शुक्रवार, 13 मई 2011

दरिया


एक प्रेम का दरिया बहता है !
न जाने कब से !
उसे रोकने के सारे प्रयास
आखिर में विफल रहे !
जैसे एक छोटी-सी झनकार
न जाने इतने कठोर बंद कमरे में
कहाँ से चली आई !
लाख़ बहाने बनाए,
पर तार तो छू गया था
अब भला कहाँ  संभलता !
दरिया से मिला और
और दरिया हुआ !
ये कैसी अजीब दीवानगी है ?
शायद इस दुनिया को इसकी
ज्यादा ज़रूरत हैं !

सोमवार, 9 मई 2011

जिंदगी का एक सुखद दिन

9 मई।
पहले से ही तय था कि सर प्रो.ऋषभदेव जी के घर हम सात प्राध्यापकों को संगोष्ठी की सफलता को सेलिब्रोट करने के लिए आमंत्रित किया गया हैं। सबसे एक हफ्ते पहले ही स्वीकृति प्राप्त कर ली गयीथीं। देखते-देखते 9 मई का दिन आ ही गया। सर घर रह सकते थे, परन्तु उनकी भलमनसाहत कि वे हमें लेने सभा आये। पता नहीं शायद सोचा हो कि कहीं हम टाल न जाएँ, अपने वादे के बहुत पक्के हैं सर जी। खैर पहली बार पी.जी विभाग ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की गाड़ी ली।
12 बजे दोपहर को सभा से चलने का तय हुआ था तो ठीक 12 बजे हम सब निकले। गाड़ी के चालक लेस्ली जी ने  मनोरंजन  के लिए गाड़ी में गाने लगाए। पहले गाने तेलुगु में थे; मैंने उनसे निवेदन किया कि भई कुछ गाने हिंदी में भी लगा दें। खैर ! हिंदी में गाने शुरू हुए तो बस फिर क्या ! सर शुरू हो गए एक-एक गाने का विश्लेषण करने के लिए, बहुत ही मज़ा आ रहा था। मैं और डॉ. जी नीरजा सर के विश्लेषण को सुन-सुन कर आपस में फुसफुसाते  हुए अपनी टिप्पणी  भी जोड़-जोड़कर मज़ा ले रहें थें। बाकी तीनों प्राध्यापक डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ.गोरखनाथ तिवारी और डॉ. श्रीनिवास राव भी बाद में हमारे साथ शामिल हो गए। बहुत मज़ा आया।

सर के घर पहुँचते ही हमारे स्वागत के लिए एक स्नेहिल मुस्कान के साथ खड़ी थीं  डॉ. पूर्णिमा शर्मा जी ! सभी ने उन्हें प्रणाम किया और फिर हमें थके हारे समझकर तुरन्त ही मैडम स्प्राइट ले आई। अभी हमने स्प्राइट खत्म भी नहीं किया था कि सर ने इसरार  किया कि- भई भूख लगी है जल्दी खाना खिला दो ! वैसे तो तय हुआ था कि हम सब घर पहुँचकर ही कुछ-न-कुछ मदद करते हुए खाना बना लेंगे । परन्तु मैडम ने  तो सब कुछ तैयार रखा था। हमें बिलकुल कुछ भी नहीं करने दिया गया। छोले की सब्जी, पनीर , काजू  आदि से बनाए खूबसूरत चावल, अचार, पुदीने की चटनी, पापड़, दही, रोटी, पूरी, आईसक्रीम  और न जाने क्या-क्या। मैंने तो भई भरपेट खाया, सच में खाना बहुत बढ़िया  था। मेरे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि किसे  सबसे बढ़िया कहूँ । शायद यह  मैडम और सर के प्रेम-स्नेह का ही परिणाम था। सच में कितने अजीब लोग हैं । उनका निर्दोष मन हम लोगों को खाते देख कर बहुत प्रफुल्लित हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि कोई साधना सफल हो गई हो। इतने सहज और आत्मीय  लोग आज भी दुनिया में हैं; देखकर आँखें थोड़ी नम होने लगीं। खैर ! खाने के बाद पुरुषों  ने बैठकर सर के सेल्फ से कुछ किताबे निकालनी शुरू कीं  तो मज़ाक में ही सर ने अपनी पोल खोल दी कि उन लोगों की नज़रों और हाथों से बचाने के लिए ही आज सवेरे सर ने सारी किताबें मेज और सोफे से उठाकर अलमारी में रख दी थी!

