सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मनोरंजन, विज्ञापन और हिंदी



मनोरंजन, विज्ञापन और हिंदी


संपूर्ण जीवन और जगत  संप्रेषण और भाषा का व्यापक प्रयोग क्षेत्र है। भाषा के प्रकार्य तेज़ी से बढ़ रहे  है। भूमंडलीकरण और अंतर्राष्ट्रीय संचार के इस युग में मनोरंजन व्यवसाय और वाणिज्य  का विकास बड़ी तीव्र गति से हुआ है। और इससे भाषा के सामने नई चुनौतियाँ भी खड़ी हो  रहीं हैं। वर्तमान समय पूँजीवादी भूमंडलीकृत बाज़ार का समय है जिसके अंतर्गत  प्रत्येक वस्तु बाज़ार का हिस्सा बन रहीं हैं। ऐसे में यहाँ इसी अत्याधुनिक  भूमंडलीय, बाज़ारवादी संदर्भों को दृष्टि में रखकर हिंदी के मनोरंजन व्यवसाय और  विज्ञापन की प्रयोजनपरक भाषा पर कुछ विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा  हैं।
   
सर्वप्रथम इस वर्तमान व्यवस्था के मनोरंजन व्यवसाय व विज्ञापन के 'डायमेंशन' के समझने के लिए खाड़ी युद्ध के बाद जिस तरह से मीडिया का टेबलाइटकरण हुआ  है उसे समझना बहुत ज़रूरी है। इसी संदर्भ में मीडिया आलोचक फ्रेंक एसर ने 19 वीं  शताब्दी के अंत और 20 वीं शताब्दी के आरम्भ को टेबलाइटकरण की प्रक्रिया की शुरुआत  माना। इसी समय 
खेलों और मनोरंजन ने भी प्रिंट  मीडिया में अपनी जगह बनाना शुरु  किया। 
विज्ञापनकर्ताओं ने समाचारों के माध्यम से एक ऐसी मीडिया संस्कृति का निर्माण  किया जहाँ पाठक उपभोक्ता बनने लगा। और ऐसे में मीडिया राजनैतिक स्तर पर जनता की  रूचि का निर्णायक भी बन गया।

इसी संदर्भ में हॉर्वेड कर्ज़ का कहना है कि इस मीडिया टेबलाइटकरण ने 'हार्ड न्यूज़'-राजनैतिक, आर्थिक आदि की गुणात्मकता को कम कर 'सॉफ्ट न्यूज़' -सनसनी(सनशेंसनल) , सकेंडल और मनोरंजन को अधिक प्रधानता दी। सामाजिक और व्यक्ति जीवन की त्रासदियों को मनोरंजक व नाट्कीय ढंग से परोसा जाने लगा। अतः परम्परागत सत्य,मीडिया द्वारा निर्मित सत्य व विज्ञापन के माध्यम से निर्मित सत्य में दूसरी और तीसरी श्रेणी के सत्य ने समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करना आरम्भ कर  दिया।
  
मनोरंजन एक ऐसी क्रिया है जिसमें सम्मिलित होने वाले को आनन्द आता है एवं मन  को शान्ति मिलती है। तो ऐसे में टेलिविज़न, सिनेमा, रेडियो, नाटक, संगीत नृत्य,डिस्को, हास्य रस, गोष्ठी, सर्कस, मेला, खेल आदि मनोरंजन के अंतर्गत ही समाविष्ट हैं। Entertainment consists of any activity which provides a diversion or permits people to amuse themselves in their leisure time. Entertainment may also provide fun, enjoyment and laughter. the Industry that provides Entertainment is  called the Entertainment Industry.  परन्तु विज्ञापन कम्पनियों ने अपने उत्पाद की बिक्री के लिए आज इन मनोरंजन उद्योग पर अपना आधिपत्य ज़मा लिया हैं। विज्ञापन आज मनोरंजन का प्रतीक बनते जा रहे है।

वैसे प्रिंट मीडिया में भी मनोरंजन के लिए  स्पेस है। और इंटरनेट की बदौलत ऑनलाइन रेडियो ने तो कई-कई भाषाओं में विशिष्ट  समूहों का मनोरंजन शुरु कर दिया हैं। यहाँ मनोरंजन व्यवसाय के मुख्य दो बड़े क्षेत्र  फिल्म और टी.वी पर संक्षिप्त चर्चा की जा रही है। वैसे इंटरनेट भी मनोरंजन और  विज्ञापन का एक बहुत बड़ा क्षेत्र बन कर उभर रहा  हैं।

