रूप में चित्रित किया है। "हमें इस घटना में जाति-गौरव से तिलमिलाते उन रहनुमाओं का अक्स दिखा था जो जात-पाँत का भेद भाव मिटाने का ठेका लिये हुए हैं, लेकिन खुद उस जाति मद से मुक्त नहीं हो पाए।" उत्तर आधुनिक युग में अनिद्रा व तनाव से ग्रस्त व्यक्ति की दशा का भी वर्णन बड़े कलात्मक रूप में मिलता है। 'काश गुर्दे की तरह हर अंग डबल होता' में पौराणिक संदर्भों में गणेश जी के शीश परिवर्तन की कथा के माध्यम से किडनी प्रत्यारोपण व अन्य अंगों के ट्रांसपलेन्टेशन की तरह ही यदि शरीर का हर अंग दो होता, जिससे मनुष्य की बहुत सी समस्याएँ हल हो जाती के प्रति भी आशा का भाव रखा गया है। 'पांव पखारने वाली चाहिए' लेख में ऐसी महिलाओं का आधुनिक युग में बोलबाला दर्शाया गया है जो दुनिया के कारखाने में अब पांव पसारने वालियाँ हो, न की पांव पखारने वाली भर।

        कुल मिलाकर उन्होंने अपने इतराफ के परिवेश को बड़े ही संवेदनात्मक रूप से हास्य-व्यंग्य की चाँसनी में डूबो कर पाठकों के सामने परोसने का कार्य किया है। निश्चय ही उनका यह संग्रह इस युग की परिस्थितियों पर एक करारा व्यंग्य साबित होता है।

       

        'सारे जहाँ का दर्द' (2009), उनके व्यंग्य-आलेखों की तीसरी किताब है। इस संग्रह के लगभग सभी निबंधों में वे अपनी ओर से कोई फैसला नहीं देते। सच-झूठ के बीच के विकल्प को वे अपने पाठक तक छोड़ना ही बेहतर समझते है।


        रवि श्रीवास्तव लंबे समय तक डेली हिंदी मिलाप से जुड़े रहे जिससे कि अख़बारनवीसी के सरोकारों ने उन्हें जिन्दगी के मसाइल से जोड़कर हकीकत बयानी का आदर्श-ईमान बना दिया। उन्होंने अपनी सीधी-सादी उक्तियों व पौराणिक, ऐतिहासिक पात्रों की सन्दर्भानुसार निर्मिति को जो व्यंग्य का लेहजा दिया है, वह सपाटबयानी को उस ऊँचाई पर ले जाता है, जिसे छूपाना असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य है।

        व्यंग्य की सार्थकता उसके चुटीलेपन में होती है जो दूर तक पाठक को चोट पहुँचाने का काम करती है। रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य लेख भी इसी काम को बखूबी अंजाम देते हैं। व्यंग्य उनके लिए कला भी है, तमीज भी है और तहजीब भी। इस ज़माने में जहाँ व्यक्ति संवेदनहीन होकर पथरा सा रहा है, ऐसे में उस तक अपनी बात पहुँचाने के लिए व्यंग्य से ज़्यादा कारगर कोई विधा हो भी नहीं सकती, इसका एक उदाहरण रवि श्रीवास्तव के व्यंग्य माने जा सकते है।

        व्यंग्य की असाधारण अभिव्यक्ति को पाठक तक पहुँचाने का सर्वाधिक जरूरी माध्यम भाषा है। भाषा की गहरी पकड़ के बिना व्यंग्य अपनी सार्थकता को नहीं छू पाता है। इसी भाषागत गहराई को रवि श्रीवास्तव ने अपनाकर अपने व्यंग्यों को चुटीला, सपाट व कटाक्षी बनाया है। पाठक पर उनकी भाषा के प्रभाव को देखते हुए ही तो उनके संदर्भ में यह बात कही जाती है- 'वाह ! साला क्या लिखता है !'

