गुरुवार, 3 नवंबर 2011

गर्भ में आना-2


 जिसका चुपके से इंतज़ार,
उसी के आने से बेख़बर
जब उसका आना, जाना !
तो अपने को पहचाना !
पर मेरी ख़ुशी किसका अफ़साना ?
क्योंकि मुझे तो अपने को बिसराना !
फिर मेरी ख़ुशी का क्या ?
बात सुन सहम गई  !
फिर ज़िद में आगे हुई  !
बहुत से सवाल-ज़वाब के साथ !
पर डर हर पल बढ़ता गया !
कि जिसने अपने को न जाना
दूसरे को पहचान देगा-क्या ?
इसी द्वन्द्व में खड़ी हूँ !
फिर भी डर-डर लड़ी हूँ !

गर्भ में वह-1


न जाने कौन है वह !
न मुझे उसकी पहचान !
बातें करते डरती हूँ
पता नहीं क्या माँग ले ?
कैसे रहता होगा-वह ?
असल बरदाश्त का पुतला है !
कभी इस बात को सोच सहम जाती हूँ !
कितना अपना-सा लगते हुए...
एक ही पल में पराया लगे !
मैंने कोई सपना नहीं संजोया !
उसके आने के लिए....!
शायद ये ज़ायदती है !
ये जानकर भी अंजान होना होगा !
क्योंकि वह बहुत बड़ा रहस्य है !
मेरे गर्भ में जो पल रहा है !
उसके आदि-अंत से बेख़बर
मैं सब कुछ को विस्मृत कर देती हूँ !
इसी में शायद सुकून है !

कुछ मुक्तक


 जिंदगी में आना
  दो वक्त का ख़ाना
 फिर सब भूलाना
  वापस चले जाना।

तेलंगाना का होना
ये है कैसा रोना
राजनीति का खिलौना
जनता का कभी न  होना।

दर्द का आना
जैसे हो फसाना
कभी इधर आना
कभी उधर जाना
और कभी न हो ठिकाना !

आँखों का मोल बड़ा
जो न कहा वह गढ़ा
न कहकर कुछ मढ़ा
जिसे ले तू अढ़ा!

पानी न होता
तो फिर कैसा गोता !
कपड़े कैसे धोता
इंसान कैसे होता !

फूल का खिलना 
जैसे तुमसे मिलना
कली का टूटना
जैसे तुम्हारा रूठना !

दूर से मुसाफ़िर आया
आँखों में कई सपने लाया
हमने उसे बडा शताया
पर आख़िर में वह बड़ा भाया !

शब्दों के बिम्ब 
क्यूँ हो गए पलछिन
जो रहते थे शब्दों से अभिन्न
आज है छिन्न-भिन्न !

साक्षात्कार !
किसका-किससे ? 
मेरा जिंदगी से, 
या जिंदगी का मुझसे ?
आख़िर में क्या फ़र्क पड़ता ?
दोनों तरफ से तो मैं केन्द्र में अड़ता ....!