फिल्म-
  
फिल्में एक ऐसे कला माध्यम के रूप में हमारे  सामने उपस्थित है, जिसमें अनेक कलाओं का पड़ाव दिखाई देता हैं। भाषा, साहित्य और  संस्कृति का गठन फिल्मों का महत्वपूर्ण अवदान माना जा सकता है। और हिंदी फिल्में भी  अपनी इस भूमिका में पीछे नहीं हैं। हिंदी फिल्में अधिकांशतः हिंदी भाषा के जीवन  सरोकारों, स्पंदन, भावात्मक संचार, आर्थिक स्थिति एवं वैचारिक बनावट को दर्शाती है।  'बॉलीवुड' हिंदी फिल्मों की क्षेत्रीय सीमाओं, भौगोलिक बाधाओं एवं भाषाई घेरेबंदी  को चटखा देता है। हिंदी फिल्मों के निर्माण व वितरण में हिंदीतर भाषा-भाषी लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। हिंदी फिल्में अन्य मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय  विमर्श केमुद्दों को भी लगातार गंभीरता और सहजता से उठा रहीं हैं।   

हिंदी  फिल्में निश्चय ही हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपनी विश्वव्यापी भूमिका का  निर्वाह कर रहीं हैं। उनकी यह प्रक्रिया अत्यंत सहज, बोधगम्य, रोचक, संप्रेषणीय और  ग्राह्र है। हिंदी इस संदर्भ में भाषा, साहित्य और जाति तीनों अर्थों में ली जा  सकती हैं। हिंदी फिल्मों की दृश्यता हिंदी भाषा के अर्थ प्रसार में सहायक रहीं हैं।  क्योंकि भाषाओं का भूगोल सीमित और दृश्यों का व्यापक होता है।
  
फिल्म एक भाषिक  कला है। जहाँ एक छोर भाषिक संरचना के रूप में सिनेमा और दूसरा शाब्दिक भाषा से इतर  भाषिक प्रयोग को साधने वाला सिनेमा है। फिल्म के संबंध में यह बात जानना ज़रूरी है  कि 'कैसे फार्मूला दर्शकों द्वारा स्वीकार्य हो जाता है ? कैसे वे बार-बार एक ही  तरह के प्लॉट और ट्रीटमेंट से उबते नहीं ? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि हम  सिर्फ फिल्म देखने नहीं जाते, हम एक ख़ास तरह की कहानी का प्रस्तुतीकरण देखने जाते  हैं। फिल्म के संदर्भ में कोई भी प्रतीक एक 'शब्द' है और कोई 'सिक्वेंस' एक वाक्य।  सिनेमा में भाषिक स्तर पर भाषिक तत्व के भी अलग-अलग पैमाने अलग-अलग फिल्में बनाती  हैं। फिल्म हर प्रकार के संप्रेषण  को सिद्ध करने वाली कला है। जहाँ कुछ फिल्में  दिखावटी, बनावटी या नाटकीय और लाउड होती है। तो कुछ बहुत ही कोमल, मुलायम और  संवेदनशील आदि-आदि होती हैं। (लेखक : फिल्म भाषा की आर्थी संरचना, दिलीप सिंह, समुच्चय पत्रिका, पृ-44)

भाषा के भीतर संस्कृति का प्रच्छन्न प्रवाह बना रहता है। हिंदुस्तानी समाज के विभिन्न मुद्दे राष्ट्रीयता, आतंकवाद, सामाजिक ढाँचा,  पारिवारिक रिश्तें, कृषि-किसान, औद्योगिकरण, बाज़ारवाद और भूमंडलीकरण, प्रवासी जीवन  आदि हिंदी फिल्मों में उठते रहें हैं। हिंदी भाषा भी नव्यतम चुनौतियों के वहन के  लिए नयी विधाओं और नए रूपों में हमारे सामने आयी है। हिंदी भाषा में फिल्म निर्माण  के साथ हिंदी ने उर्दू को प्रमुख सहायिका बनाया, गीतों और संवादों के लिए दृश्यता  का समावेश किया,भाषा और बिम्ब के अंतर संतुलन की पहचान की, नई तरह की  शैलियों-मुबंइया, हैदराबादी हिंदी जिसमें अभी तीन-चार सालों से एक नई भाषा को  फिल्मी पर्दे पर लाना शुरु किया हैं। इस हिंदी ने इन्हें मानक बनाया, नए तरह के  कोड, बिम्ब, प्रतीक, मिथ कथनों को ईज़ाद किया। पटकथा, संवाद और गीत लेखन जैसी नयी  विधाओं का सृजन किया हिंदी भाषा को तकनीकी अनुकूलन के लायक बनाया इसलिए हिंदी  फिल्मों ने हिंदी भाषा के सर्वथा नए रूप रंग और सांचे-ढांचे को गढ़ा है। हिंदी  साहित्य और भाषा पर हिंदी फिल्मों का गहरा प्रभाव पड़ा है। और यदि आगे बढ़कर यह कहा  जाए कि हिंदी फिल्मों  ने हिंदी के आलोचना शास्त्र के लिए कई मानक प्रदान किए तो  अनुचित न होगा। 