        इनके व्यंग्य लेखों में हमें कहीं भी किसी बात की पुनरावृत्ति नजर नहीं आती है। उन्होंने कथ्यों को कई प्रामाणिक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए शेरो-शायरी, दोहे-चौपाई, उक्तियों आदि को माध्यम रूप में भी इस्तेमाल किया हैं।

        'सारे जहाँ का दर्द' संग्रह में '33' निबंध हैं। इन व्यंग्य निबंधों का अपना एक विशिष्ट तेवर है जो आए दिन समाज, व्यवस्था, सरकार, अर्थ आदि के क्षेत्र में आने वाली समस्याओं के कारणों की तहों को एक-एक कर खोलकर पाठकों के सामने एक प्रश्न के रूप में खड़ा करता है। इन व्यंग्य लेखों में कई तरह के विषय है जिसमें एक ओर सरकारी कर्मचारियों द्वारा सरकार के पैसों का मनमाने
ढ़ंग से प्रयोग पर औरंगजेब व चाणक्य जैसे ऐतिहासिक पात्रों के जीवन का आदर्श लेकर आज की वास्तविकता पर चुटकी कसी है। 'तरक्की के टीले में दबी, झाँकती सवालिया आँखे' निबंध में तकनीकी के विकास की बात करते हुए व्यक्ति के स्वास्थ्य को लेकर हो रही लापरवाही को रेखांकित किया गया है। भारत में धर्म का क्षेत्र सदैव विवादों के घेरे में रहा है, इसी धारणा को ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी मान्यता के आधार पर हर किसी को समान अभिव्यक्ति के अधिकार की बात कहीं है। 'यह किसी का विश्वास है न कि अंध-विश्वास जैसे निबंध में विश्वास और अंध विश्वास के मूल तत्वों पर विचार करते हुए निष्कर्ष रूप में कहा है कि- "अंध विश्वास कुछ भी नहीं है। यह सिर्फ दूसरे की नज़र का धोखा है चश्मा है रंग है। पूरी दुनिया विश्वास पर ही टिकी हुई है।" 'जिन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखों' में स्कूली पाठ¬क्रमों की रटान्त पढ़ाई से हटकर जिन्दगी के अनुभवों से ज्ञान अर्जित करने की बात कही गई है-

"धूप में निकलों घटाओं में नहा कर देखो ।
जिन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो ।।"

        'प्यार को प्यार रहने दो कोई नाम न दो' निबंध में वैलेन्टाइन-डे को भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक रूप में कामदेव की संज्ञा दी गई है तथा ऐसी पाश्चात्य धारणा का विरोध किया है। चिकित्सा के क्षेत्र में नयी-नयी पद्धति के होते हुए भी कुल शहर बीमार ही पड़ा हुआ है लेख में समाज के यथार्थ को दर्शाते हुए कहा है कि -

"डॉक्टर है सब कोई और हर कोई बीमार है।
और तो सब ठीक है, पर कुल शहर बीमार है ।।"

        साथ ही परीक्षा-पद्धति और शिक्षा भवन निर्माण की स्थितियों पर भी काफी कुठाराघात एक सहज ढंग से लेखक ने किया है'जीवन विधि के ही नहीं विधान के भी हाथ में है ' लेख में अमेरिका जैसे विकसित देशों में व्यक्ति के जीवन की बागडोर विधायकों के हाथ में है- "कोई रोगी कब और कैसे मरे या जिए, इसका फैसला अमेरिका की अदालत और वहाँ की कांग्रेस के हाथ में है। विधि की जगह, वहाँ 'विधेयक' तय करेंगे कि अदालत जिस रोगी को मौत की नींद सुलाना चाहती है, उसे जिंदा रखा जाए या नहीं।" शब्दकोश कहते है कि 'सेवा' का मतलब कुछ और है' के माध्यम से शब्द के परिवर्तित होते नये अर्थों की ओर इशारा किया गया है। भारत की बढ़ती आबादी पर भी कुछ लेखों में कटाक्ष है। निजी क्षेत्रों में नौकरी करने वाले व्यक्ति की स्थिति को उजागर करते हुए 'गधों को साप्ताहिक छुट्टी देने का फैसला' लेख में व्यक्ति की तुलना गधों से की गई है। 'क्रिकेट रिक्वायर्स मोरोटोरियम इन इंडिया ? के माध्यम से इस क्षेत्र में आई अनियमितताओं व विसंगतियों की ओर ध्यान दिलाया गया है-"बकौल कम्यनिस्ट्स अगर धर्म अफ़ीम है तो क्रिकेट जैसा खेल भी अफ़ीम है जो जुनूनी बनाता है। खिलाड़ियों का पुतला फूँकने की जगह पागलों को अपना घर फूँक लेना चाहिए था।" पौराणिक घटनाओं को आधार बनाकर आस्था और विश्वास की बात 'अट्टाहास करि गरजा कपि बढ़ि लाग अकास' में की गई है। कुछ संस्मरणात्मक लेखों में अपने मित्र, डॉक्टर की सलाहों और व्यक्तित्व को प्रेरणा रूप में ग्रहण किया है। 'निजता में हस्तक्षेप के लिए संविधान का बहाना' लेख में एश्वर्या   के पेड़ से  विवाह पर उठे विवाद की परत को उधेड़ते हुए व्यक्ति के अधिकार व अंधविश्वास , संस्कार आदि विषयों पर विचार प्रस्तुत किए हैं।