खाने के बाद हम महिलाएँ दूसरे कमरे में जाकर गप्पबाज़ी करने लगीं। सच मैडम से बात कर ऐसा बिलकुल नहीं लगा कि वे हमसे कुछ साल बड़ी हैं। इतना भोलापन और बातों में इतनी स्पष्टता देखकर बहुत अच्छा लगा। उनकी बातें सुनकर ऐसा लगा कि बहुत समय से शायद हम उन्हें जानते हैं ! हमारी बातें चल ही रही थीं कि सर ने दूसरे कमरे से मैडम को फोन कर चाय बनाने का अनुरोध किया। हमारी बातें बीच में ही रह गईं। खैर चाय बहुत स्वादिष्ट  थी, हम सभी ने खूब चुस्कियाँ ले लेकर  पी। चाय के बाद जाने का समय आ गया, परन्तु मन नहीं भरा था। बहुत कुछ मन को छू गया था। उसे बयान करना मुश्किल है, पर अभी भी वे  पल बार-बार आँखों के सामने तरंग की  तरह बह रहे हैं। घर में मैडम ने जो अपना पुराना एलबम दिखाया - शादी का, तो यकीन ही नहीं हुआ कि एलबम की मैडम और आज हमारे साथ बातें कर रही मैडम एक ही हैं। एलबम की फोटो को लेकर बहुत सी चर्चाएँ हुईं। सच हमारी जिन्दगी में ये एलबम एक सुगंध की तरह हमें अपने उस अतीत में ले जाते है जहाँ से हम आज से उसकी तुलना कर आनंदित होते रहते हैं।

खाने के दौरान बार-बार सर  यह मलाल जता रहे थे कि उन्होंने खाने के आइटमों के बनाने में मैडम की कोई मदद नहीं की। आखिर मैडम को खुश करने के लिए सर ने उन्हें 'हे मेरी तुम !' व 'आपके सामने बन्दा  हाजिर है; आपके लिए क्या लाये?' जैसे आकर्षक वाक्यों का प्रयोग कर मैडम को जैसे एक तरह से  सम्मान और धन्यवाद दोनों दे दिए।  

घर से विदा लेते हुए मन में बहुत कुछ था। बार-बार मन बहुत सी चीज़ों का विश्लेषण कर रहा था। मन से बहुत सी सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी। खैर मैडम को प्रणाम कर बाहर निकले और फिर गाड़ी में गीत बजने लगे। हम सभा तक पहुँचने वाले ही थे कि लेस्ली जी ने गाड़ी एक ऐसी जगह जाकर रोकी, जहाँ एक ऐसी तरबूज की बंडी है जहाँ सुबह से शाम तक जाने कितने लोग आकर तरबूज खाते हैं। हमने भी तरबूज खाया और  सभा लौट आए। हम सबको घर पर भोजन के लिए आमंत्रित करने से लेकर वापस लाने तक सर में इतना उत्साह और खुशी थी कि बस ! मैं तो क्या कहूँ। एक सुन्दर दिन देने के लिए  केवल मैं तो मैडम और सर जी को धन्यवाद ही दे सकती हूँ। तो मैडम जी और सर जी मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। नमस्कार ! कोई त्रुटि हो गई हो  या अतिरिक्त बोल पड़ी होऊँ तो क्षमाप्रार्थी हूँ। 


ऐसा बहुत कुछ है जो महसूस किया गया, पर शब्द नहीं है कहने को कि आखिर कैसे कहूँ ......      

मंगलवार, 3 मई 2011

अज्ञेय जन्म शती समारोह के चित्र



30 अप्रैल को हमारे विभाग [उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा] में अज्ञेय जन्म शती  समारोह मनाया गया. इस अवसर पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के साथसाथ अज्ञेय की रचनाओं की पोस्टर प्रदर्शनी भी हम प्राध्यापकों और विद्यार्थियों-शोधार्थियों ने मिलकर लगाई.  श्रीमती चन्दन कुमारी ने इस आयोजन के कुछ चित्र भेजे हैं जो ऊपर प्रदर्शित हैं.

पूरी रिपोर्ट यहाँ पर है.

केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी

  


केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में 21 अप्रैल 2011 को आन्ध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के तत्त्ववधान में प्रो.ऋषभदेव शर्मा जी का व्याख्यान 'केदारनाथ अग्रवाल की कविता में प्रेम' अत्यधिक ज्ञानवर्धक और एक कवि की गहनतम संवेदना का प्रतिबिम्ब रूप साबित हुआ।
इस समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में प्रो.ऋषभदेव शर्मा और गोपाल शर्मा मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे तथा दैनिक समाचार पत्र 'स्वतंत्र वार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने केदारनाथ अग्रवाल के पूरे कृतित्व का संक्षेप में परिचय देते हुए उनकी रचनाओं में प्रेम पक्ष पर बोलने को ही मुख्य आधार बनाया। वैसे केदारनाथ अग्रवाल को प्रगतिशील कवि कहा जाता है परन्तु 'प्रेम' पर, और वह भी पत्नी प्रेम पर लिखी कविता के कारण भले ही प्रगतिवादी उनसे चिढ़ते रहें हो, लेकिन पारिवारिक स्तर पर उन्होंने ऐसी कविताओं के माध्यम से अपनी जीवन संगीनी को सम्मान प्रदान कर अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह किया है। ये बड़ी विडम्बना है कि भारत की प्रगतिशीलता में प्रेम का कोई स्थान नहीं है जबकि माक्र्स, लेनिन, एंगेल्स और चेगवारा ने भी प्रेम कविताएँ लिखीं। प्रो.शर्मा की यह मान्यता है कि शोषित और मजदूर भी प्रेम करता हैं। 'प्रेम' तो मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धी हैं।
केदारनाथ जी के काव्य संग्रहों में 'हे मेरी तुम' शीर्षक से संकलित कविताओं में उन्होंने अपनी पत्नी पार्वती देवी को लक्ष्य बनाकर काव्य रचना की हैं। केदार के लिए तो उनकी पत्नी ही उनकी रचना की प्रेरणा, प्रियसी आदि-आदि रहीं हैं।
केदारनाथ ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रेम को मानवीय जीवन की एक अनिवार्य मूल प्रवृत्ति माना। उनका प्रेम मांसलता से उत्पन्न है वह  केवल भावना का व्यापार नहीं हैं।
प्रेम की उनकी छोटी-छोटी कविताओं में उनकी प्रेम संबंधी मान्यताओं की स्पष्ट झलक मिलती हैं। प्रेम के संबंध में उनकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