हिंदी भाषा की संरचनात्मकता, शैली वैज्ञानिक अध्ययन,जन-संप्रेषणीयता, पटकथात्मकता के निर्माण, संवाद, लेखन, दृश्यात्मकता, दृश्य भाषा,  कोडनिर्माण, संक्षिप्त कथन, बिम्बधर्मिता, प्रतीकात्मकता, भाषा-दृश्य की  अनुपातिकता आदि मानकों को हिंदी फिल्मों ने कई हद तक प्रभावित कर गढ़ा भी  हैं।

टी.वी से काफी भिन्न है सिनेमा इसलिए भाषाविद् अल्बर्ट लैफे ने फिल्म की अद्वितीयता को समझ कर ही यह कहा कि-" इतना सजीव रूप है सिनेमा यथार्थ का जितना होने की अपेक्षा किसी उपन्यास, नाटक या मूर्त पैटिंग में नहीं की जा सकता।" सिनेमा की अपनी भाषा व्यवस्था होती है होती ही भर नहीं, फिल्में भाषा व्यवस्थाओं का सृजन भी करती है। फिल्म भाषा एक सी नहीं होती। वह अनेक लचीले रूपों और आकृतियों में बोलती हैं।
  
फिल्म का सौंदर्यशास्त्र निजी है जो यथार्थ भी है और काल्पनिक भी। सिनेमा भाषा इन दोनों को ऐसा बना देती है कि ये हमें आश्वस्त भी करें और भरोसा भी दिलाएँ।  सिनेमा सूचना भी है। सूचना की अपनी भाषा और अपना अर्थतंत्र होता है। (फिल्म भाषा की  आर्थी संरचना, दिलीप सिंह, समुच्चय पत्रिका, पृ-47) एक प्रकार से सिनेमा भाषिक विन्यास सूचना सिद्धांत का व्यावहारिक रूप है जिसे फिल्म बहुत खूबसूरती के साथ  पिरोती है।

इन्हीं उपर्युक्त विशेषताओं के संदर्भ में यदि हिंदी सिनेमा को  देखें तो पिछले दो दशकों में हिंदी सिनेमा में वैविध्य की वृद्धि हुई। इस वैविध्यता  का सबसे बड़ा आधार लक्ष्य दर्शक की पहचान में निहित है। ऐसे में वर्तमान समय की  अभिरुचियों को ध्यान में रखते हुए व्यापक प्रवासी भारतीय के ज़ेब से पैसा निकालने के  लिए 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगें, हम आपके है कौन, नमस्ते लंदन, पटियाला हॉउड़,  सिंग इज़ किंग, मानसून वैडिंग, बैंडेड इट लाइक बैक्कम, पहेली, स्लम डॉग मिलिनियरआदि  फिल्में अस्तित्व में आई। कुछ फिल्में देश के प्रबुद्ध वर्ग को संबोधित है। कुछ  फिल्में विमर्श केन्द्रित है। कुछ शहरी युवा वर्ग के लिए है तो कुछ लोक संस्कृति को बेचने की ख़ातिर-जैसे लगान, स्वदेश, पिपली लाइव आदि। कुछ फिल्में विशेष बोलियों के  प्रयोक्ताओं से संबंध लिए हुए है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज की फिल्मी हिंदी अधिक यथार्थपरक हिंदी है उसमें जड़ता नहीं प्रवाह है। फिल्मों की लोकप्रियता बढ़ती जा रहीं हैं। एक ख़ास बात हिंदी फिल्म में भाषा के खिलंदडे, व्यंग्य, पैरोडी, रीमिक्सिंग रूपों की भी है। आज की फिल्में तो यथार्थ के बहुत नजदीक दिखाई दे रहीं हैं इसलिए उसके भाषाबिम्ब में ये सभी सूक्ष्म छटाएँ भी रूप पा रहीं हैं।