        आज की शैक्षणिक संस्थाओं में हो रहे शोध पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने निबंध लिखा 'अब तो उनकी कमर पर शोध भी होने लगी' जिसमें हमारे कवि लेखक किस तरह स्त्री देह को लेकर लालायित है, इसका परोक्ष रूप से उल्लेख किया है। उस्मानिया विश्व विद्यालय के प्रोफेसरों और रीडरों पर कहीं कटाक्ष तो कहीं तहेदिल से श्रद्धांजली भी प्रस्तुत की गई है। ईश्वर की सृष्टि पर भी काफी प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कुछ समाधान प्रस्तुत किए हैं। 'अनछुई कोमल गीली मिट्टी सलीके से छुई जानी चाहिए' लेख में बच्चों के जीवन को कैसा बोझिल बना दिया जा रहा है इसे दर्शाया गया है। संग्रह के अंतिम लेख 'कंधों पे जरा इन्हें भी अपने उठाइए' में उन्होंने हैदराबाद में पहले किस तरह से हिन्दु-मुस्लिम गंगा-जमुनाई संस्कृति के परिचायक थे। लेकिन अब उनके बीच आए व्यवधान को उन्होंने अपने चुटीले अंदाज़ में बयान किया हैं।           

        कुल मिलाकर लेखक ने अपने युग की सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक विसंगतियों व अघटनीय घटनाओं को बड़े ही सहज तरीके से कई शीर्षकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। आशा है कि  उनके ये संग्रह हिन्दी व्यंग्य साहित्य जगत में अपना विशेष स्थान बना पाएँगें।



                विवेचित पुस्तकें :-
                हमारा लीदर बल्ली संत, 2006
                सारे जहाँ का दर्द...(2009) 
                लेखक : रवि श्रीवास्तव
                प्रकाशक : मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद
          

रविवार, 25 जुलाई 2010

भिखारी

 

कुछ माँगना क्या इतना आसान होता है ?
अपने अभिमान को गिराना...
तपती धूप में घण्टों राह चलते
लोगों के सामने गिड़गिड़ाना
इतने पर भी कुछ न पाना !
क्या इतना आसान होता है ?
विष्णु ने भी माँगते समय
बावनावतार रूप धारण किया था !
....राजा बली के सामने बौने बने !
....ऐसे में किसी से कुछ माँगना,
बड़े साहस का काम होगा !
हम राह चलते इन भिखारियों को
हकारत की निगाह से देखते है,
पर ये याद रहे कि...
जब ये कुछ माँगते हैं,
तो कर देते है- हमें  ईश्वर !  
इसीलिए जब ही कोई कुछ माँगें !
....सोचे कितना बड़ा कर गया- 'हमें'
ऐसा मैं मानती हूँ !

जड़ें

खिलकर स्वाभिमान से खड़े
जड़ की मजबूती से ही...
जड़े पूरे वृक्ष को ताकत देती
ऊपर से फल-फूलों से सराबोर वृक्ष
जड़ से ही ऊर्जा पाता !
कितना निः साहय कर देता हैं
जड़ से कट जाना !
वैसे ही जैसे फलों-फूलों को
उनकी जड़ से अलग कर
फ्रिज़र में रख देने पर
आखिर क्या होता है ?
शायद वे थोड़ी साँस लेते है...
... मर-मर के !
ऐसे ही हमारी जड़ें,
जीवन का बहुत बड़ा सहारा है !
उससे कट कर हम कहाँ होगें !
वे हमारा पूरा अस्तित्व है !
हमारा इतिहास और संस्कृति ...
...पहचान है -'हमारी' !
हाँ, यह सच हैं- ग्राफ्टेट पौधों की तरह,
हम भी किसी दूसरी संस्कृति से जुड़े
लेकिन उसे भी पहले ठोस संस्कार चाहिए !
अपनी जड़ को न पहचानने वाला
क्या दूसरे की जड़ को पहचान पाएंगा ?
जड़ के बिना शाखाओं, पत्तों का कोई
अस्तित्व नहीं होता !
इसीलिए इस युग को अपनी जड़ों में जाना होंगा !
अपने को जानने वाला ही
दूसरों को जान सकता है !
इस बात को समझ जाना होगा !

