बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

दर्द

दर्द की तनहाई...
मुझे कहाँ ले आई !
डूब कर उसमें खो गई !
और जब तड़प आँसू बन गई...
ऐसा लगा कि अब न जाऊँ कहीं....
अपने रोम-रोम से जुश्तजू हो गई !
आँसू और तड़प का सेलाब-
जैसे बन गया मेरा मुकाम !
सच कैसी कशिश होती है...
इन दर्द के पलों में...
दिमाग जैसे एक ओर टिकने लगता है !
और श्वास का हर पल बेचैन हो उड़ता है !
दर्द में फिर भी एक आशा...
सब कुछ सहन करवा जाती हैं !
आने वाले पल के सुख का -आना !
पर जैसे ही वह आता है !
सब कुछ कैसे थम-सा जाता है !
हर अंग सुस्ताने लगता हैं !
मन भी बेखंबर हो जाने लगता है !
ऐसे में एहसास कम हो जाते है !
क्योंकि ऐसे में हम कहाँ अपने को पाते हैं !
दर्द का भेदी....
पाता है इस दुनिया को !
सम्पूर्णता में....!

मासूमियत

मासूमियत का सारा जहा
बचपन खो देता जहाँ !
हर पल दिल-दिमाग चौकन्ना है-जहाँ !
पल के द्वन्द्व में ही वह बहुरंगा है-वहाँ !
हजार सवाल खड़े हैं...!
अपने उत्तरों के कई रूप लिये..
किसे चुने और किसे छोड़े....
इसी कशमकश में जीवन तमाम हुआ है-यहाँ !
काश ! हम फिर से मासूम हो जाते !
शायद कितने ही गुनाहों से दूर हो पाते !
अब तो पागल होकर ही उसे पाना होगा !
या भूलकर द्वन्द्व को निर्वेद हो जाना होगा !

ठहराव

मनुष्य जीवन में ठहराव...
कितने उसके रंग और पहराव !
कभी मन ठहर जाने को करता !
तो फिर कभी चल जाने को !
मैं इस ठहराव और चल देने की कशमकश में...!
ढूँढ़ नहीं पाती हूँ कोई किनारा !
कभी चलना सुहाता,
तो कभी ठहर जाना !
असल में दोनों में कोई द्वन्द्व नहीं !
किसी एक को फिक्स करने में ही...
हम जीवन के सुख को गवाते है !
खैर, दोनों का अपना मुकाम हैं !
यहीं तो हम समझ पाते नहीं !