टी.वी-
  
विश्व के सर्वप्रथम टीवी सीरियल (धारावाहिक)'सोप ऑपेरा' की शुरुआत अमेरिका में हुई। 1930 के आसपास एक विज्ञापन कम्पनी  'प्रोक्टर एण्ड गैम्बल' ने दोपहर के समय धारावाहिक पारिवारिक नाटक प्रसारित करवाने के लिए साबुन बनाने वाली एक कम्पनी को तैयार कर लिया। साबुन बनाने वाली कम्पनी का आकर्षण यह था कि घरेलू महिलाएँ ख़ाली समय में नाटक सुनने के साथ-साथ उसके  साबुन की प्रशंसा सुन-सुनकर उसी प्रकार का प्रयोग करेंगी। इसलिए इसका नाम 'सोप  ऑपेरा' पड़ा। और तब से आज तक टी.वी कार्यक्रमों का प्रयोग मनोरंजन के रूप में कम,  परन्तु वस्तु के उत्पाद को विज्ञापित करने व बेचने के लिए अधिक किया जा रहा  है।

अतीत के पन्ने पलटने पर हम देखते हैं कि 80 के दशक तक टीवी का मतलब केवल दूरदर्शन ही होता था। दूरदर्शन के कार्यक्रमों का स्तर होता था। परन्तु 80 के दशक के आख़िरी सालों में टीवी में काफी 'चेंज' आया। भारत में जब सैटलाइट चैनलों की शुरुआत हुई तो विदेशी भाषा के 'सोप ऑपेरा स्टार टीवी के माध्यम से भारत के घरों में आए पर धीरे-धीरे  कई कारणों से आगे चलकर विज्ञापनों की प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी,जिसने टीवी के कई क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न उत्पादों के विज्ञापन हेतु धारावाहिकों, पौराणिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक, आंचलिक, जासूसी, बच्चों  के निमित,वैज्ञानिक (डिस्कवरी चैनल, फॉक्स हिस्ट्री, नेशनल जॉगरिफी) आदि कार्यक्रमों की एक बाढ़ सी आ गई। इन सब कार्यक्रमों से भाषा की प्रयुक्ति और प्रोक्ती निर्मित हो रहीं हैं। इस तरह के कई ढ़ेरों टीवी कार्यक्रमों में भाषा के विभिन्न प्रयुक्ति स्तर अपने को गढ़ रहे हैं।

अतः धारावाहिकों से लेकर 'लाफ्टर चैलेंज़', रियलटी शो आदि  क्षेत्रों तक में मनोरंजन इंडस्ट्री घुस गई है। लेकिन इन सब तकनीकी विकास के बावजूद  आज टीवी माध्यम हमारी वास्तविक दुनिया के समानांतर एक और दुनिया रच रहें हैं जिसके  सुख, दुःख, समाज, समस्याएँ और मनुष्य सभी कुछ अधिक अवास्तविक हैं। और आज की स्थिति  तो यह है कि उच्च मध्यवर्ग ने टीवी का सम्पूर्ण 'टेक ओवर' कर लिया है। इसे यों भी  कहा जा सकता है कि नए टीवी ने मध्यवर्ग का पूरा अधिग्रहण कर लिया है। इस दिखाई पड़ने  वाली छवियों में वह बुरी तरह आत्मकेंद्रित, लालची, पैसा खोर, चमकीला और हर दम  दनदनाता हुआ दिखता है।

इधर दूरदर्शन के परम्परागत कार्यक्रमों के विपरीत नए  प्रकार के कार्यक्रमों से सुसज्जित चैनलों ने उदारवादी  परिवेश में सम्पन्नता की  सीढ़ियाँ चढ़ते मध्यवर्ग को तेज़ी से आकर्षित किया। ऐसे में आम आदमी टीवी से गायब होने  लगा व उसके स्थान पर बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के परिवार टीवी के पर्दे और टी.आर.पी  पर राज करने लगें। 'बालिका वधू', 'बंदिनी,' 'मर्यादा', 'उतरन', 'साथिया' 'छोटी बहू'  आदि ऐसे कई धारावाहिक हैं जो साहित्यिक क्षेत्र में स्त्री संबंधी विमर्श से एक  विपरीत विमर्श प्रस्तुत करते नज़र आ रहे हैं। जिसका रूप बहुत ज्यादा अवास्तविक  प्रतीत होता हैं।  