शनिवार, 24 जुलाई 2010

रास्ता

जिंदगी का रास्ता
कितना घुमाऊदार !
हम तो बस सफर में हैं !
और सोचते हैं मंजिल पता हैं !
लेकिन मंजिल खुद अपना रास्ता चुनती है !
वर्जित-अवर्जित कई रास्तों पर चलें...
यह सोचकर की अनुभव सीखा दैगा...
उसमें तप कर सोना हो जाएगें !
पर रास्ते के आगे किस्मत खड़ी है !
मुँह बघाए !
हमें कहीं और चलना हैं !
पर चल विपरीत दिशा में रहें हैं !
विज्ञान कहता हमारा तरीका गलत हैं !
अध्यात्म कहता पिछले जन्मों का फल हैं !
हम इन दोनों के बीच खड़े हैं !
सोचते-कौन-सा रास्ता सही है !
सच, समझ नहीं आता....
रास्ते को अपने गलत कह सकते नहीं
और फिर स्वीकारते भी नहीं !
कैसी विडंबना में फँसे...
किस रास्ते पर चले...
तय नहीं कर पाते !
ढेरों रास्तों में किस्मत का द्वार...
कहाँ खुलता है ?
लेकिन जिंदगी का मज़ा तब...
जब सारे रास्ते अपने लगें !
सही-गलत जाने बिना,
बस सिर्फ चलने का जुनून हों !
तब ही तो 'खुलजा सिमसिम'...
कहते ही दरवाजे खुल जाएगें !
शायद, रास्ता अच्छा या बुरा नहीं !
बल्कि ये तो हमारी सोच हैं...!
बस, हमें तो चलते जाना हैं.....

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

संवेदनहीनता

क्या मनुष्य होने कि....
शर्त हैं- 'संवैदनशीलता' ?
शायद-'हाँ'...!
इसी में रम कर वे औरों से जुड़ता....
इसी के बगैर सब कुछ छोड़ता...
हमारी संस्कृति जहाँ जानवरों....
पेड़-पौधें, फूल-पत्तियों तक को संवेदनशील
हो देखती थीं...!
लेकिन आज मनुष्य,
यहाँ तक की आत्मियों के प्रति भी...
संवेदनहीन होता जा रहा हैं !
उसका किसी के रूदन से कलेजा नहीं काम्पता !
जहाँ फिल्मों, नाटकों में ऐसे दृश्य से
आँखें भर-भर आती थीं
आज उसकी हकिकत पर भी दो आँसू नहीं बहाता !
ये बड़े संकट का दौर है !
अब भी नहीं संभले तो...
सब कुछ खत्म हो जायेंगा !
रोनेवाला आदमी बम बरसाएँगा !

शब्द

 अनुभव का मूर्त रूप !
अपने को व्यक्त करने का सामान....
कितने ही शब्दों को जन्म देकर भी...
मिटी नहीं है प्यास ....
अभी भी ढूँढ़ रहें हैं-और-और...'शब्द' !
शब्द दिखने में कितने छोटे !
पर कितनी ही शताब्दियों के सच को बोते...
हर भाषा का अपना शब्द-विधान !
यदि शब्द ब्रहृ हैं !
तो फिर सब कुछ शब्द में हैं !
लेकिन शब्द रूढ नहीं !
काल के साथ इसका रूप नया...
शब्द अनुभूत बिम्ब की छवि है...!
जहाँ मौन अस्पष्ट कर दें !
वहीं शब्द खोल देते पोल !
अनुभव को शब्द का ज़ामा पहनाना,
बहुत बड़ी साधना है !
शब्द-अर्थ दोनों का चोली-दामन-सा साथ...!
जिनके पास ज्यादा शब्द,
वे सबसे विद्वान !
और जिनके पास कम ?
वे सबसे विरान !
शब्दों से खेलना होगा...
तब ही अपना कुछ गढ़ पाएँगें !
शब्दों का खेल भयकर हो गया !
तब ही वे अनेकार्थी कहलाएँ !
शब्द के स्थान वस्तु... !
खण्डित कर रहीं कल्पना को...!
सृजन का स्थान वस्तुनिष्ठता !
ऐसे में सब मशीन हो जाएँगा !
मनुष्य भी रॉबोट कहलाएँगा !

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

प्रेम !

