बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

मासूमियत

मासूमियत का सारा जहा
बचपन खो देता जहाँ !
हर पल दिल-दिमाग चौकन्ना है-जहाँ !
पल के द्वन्द्व में ही वह बहुरंगा है-वहाँ !
हजार सवाल खड़े हैं...!
अपने उत्तरों के कई रूप लिये..
किसे चुने और किसे छोड़े....
इसी कशमकश में जीवन तमाम हुआ है-यहाँ !
काश ! हम फिर से मासूम हो जाते !
शायद कितने ही गुनाहों से दूर हो पाते !
अब तो पागल होकर ही उसे पाना होगा !
या भूलकर द्वन्द्व को निर्वेद हो जाना होगा !

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