पिछली सदी के सन् नब्बे से पहले के मध्यवर्ग में एक प्रकार  का 'ब्लेक व्हाइटपना' था। उसमें भाग-दौड़, मेहनत करना परिवार की जिम्मेदारी और  न्याय-अन्याय के कुछ परम्परागत मानकों की परवाह कुछ लाज लिहाज नज़र आता था। पर आज का  मध्यवर्ग 'सेल्फ कंज़प्शन' (आत्मोपभोग) में डूबा हुआ है। (नया मध्यवर्ग और नया टीवी,  सुधीश पचौरी, राष्टीय सहारा, 27, मार्च 2011)। हमारा  मीडिया मध्यवर्ग के दुश्चक्र से मुक्त नहीं हो पा रहा है। अब 'आम आदमी' या 'आम  जनता' शब्द कम सुनाई पड़ते हैं। और यदि मीडिया को अगर आगे विकास करना है तो  पूँजीवादी सत्ता तंत्र, बाज़ार व विज्ञापन के मनोवैज्ञानिक षडयंत्रों के कुचक्र से  अपने को बचाना होगा।  

विज्ञापन-
  
आज विज्ञापन कंपनियाँ उत्पाद बनाने से  पहले ब्रांड  (विचार) बना रहीं है और फिर उत्पाद व अंत में विज्ञापन जिनमें कई  शैलियों में उद्घोषों की एक सृजनात्मक प्रस्तुति को पिरोया जा रहा है तथा इन दोनों  के पश्चात् उपभोक्ता के विवेक को मार कर इच्छा, लोभ, लालच की प्रवृत्ति को उसमें  पैदा कर मुनाफा कमाने का साधन बनाया जा रहा है मीडिया और मनोरंजन उद्योग से साठगांठ  कर विज्ञापन कंपनियों ने बाज़ार में अपने उत्पाद को स्थापित कर लिया है। ऐसे में  विज्ञापनों की हवा पर सवार होकर उपभोक्तावाद दूर-दूर की यात्रा करने लगा है। हर  कहीं विशिष्ट वर्ग पश्चिमी सुख-साधन का सामान आयात कर रहें हैं। जिस पर कोई रोक-टोक  नहीं हैं।
व्यावसायिक और वाणिज्य विज्ञापन के अतिरिक्त कुछ ऐसे विज्ञापन भी है  जो अधिकतर सरकारी है जिनका मूल उद्देश्य व्यक्ति को सही सूचना प्रदान करना है।  लेकिन व्यावसायिक विज्ञापनों ने अपनी पूँजी के बल पर पूरे बाज़ारतंत्र, मीडिया पर  कब्ज़ा कर मनमाना मुनाफा कमाना शुरु कर दिया है। विज्ञापन की हिंदी 'जनसंचार की  हिंदी' की एक बहुप्रयुक्त और विशिष्ट उपप्रयुक्ति हैं। विज्ञापनी हिंदी के  प्रयुक्तिगत स्वरूप का निर्धारण वार्ताक्षेत्र (जनसंचार) वार्ता प्रकार  (पाठय, श्रव्य, दृश्य-श्रव्य, दृश्य-श्रव्य पठन) तथा वार्ता शैली (लक्ष्य उपभोक्ता  समाज की प्रयुक्ति के अनुसार) के आधार पर होता है। ये ही प्रयुक्ति के विवेचन के भी  आधार बनते हैं।
  
आज सरकार द्वारा व्यक्ति के विभिन्न स्वास्थ्य, अधिकार व विकास  संबंधी विज्ञापनों को भी नया रूप दिया जा रहा है जिससे की वे अधिक संप्रेषणिय हो  सकें। बाल विकास मन्त्रालय द्वारा बच्चों पर हो रहें अत्याचारों से उन्हें जागृत व  सतर्क करने के लिए सरकार अब कई विज्ञापन नये-नये अंदाज़ और भाषा शैली में विज्ञापित  कर रहीं हैं। टीवी पर एक ऐसा विज्ञापन आ रहा है जिसमें छोटे बच्चे को कई बातों से  सतर्क किया जा रहा है। ऐसे ही महिला ग्रामीण विकास संबंधी तथा वृद्धों, विधवाओं आदि  के विकास से संबंधित विज्ञापन अपने भिन्न उद्देश्य के साथ प्रसारित हो रहे है।  