प्रेम असीमित हैं !
कुछ भी कहा जा सकता हैं...
प्रेम पर !
और फिर कुछ भी नहीं कहा जा सकता....
प्रेम पर !
सच में कितनी द्वन्द्वात्मकता हैं -'इसमें' !
प्रेम विशाल हैं !
हमारे स्वार्थों से संकुचित हो जाता हैं !
प्रेम बँटा देह-आत्मा, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता के फेर में...
न जाने प्रेम पर कितने पहरे बैठाए गए !
आसानी से परिभाषित हो नहीं सकता !
प्रकृति की हर हँसती, खेलती, सुन्दर...
वस्तु में इसका दीदार हैं !
इसे पाकर सब तृप्त, शान्त, आनन्दमय...हो जाता है !
यह एक मनोदशा है !
'मनुष्य' जहाँ पहुँचकर अपने को जानता हैं !
निस्वार्थीं होने को पागल करता हैं -'प्रेम' !
प्रेम बहुत बड़ी ताकत हैं !
और जो इसमें असुरक्षा महसूस करते हैं !
वे प्रेम तो नहीं और कुछ करते होंगैं !
मीरा, लैला-मजन्नू, शीरीं -फरहाद, सोनी-महिवाल, शशी-पुन्नो....
प्रेम के स्पिरिट को दर्शाते रहें !
जिन्ह प्रेम कियो, तिन ही प्रभु पायो..!
तो अपने से प्रेम करों...!
दूसरों से अपने आप प्रेम हो जायेंगा !
इसके रूप अनगिनत हैं...!
सारी सकारात्मक सोच प्रेम से उपजी !
खैर इतना कहकर भी प्रेम पर कुछ न कह पाई ।
थोड़ा लिखा बहुत समझना !

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

आज की औरत


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पुरूष से चारगुना आगे हैं - 'औरत' !
हर जिम्मेदारी उठा रही हैं - 'औरत' !
पैसा कमाने के चक्कर में अपने को जान रही हैं -'औरत' !
पुरूष की चलाकी जानकर भी और-और काम कर रही हैं- 'औरत' !
सच यह सदी औरतों की ही हैं !
क्योंकि उसी ने कई क्षेत्रों में छलांग लगाई हैं !
उसने अपनी पहचान का विकल्प खोज लिया...!
जाने-अनजाने पुरूष ने औरत को अस्त्र थमा दिया !
वैसे आज औरत सब कुछ मनवा ले रही हैं !
अब उसके सारे भ्रम टूट गए हैं !
वे अपने को पहचान चुकीं हैं !
लेकिन पुरूष को अभी अपने को और पहचानना हैं !
दोनों को मिलकर ही दुनिया सजाना हैं !

रविवार, 18 जुलाई 2010

सपना !

मेरा सपना कितना छोटा!
अपने मन का कर जाना...
लेकिन क्या अपने मन का करना आसान होता ?
मन तो न जाने कैसी-कैसी उड़ान भरता !
क्या अपने जीवन में ऐसी एक भी उड़ान भरी.. ?
वैसे कहने में सब कितना अच्छा लगता !
पर हकीकत से सामना होते ही सब चीत !
दुनिया बेड़िया डालती या मन ही मर जाता ?
मन जिस सपने की ओर भागता ...
हाँ, पूरा भी हो सकता है !
लेकिन मन और स्वप्न दोनों के बीच ऐसा कुछ हैं...!
जो पूरी होने नहीं देता प्रक्रिया !
तब ही सच जाना, अपने लिए जीती तो...!
पूरे हो गए होते, देखें सपने !
मगर ऐसा क्या है, जो जुड़कर मेरा सब खो लेता हैं ?
यहाँ तक की मेरे सपने भी चुरा लेता !

शनिवार, 17 जुलाई 2010

अंधेरा

बचपन में अंधेरा अज़नबी-सा लगता था !
लेकिन उजाले में वह ज्यादा नहीं डराता था !
बचपन में जीवन के अंधेरे के साथ, रात का अंधेरा...
अपरिचय के कारण उतना ही डराता !
सच तब अकेलेपन से डर लगता था !
पर आज उससे परिचय हो गया...!
मैं ख़ुद को उसमें डुबोती चली गई !
कितना अपना-सा लगता है- 'वह' !
छिपाना उसकी सबसे बड़ी ताकत है !
वह सबको समान बना देता हैं !
ज्ञान का प्रकाश भी इसमें चस्प है !
कितना बड़ा द्वन्द्व-कल का अंधेरा आज का उजाला !
कल का अकेलापन, आज की ताकत !
वह अन्दर का उजाला है !
जिसने बहुतों को उबारा हैं !
और मुझे यह बहुत ताकत देता है....
पर क्या आपको भी.....?