मेरे गीतों को तब पढ़ना
बार-बार पढ़कर फिर रटना
सीखो जब तुम प्रेम समझना
प्रेम पिए बस पागल रहना।

केदार की कविताओं में प्रयुक्त 'तुम' सर्वनाम का प्रतीक नहीं है बल्कि वे उनकी पत्नी  को संबोधित 'तुम' है जिससे उनके गहन संबंधों का पता चलता है। उन्होंने अपनी पत्नी को ही अपनी प्रियसी घोषित कर पत्नी प्रेम को बासी और ठंडा होने की मान्यता को खण्डित किया। संकेतों में  केदारनाथ ने 'प्रेम' के विस्तृत रूप को भी प्रकृति, पत्नी, पुत्र, पुत्री, नाती-नातिन आदि के माध्यम से भी बिम्बित किया।
'प्रेम' की कविताओं के अंतर्गत ही अपनी पत्नी से वृद्धावस्था की दशा के संबंध में बातचीत करते हुए कवि  कहता हैं-


मैं पौधों से, फूलों से करोटन से भी बात कर लेता हूँ पत्नी भी ऐसा ही करती है।
ये ही सह्यदय  उदार कुटुम्बी रह गए है।
पत्नी ही बच जाती है जो एक मात्र श्रोता हो जाती है
घरु जीवन झलमला उठा है...

साथ ही एक और किसी अन्य कविता में सुबह की  धूप को बछड़े की तरह पालने पर बल देते है।
अतः एक तरह से कवि इन पंक्तियों के माध्यम से वृद्धावस्था विमर्श करते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन में आखिर उस पत्नी के बलिदान, प्रेम, सम्मान को याद करते हुए उसकी उपयोगिता को समझता हैं। उन्होंने परकीय आकर्षण को सामाजिक दायित्व से हीन कविताएँ मानते हुए उसे अस्वीकार किया है।
इसी संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार नामवर सिंह जी की बात को जोड़ा जा सकता है कि उन्होंने भी इस वर्ष के चार प्रमुख कवियों के जन्मशताब्दी वर्ष में केदारनाथ के विशिष्ट महत्व को उजागर किया है। एक प्रगतिशील कवि व साथ ही भारतीय मूल्य दृष्टि, नैतिक मान्यताओं का इतना बड़ा समर्थक विरला ही कोई होगा।
इस गोष्ठी की सबसे बड़ी विशेषता  यह रही कि इसमें प्रो. ऋषभदेव जी ने केदारनाथ जी की ठेरों कविताओं की लड़ी लगा दीं। जिससे आलोचनाओं व समीक्षाओं से भिन्न कविताएँ सुनकर एक नयी दृष्टि निर्मित होती हैं।
अंत में गोष्ठी के सारगर्भित व्याख्यान ने निश्चित रूप से केदारनाथ अग्रवाल पर सूई की नोक जितनी जानकारी को विस्तार दिया, जिसके लिए हम सभी प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी के आभारी हैं।
इसी गोष्ठी में प्रो. गोपाल शर्मा जी ने प्रकारांतर से शेक्सपीयर के प्रेम प्रसंगों की तुलना में केदार को श्रेष्ठ साबित किया। डॉ. राधेश्याम शुक्ल जी ने तो बड़े ही खुले विचार से प्रेम को किसी परिधि में बाँधने का विरोध किया। समारोह में इन सब वक्तव्यों के अतिरिक्त कई लोगों से भेंट और आत्मिय संबंध के बन जाने की प्रक्रिया ने भविष्य में पुनः पुनः इस तरह की गोष्ठियों में भाग लेने के लिए खूब प्रेरित किया है। पुनः इस गोष्ठी के आयोजकों के साथ-साथ जिन लोगों ने इसमें भाग लेकर इसे सफल बनाया, उन सबका पुनः धन्यवाद।