फिल्मों के माध्यम से जहाँ टीवी मुनाफा कमा रहा है वहीं फिल्म उद्योग भी टीवी के  माध्यम से अपनी फिल्मों के ट्रैलर्स, प्रोमॉज़, म्युज़िक विडियों आदि का विज्ञापन कर रहें हैं। खेलों में क्रिकेट तो ख़ुद एक सबसे बड़ा विज्ञापन बन गया है। अंततः कई तरह के विज्ञापनों में भाषागत व शिल्पगत नये प्रयोग आ रहें हैं। जो केवल संप्रेषणीयता को दृष्टि में रखकर ही तैयार किए गए हैं। इन्हीं विज्ञापनों की श्रृंखला में एक  बहुत बड़ा क्षेत्र व्यावसायिक विज्ञापनों का भी है जो मूल रूप से अपने उत्पादों का  बाज़ार निर्मित करना चाहता है। यदि इस तरह के विज्ञापनों के उद्घोष वाक्यों पर हम  नज़र दौड़ाएँ तो ये उपभोक्ताओं में कई लोभ, लालच, प्रतिस्पर्धा आदि का निर्माण करते  नज़र आएंगें। यहाँ कुछ उदाहरणों को देखा जा सकता हैं-

1. गले की ख़राश का  फस्ट एड- (स्ट्रेप्सिल)2. आपकी ख़ुशियों की ज़ाबी-(टाटा नैनो)3. फास्ट  फॉरवर्ड कूल जहाँ, ख़ुशियाँ वहाँ (वर्लपूल)4. पैसों से खिलौने खरीदे जाते है  दोस्त नहीं, क्योंकि आपके पैसों से बढ़कर है 'आप'- (आई.डी.बी.आई बैंक) 5. बुलंद  भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज....(बजाज स्कूटर)6. हम आपकी ऐसी मदद करते है  जैसे हम अपने लिए घर ख़रीद रहें हों ! (आई.सी.आई.सी.आई, होम लोंस)7. जब इरादों  में हो इतनी चमक, तो कपड़ों में क्यूँ नहीं (सर्फ एक्सल)8. अमूल द टेस्ट ऑफ  इण्डिया9. कुछ बंधन अटूट होते है जैसे एयरटेल का नेटवर्क आपके साथ हमेशा चलता  हैं !10. क्योंकि आपके सपने सिर्फ आपके नहीं यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया11. एक  आयिडिया जो बदल दे आपकी दुनिया (आईडिया मोबाइल)12. कैडबरीज़ की नयी पर्क। थोड़ी सी पूजा। कभी भी, कही भी। 13. सनफीस्ट ड्रीम क्रीम लाओ। ड्रीमी, क्रीमी  दुनिया में खो जाओ। 14. बिरला सन लाइफ इंश्योरेन्स के रिटायरमेंट सोल्यूशन! ताकि मंहगाई चाहे बढ़ती रहे आप कल भी जियें आज की तरह !15. कॉलगेट एक्टिव  सॉल्ट, इसका अनोखा फार्मूला कीटाणुओं को हटाए ताकि मसूड़े बने स्वस्थ और दाँत जड़ों  से मज़बूत
       
ऐसे सैंकड़ों विज्ञापन जाने-अनजाने हिंदी भाषा  की  सृजनात्मक प्रयुक्ति का निर्माण भी कर रहें हैं। लेकिन अधिकतर इन विज्ञापनों का जो  लिप्यंतरण रोमन में हो रहा है वह एक तरह से हिंदी के लिए ख़तरे की घंटी हैं। 

विज्ञापन के क्षेत्र में एक और बात ध्यान खींचने वाली है वह विज्ञापन में स्त्री छवियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल। विज्ञापन का क्षेत्र आज पूर्ण रूप से उसे  पहले से अधिक वस्तु में सीमित करता जा रहा हैं। हालांकि विज्ञापन क्षेत्र में  स्त्रियों का खुला प्रदर्शन बहुतों के लिए स्त्री स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का  द्योतक हो सकता है परन्तु सोचने की बात यह है कि असल में स्त्री का मनमाना प्रयोग  कर कंपनिया चाहती क्या है? आज विज्ञापनों के माध्यम से स्त्रियों को पुरूष के लिए अधिक आकर्षित बनाने का तामझाम ज़ोरों पर है। अतः ये विज्ञापन स्त्री वर्ग के लिए  कैसी संस्कृति निर्मित कर रहें है? इस पर भी विचारनें की ज़रूरत हैं। 