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

रिश्ते

आखिर रिश्ते क्या होते हैं ?
क्या वे जिनसे हम जन्म के साथ ही जुड़ जाते है ?
या फिर जिन्हें हम धीरे-धीरे अनुभव से प्राप्त करते है ?
इन दोनों ही रूपों में सच्चा रिश्ता कौन-सा ?
कभी मन खून के रिश्तों की ओर दौड़ता...
तो कभी खून के रिश्तों से अलग...
लेकिन दोनों के बारे में सही कुछ नहीं कहा जा सकता।
जहाँ मन पूरे वेग के साथ बहने लगे...
हम अपने को उसमें पहले से ज्यादा इन्ज़ॉय करने लगें !
लेकिन .यही रिश्ता जब अपने निश्छल प्रवाह को छोड़ दे....
तो उससे ख़तरनाक रिश्ता और कोई नहीं !
रिश्तें में जहाँ छूट हो, स्पेस हो...
जिसमें कोई असुरक्षित भाव न हो...
और शायद इस सदी को उसकी ज़्यादा जरूरत है !

एक बरसात

वैसे बरसात से मेरा प्रेम पुराना है !
जीवन में बरसात का आना एक बहाना है !
बचपन में घनघोर बरसात में निकल जाने को मन करता था।
उस पानी में भींगने का नशा कुछ और ही था !
आपे से बाहर हो बस बारिश की हर बूँद को छू लेना।
लेकिन उम्र के पडाव के साथ बारिश के कई मजे भी लेना।
और जब किसी के प्रेम में पड़ी तो बस...
बारिश ने हम दोनों को कितना करीब ला दिया।
एक ही छोटी-सी छतरी के नीचे एक-दूसरे को बचाने में...
सच बारिश ने मेरे मन को बहने दिया...
शायद जो मैं कई कोशिश कर भी नहीं कर सकती थीं...
बारिश ने उसे पल भर में करवा दिया !

बुधवार, 14 जुलाई 2010

बीमार काया

दौड़ते-भागते शरीर का एकदम से लडखडा जाना .
न जाने कितने नकारात्मक विचारों को जन्म देता है .
कैसी-कैसी ढेरों कल्पनाएँ वह क्षण में कर लेता है .
कभी टी.बी, हार्ट एटेक, मधुमेह या फिर कैंसर !

वैसे तो मनुष्य आत्मिक बल से जीता है ....

अस्वस्थ शरीर इस बल को तोड़ने का प्रयास भर है .
और जो इसके फेर में आ गया, उसे शंका ने जकड लिया .
सच शरीर के एक अंग का बेजान होना ...
कितने ही स्वस्थ अंगों को बेजान करता है !

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

गुज़रा कल

उम्र के लम्हे... पड़ाव में गुज़रा कल बार-बार याद आने लगा !

क्यूँ कर मन पुनः वहीँ भाग जाने को मचलने लगा !
ऐसा क्या था उस बीते हुए कल में आकर्षित करता हुआ सा !
हालांकि गुज़रा कल आज कितना अपरिपक्व, बचकाना सा लगता है !
इन सबके बावजूद भी मन उसमें डूब जाने को करता है !
शायद उसमें मदहोश कर देने वाला नशा था !
नहीं तो मन उसके बदले क्यूं इस परिपक्वता को ठुकरा देना चाहता है !
मेरा मन निरंतर भूत और वर्तमान के द्वंद्व में झूल रहा है !
भावनाओं को संयमित होकर जब तर्क का जामा पहनाया !
तो निष्कर्ष सामने खड़ा हो मुझे स्मृतिजीवी घोषित करने लगा !
खैर जो भी हो, मैं भावों को लोक की आँखों से नहीं देखती !
मैं उसी में डूब जाना चाहती हूँ अनंत काल तक !
आप इसे किस रूप में लेंगे आप जानें !
मैंने तो भई अपना रास्ता तय कर लिया, आप अपनी जानें !

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

समाधि

कितनी बार
जाने कितनी बार
समझाया इस बावले मन को,
सुनता ही नहीं
बहरा हो जैसे.

तुमसे मिली
तो सदा को बहरी हो गई मैं सचमुच.

दुनिया क्या क्या कहती है जाने
पर मुझे कुछ सुनता ही नहीं.