यहाँ टाटा  स्काई के दो उदाहरण देकर विज्ञापन के सूक्ष्म उद्देश्य उत्पाद को बेचने की कलाकारी  का नमूना पेश किया जा रहा है-

1. टाटा स्काई-
आमिर ख़ान सरदार जी वाला विज्ञापन-आमिर  ख़ान-ये जो टाटा स्काई वाले है, ना इन पर तो मैं केश ढ़ोक दूँगा।आई मेक  देयर लाईफ़ लिविंग ब्लैडी हेल !हद कर दी यार, क्रिकेट का बुख़ार कोई कम था, जो ले  आए अपना पिक्चर क्वॉलिटि वाला डिब्बा. मेच के एक्सपिरियंस को इतना बढ़िया बना  दिया है कि लत लगा रखी है सबके। मैय्य किय्या पूत्तर बिज़ली का बिल भर आ। वन  ओल्ड मेन बिज़ली की लाइन में भूटे की तरह सिख़ रहा है और बेटा 'टाटा स्काई' पर क्रिकेट के मज़े लूट रहा है। ब्लैडी पिक्चर क्वॉलिटि। आज दिखाता हूँ कि बाप है कौन?आमिर ख़ान-ए ले (रास्ते में चलते हुए किसी अनजान  व्यक्ति के  हाथ में अपना टाटा स्काई थमा देता है।)नेपथ्य-पापा जी सॉरी,  लाइफ-लाइक पिक्चर क्लियरिटी, जो आप को दे क्रिकेट देखने का असली मज़ा। टाटा स्काई !  इसे लगा डाला तो क्रिकेट झिंगालाला !बेटा-पापा जी अपनी टाटा  स्काई चोरी हो गई। अरे वह तो होनी ही थी, वो ए ई इतनी कमाल की चीज़ !

2. टाटा स्काई-
आमिर ख़ान  दूधवाला-ग्राहक-अरे ! ये लो भईयाआमिर  ख़ान-बाबू जी ये तो आधे महीने का है,ग्राहक- तो.. ??  हम लोग तो छुट्टी पर थे, हमने दूध लिया कहा,आमिर ख़ान-तो लिया  नहीं तो क्या हुआ, गाय ने तो दूध दिया नाऊँ जानवर है सीधा-सादा ऊँ  छुट्टी-वुट्टी क्या समझे ऊ तो..पूरा दूध रोज़ देय !आमिर  ख़ान-अरे ऊँ तो '31' का महीना था, एक दिन का 25 रुपए और दे देते तो अच्छा  होता ! (कह कर ग्राहक से '25' रुपए झटक लेता है)आमिर ख़ान-जय  राम जी की बाबू जी (कह कर अपने रस्ते चले जाता है)नेपथ्य-भई  छुट्टी के पैसे किसी को मत दो चाहे वह दूध वाला हो या टाटा स्काई इसलिए हम लाये  है-वन्स ए इयर सबस्क्रिपशन हॉलिडे प्लेनयानि छुट्टी पर जाओं और पैसे भी मत  दोइसको लगा डाला तो लाइफ झिंगालाला !
  
अतः भाषा का इतना सुन्दर सृजनात्मक  इस्तेमाल निश्चित रूप से उपभोक्ता को वस्तु 
की ओर आकर्षित करेंगा ही। यानि ग्राहक  की मनोस्थितियों को समझकर एक ऐसे भाषा व बिम्ब (दृश्य) का प्रयोग विज्ञापनकत्र्ता  कर रहें हैं जिससे कि उनका उत्पाद अधिक से अधिक बिके। उपर्युक्त दोनों विज्ञापनों  के उदाहरणों में अपने-अपने तरीके से भोक्ता को आकर्षित करने की कला है।
  
भाषा-वैज्ञानिक, शैक्षणिक, सामाजिक और ज्ञान-विज्ञान के विस्तार के साथ जीवंत भाषा हिंदी के नये-नये रूप उभरे हैं। व्यवहार के स्तर पर भी हिंदी का प्रयोग व्यापक है। फिल्म और टीवी ने हिंदी के संपर्क भाषा रूप को भारत के हिंदीत्तर क्षेत्रों में ही नहीं,विदेशों में भी लोकप्रिय बना दिया है। दूसरे देशों के लिए आज हिंदी भारत की सभ्यता  और संस्कृति को समझने की माध्यम भाषा है। ग्लोबलाइज़ेशन के साथ-साथ जैसे स्थानीयता  की प्रवृत्ति बढ़ी है, वैसे ही हिंदी-मीडिया के व्यापक प्रसार के साथ बोलियों के  मिश्रण की प्रवृत्ति और भारतीय भाषाओं से शब्द-ग्रहण की प्रवृत्ति भी बड़े ज़ोरों से  बढ़ी है और ऐसे में मीडिया ने स्वीकार कर लिया है कि भाषा का एकरूपी होना संभव नहीं  हैं। विषमरूपी हिंदी की विविध छटाएँ आज दुनिया भर के हिंदी समझने वालों को एक सूत्र  में बाँध रहीं हैं। हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता को मीडिया ने अनेक कसौटियों पर परखा  है और हिंदी ने यह साबित कर दिखाया है कि ज्ञान-विज्ञान से लेकर मनोरंजन तक हर  क्षेत्र को पूरी तरह अभिव्यक्त और संबोधित करने में हिंदी सर्वसमर्थ है। विज्ञापन  के माध्यम से भी आज हिंदी दुनिया भर में फैले हिंदी भाषी बाज़ार को संबोधित कर रहीं  हैं। हिंदी अपनी ताकत से मीडिया पर सवार हो रही है इससे एक ख़तरा है कि अपने इस तरह  के संप्रेषण में हिंदी हिंग्लिश व खिचड़ी बनती जा रहीं है, ऐसे में यदि वह आम लोगों  की भाषा बन भी जाए, लेकिन विकास की भाषा नहीं बन पायेंगी। इन्हीं सब कारणों से  हिंदी का कोश सिमटता जा रहा है। और इन सब पर विचार करने की आवश्यकता भी है।

सुधीश पचौरी का कहना है कि "हम दो तरह की भाषाओं में जीया करते हैं-एक मानक कार्य की मानक भाषा और दूसरी अनौपचारिक भाषा। और भारत के संदर्भ में मानक भाषा अंग्रेजी कहीं जा सकती है।"आगे वे कहते हैं कि "भाषा की क़ीमत के असली सवाल भाषा  द्वारा पूँजी निर्माण में सहायक होने से जुड़े है। यही भाषा की क़ीमत की शर्त है।  भाषाओं के जीवन मरण के सवाल भी इस बात से जुड़े है कि वे भाषाएँ पूँजी के संदर्भ में  कितनी प्रोडक्टिव है? क्या प्रोडूस करती हैं? क्या ब्रांड बनाती है? भाषा। और अब हमें भी हिंदी को इसी संदर्भ में देखना होगा। अब हिंदी को संप्रेषण से आगे बढ़कर  एकरूपता पाने की ओर बढ़ना होगा।

अन्त में....
कुछ विचारणीय मुद्दे.....

1. जब पूरे शिक्षण-प्रशिक्षण के माध्यम को चालाकी से अंग्रेजीनुमा बनाया जा रहा है तो हिंदी के  विशुद्ध रूप की बात कैसे की जा सकती है?2. अल्प समय में बहुत कुछ जानने-समझने की अभिलाषा में जो कुछ परोसा जा रहा है, वह निश्चित ही कई व्यवस्थाओं को बदल रहा  हैं।3. निश्चित रूप से आज भी प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा  अधिक अपेक्षाएँ हैं।4. प्रिंट मीडिया को मनोरंजन और विज्ञापन के बीच एक सशक्त भूमिका निभानी थी जो वह नहीं निभा पा रहा है। 

                                                                                                             
  डॉ. बलविंदर कौर
प्राध्यापक, 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
खैरताबाद, हैदराबाद-500004

2 टिप्‍पणियां:

Gurramkonda Neeraja ने कहा…

महत्वपूर्ण जानकारी . इसी तरह आप हमें समसामयिक बातों से अवगत कराएँ.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अब तो पुस्तक... उपन्यास, कहानी, कामिक्स... सब बीती बातें हो गई हैं। रेडियो और फिल्म भी अब पीछे पड गए हैं। टीवी में बच्चे, बूढे सभी रमे दिखाई देते हैं :(